हम सबने बहुत कुछ सप्रेस किया है, दबाया है। न हम रोये हैं, न हम हंसे हैं, न हम नाचे हैं, न हम खेले हैं, न हम दौड़े हैं। हमने सब दबा लिया है; हमने अपने भीतर सब तरफ से द्वार बंद कर लिये हैं और हर द्वार पर हम पहरेदार होकर बैठ गये हैं। अब अगर हमें परमात्मा से मिलने जाना हो तो ये दरवाजे खोलने पडेंगे। तो डर लगेगा, क्योंकि जो-जो हमने रोका है वह प्रकट हो सकता है। अगर आपने रोना रोका है तो रोना बहेगा, हंसना रोका है, हंसना बहेगा। उस सबको वह जाने दें, उस सबको निकल जाने दें। आप अपने को पूरी तरह छोड़ दें और जो आपके भीतर होता है उसे होने दें-नाचना हो नाचें, चिल्लाना हो चिल्लाये, दौड़ना हो दौड़ें, गिरना हो गिरें-छोड़ दें सब भांति और जब आप सब भांति छोड़ेंगे तब आप अचानक पायेंगे कि आपके भीतर वर्तुल बनाती हुई कोई ऊर्जा उठने लगी, कोई शक्ति आपके भीतर जगने लगी, सब तरफ द्वार टूटने लगे। उस वक्त भय मत करना। उस वक्त समग्र रूप से उस आंदोलन में, उस मूवमेंट में, जो आपके भीतर पैदा होगा, वह जो शक्ति आपके भीतर वर्तुल बनकर घुमने लगेगी, उसके साथ एक हो जाना, अपने को उसमें छोड़ देना। तो घटना घट सकती है। घटना घटना बहुत आसान है। लेकिन हम अपने को छोड़ने को तैयार नहीं होते और कैसी छोटी चीजें हमें रोकती हैं, जिस दिन आप कहीं पहुंचेंगे उस दिन पीछे लौटकर बहुत हंसेंगे कि कैसी चीजों ने मुझे रोका था! रोकनेवाली बड़ी चीजें होती तो ठीक था, रोकनेवाली बहुत छोटी चीजें हैं। कुछ पूछना हो, कुछ बात करनी हो, तो थोड़ी देर हम बात कर लें, और फिर ध्यान के लिये बैठें। कुछ भी पूछना हो तो पूछें।
अगर सब उद्देश्य छोड़ सको तो इससे बड़ा कोई उद्देश्य नहीं हो सकता। अगर प्रकृति जैसे हो सको तो सब हो गया। लेकिन आदमी अप्राकृतिक हो गया है, इसलिये वापस लौटने के लिये, उसे प्रकृति तक जाने के लिये भी उद्देश्य बनाना पड़ता है। यह दुर्भाग्य है। वही तो मैं कह रहा हूं कि सब छोड़ दो। लेकिन अभी तो हमने इतना पकड़ लिया है कि छोड़ना भी हमें एक उद्देश्य ही होगा। वह भी हमें छोड़ना पड़ेगा। हमने इतने जोर से पकड़ा है कि हमें छोड़ने में भी मेहनत करनी पड़ेगी। हालांकि छोड़ने में कोई मेहनत की जरूरत नहीं है। छोड़ने में क्या मेहनत करनी होगी! यह ठीक है कि कहीं कोई उद्देश्य नहीं है। क्यों नहीं है लेकिन? नहीं होने का कारण यह नहीं है कि निरुद्देश्य है प्रकृति नहीं होने का कारण यह है कि जो है, उसके बाहर कोई उद्देश्य नहीं है।
एक फूल खिला। वह किसी के लिये नहीं खिला है; और किसी बाजार में बिकने के लिये भी नहीं खिला है; राह से कोई गुजरे और उसकी सुगंध ले, इसलिये भी नहीं खिला है; कोई गोल्ड मेडल उसे मिले, कोई महावीर चक्र मिले, कोई पद्मश्री मिले, इसलिये भी नहीं खिला है। फूल बस खिला है, क्योंकि खिलना आनंद है; खिलना ही खिलने का उद्देश्य है। इसलिये ऐसा भी कह सकते हैं कि फूल निरुद्देश्य खिला है और जब कोई निरुद्देश्य खिलेगा तभी पूरा खिल सकता है, क्योंकि जहां उद्देश्य है भीतर वहां थोड़ा अटकाव हो जायेगा। अगर फूल इसलिये खिला है कि कोई निकले, उसके लिये खिला है, तो अगर वह आदमी अभी रास्ते से नहीं निकल रहा तो फूल अभी बंद रहेगा; जब वह आदमी आयेगा तब खिलेगा। लेकिन जो फूल बहुत देर बंद रहेगा, हो सकता है उस आदमी के पास आ जाने पर भी खिल न पाये, क्योंकि न खिलने की आदत मजबूत हो जायेगी। नहीं, फूल इसीलिये पूरा खिल पाता है कि कोई उद्देश्य नहीं है।
ठीक ऐसा ही आदमी भी होना चाहिये। लेकिन आदमी के साथ कठिनाई यह है कि वह सहज नहीं रहा है, वह असहज हो गया है। उसे सहज तक वापस लौटना है और यह लौटना फिर उद्देश्य ही होगा। तो मैं जब उद्देश्य की बात करता हूं तो वह उसी अर्थ में जैसे पैर में कांटा लग गया हो और दूसरे कांटे से उसे निकालना पड़े। अब कोई आकर कहे कि मुझे कांटा लगा ही नहीं है तो मैं क्यों कांटे को निकालूं? उससे मैं कहूंगा, निकालने का सवाल ही नहीं है, तुम पूछने ही क्यों आये हो? कांटा नहीं लगा है, तब बात ही नहीं है। लेकिन कांटा लगा है, तो फिर दूसरे कांटे से निकालना पड़ेगा। पहला कांटा परेशान कर रहा है, लेकिन एक कांटे को दूसरे कांटे से ही निकालना पड़ेगा। हां, एक बात ध्यान रखनी जरूरी है कि दूसरे कांटे को घाव में वापस मत रख लेना-कि इस कांटे ने बड़ी कृपा की, एक कांटे को निकाल; तो अब इस कांटे को हम अपने पैर में रख लें। तब नुकसान हो जायेगा। जब कांटा निकल जाये तो दोनों कांटे फेंक देना। जब हमारा जो हमने अप्राकृतिक जीवन बना लिया है, जब वह सहज हो जाये, तो अप्राकृतिक को भी फेंक देना और सहज को भी फेंक देना; क्योंकि जब सहज पूरा होना हो, तो सहज होने का खयाल भी बाधा देता है। फिर तो जो होगा, होगा। नहीं मैं नहीं कह रहा हूं कि उद्देश्य चाहिये। इसलिये कहना पड़ता है उद्देश्य कि आपने उद्देश्य पकड़ रखे हैं, कांटे लगा रखे हैं, अब उन कांटों को कांटों से ही निकालना पड़ेगा।
इस जगत में जड़ और चेतन जैसी दो वस्तुये नहीं हैं। जिसे हम जड़ कहते हैं, वह सोया हुआ चेतन है; और जिसे हम चेतन कहते हैं, वह जागा हुआ जड़ है। असल में जड़ और चेतन जैसे दो पृथक अस्तित्व नहीं हैं, अस्तित्व तो एक का ही है। उस एक का नाम ही परमात्मा है, ब्रह्म है-कोई और नाम दें-और वह एक ही, जब सोया हुआ है तब जड़ मालूम होता है और जब जागा हुआ है तब चेतन मालूम होता है। जैसे कि हम यह कह सकते हैं कि वृक्ष हैं ही नहीं, बस बीज हैं। गलत नहीं है यह बात, क्योंकि वृक्ष सिर्फ बीज का ही रूपांतरण है। हम कह सकते हैंः बीज ही हैं, वृक्ष नहीं हैं। लेकिन खतरा है इसमें। इसमें खतरा यह है कि कुछ बीज कहें, जब बीज ही हैं तो हम वृक्ष क्यों बनें? वे बीज ही रह जाये। नहीं, ज्यादा अच्छा होगा कि हम कहेंः वृक्ष ही हैं बीज नहीं हैं। तब बीज को वृक्ष बनने की संभावना खुल जाती है।
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