अज्ञान में ही ज्ञान का अहं-पृथक करना आसान नहीं है। स्वयं के बारे में विचार करना ही किसी भी तरह से रिक्तता का अनुभव होता है, अधिकांशतः विचार से उसे छिपाना कि प्रत्यक्ष होता है। विचार को दुनियाना तो बहुत श्रमसाध्य है, निर्णय को जोड़ना बहुत सरल है, क्योंकि विचार तो चारों ओर लोगों में तैरते रहते हैं। समुद्र के किनारे जैसे सीप-शंख जुड़ना करने में कोई मुश्किल नहीं है, ऐसे ही संसार में विचार-संग्रह अति सरल कार्य है। विचार शक्ति का संदर्भ हैं, जब कि विचार पराए है। विचार शक्ति को स्वयं ही नोटिस करता है, और विचार को स्वयं ही बाहर करना होता है। एक के कारण अंतरमुखता और दूसरे के कारण बहिरमुखता के द्वारों से यात्रा होती है। इसलिए मैंने कहा कि दोनों यात्राएं विशेष्य ही नहीं, प्रतिपक्षी भी हैं। और जो उन में से एक यात्रा पर जाता है, इस कारण वह दूसरी यात्रा पर नहीं जा सकता।
विचार-संग्रहों की दौड़ में जो पड़ा है, वह कई कारण से वह स्वयं ही स्वयं की विचार-दृष्टि से दूर हो जाता है। विचार-संग्रह की दौड़ भी धन-संग्रह की दौड़ जैसी ही है। धन-संग्रह मूल धन-संग्रह है, तो विचार-संग्रह सूक्ष्म धन-सग्रह और स्मरण रखें कि सभी संग्रह आंतरिक दरिद्रता के द्योतक होते हैं। भीतर की दरिद्रता का अनुभव ही बाहर के धन की खोज में ले जाता है। और यही मूल भूल शुरू हो जाती है। पहला ही चरण दिशा में पड़ जाए तो लक्ष्य के ठीक होने का तो सवाल ही गलत नहीं उठ रहा है। दरिद्रता भीतर है और धन की खोज! यह समस्त जीवन को अर्थहीन भ्रम में नष्ट कर देता है। दरिद्रता भीतर है तो ऐसी दौलत का रहस्य जो स्वयं के भीतर ही होगा।
मैं जो कह रहा हूं, क्या वह दो और दो चार की तरह स्पष्ट नहीं है? धन चाहते हैं या कि धनी अपरिचित चाहते हैं? ज्ञान चाहते हैं या अज्ञानी नहीं जानना चाहते हैं? सभी भ्रान्ति के संग्रहों को धोखा देने का उपाय है। लेकिन भ्रांति स्वयं भी अंदर की ही हो। अज्ञानी आंतरिक है, तो आंतरिक रूप से अलौकिक ज्ञान ही उसकी समाप्ति हो सकती है।
विचार-संग्रह ज्ञान नहीं, स्मृति है। लेकिन स्मृति के प्रशिक्षण को ही ज्ञान समझा जाता है। स्मृति के कोष में संगृहीत होते हैं। बाहरी से अस्वाभाविक का संवेदन पाकर वे उत्तर बन जाते हैं, और इसे ही हम विचार करना समझ लेते हैं। जब कि विचार की स्मृति से क्या संबंध? स्मृति अतीत है, पुरानी यादों का मृत संग्रह। जीवित रहने की समस्या का समाधान कहाँ? जीवन के संकट हैं नित्य नूतन, और स्मृति से सम्बद्ध चित्त के समाधान सदा अघटित होते हैं।
इसलिए जीवन में झल्लाहट भी हो जाती है, क्योंकि पुराने समाधान नए होने से हल करने में नितांत असमर्थ होते हैं। चौकसी का आवास बन जाता है, क्योंकि एक के बाद एक बढ़ती जा रही है और समाधान दूसरी ओर है। और उनसे कोई संबंध नहीं होता और कोई संबंध नहीं होता। ऐसा चित्त बूढ़ा हो जाता है और जीवन से उसकी संजीवनी शिथिल हो जाती है। स्वभाव ही ऐसा है कि शरीर के बड़े दिखने से पहले ही लोग बूढ़े हो जाते हैं और खाने के पहले ही मुर्दा हो जाते हैं।
सत्य की खोज के लिए, जीवन के रहस्य को साक्षात् के लिए युवा मन चाहिए, ऐसा मन जो कभी बूढ़ा न हो। अतीत से बंधते ही मन अपनी स्फूर्ति, ताजगी और विचार-शक्ति, सब कुछ खो देता है। फिर वह मृत में ही वनवासी लगता है और जीवन के प्रति उसके द्वारा बंद हो जाता है। चित्त स्मृत्ति से स्मृत्ति रूपी तथाकथित ज्ञान से न बँधा हुआ है, तभी निर्मलता आती है और चहक विचार की पहुँच वास्तविक होती है।
स्मृति से देखने का अर्थ है, घटना के माध्यम से वर्तमान में देखें। वर्तमान को ऐसे कैसे देखा जा सकता है? सम्यक रूप से देखने के लिए तो आंखें भली-भांति खुली होने लगती हैं। स्मृति से मुक्त होते ही चित्त को सम्यक दर्शन की क्षमता होती है, और सम्यक दर्शन सम्यक ज्ञान में ले जाता है। दृष्टि निर्मल हो, फेयर हो, तो स्वयं में प्रसुप्त ज्ञान की शक्ति जाग्रत होने लगती है। स्मृति के भार से मुक्त होते हुए ही दृष्टि अतीत से मुक्त होकर वर्तमान में गति करती है, और मृत से मुक्त होकर वह जीवन में प्रवेश करता है।
विचार-शक्ति के जागरण के लिए विचार का कम से कम होना आवश्यक है। भूलने की बीमारी नहीं होने वाली। जीवन जो संकटग्रस्त हो जाते हैं, उन्हें स्मृति के माध्यम से नहीं, सीधे और वर्तमान में देखने लगते हैं। शास्त्रों में देखने की वृत्ति छोड़ें। समस्या के समाधान के लिए समस्या को उनकी समग्रता में गहरा है। पिफर की समस्या किसी भी तल पर क्यों न हो। उसके विरोध में कोई धारणा बनाकर कभी भी कोई समाधान नहीं किया जा सकता है, बल्कि व्यक्ति और द्वंद्व में लगाया जाता है।
वस्तुतः समस्या में ही समाधान भी छिपा होता है। यदि हम शांत और फेयर मन से समस्या में समाधान खोजते हैं तो बेशक उसे पा सकते हैं। विचार-दृष्टि अन्य विचार से मुक्त विचारों वाली दृष्टिकोण है। जब तक अन्य विचार से काम चलाने की वृत्ति होती है तब तक स्वयं की शक्ति के जागरण का कोई तर्क ही नहीं होता। विचार की बैसाखियां ही स्वयं के पैरों से चलने के अतिरिक्त और कोई विकल्प न होने से मरे हुए पैरों में अनायास ही रक्त-संचार होने लगता है। फिर चलकर नीचे आता है।
उद्धरण से मुक्त हों और देखें। क्या देखता है? देखें कि स्वयं की यथासत्ता से कोई नई ही शक्ति जाग रही है। किसी अभिभावी और संबद्धता के विपरीत हो रहा है। जैसे चक्षुहीन को अनायास ही चक्षु मिल गया हो, ऐसा ही दिखेगा, जैसे अंधेरे गृह में अचानक ही दीया जल गया। विचार की शक्ति जागती है तो अंतर्हृदय आलोक से भर जाता है। विचार-शक्ति का उदभव होता है तो जीवन में आंख मिल जाती है। और जहां आलोक है, वहां आनंद है। और जहां आंख है, वहां निष्काम मार्ग है। जो जीवन विचार में दुख बन जाता है, वही जीवन विचार के आलोक में संगीत बन जाता है।
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