हमारा मन बहुत तरह से व्यवहार करता है। हमारा मन जब अकड़ जाता है और कहता हैः मैं ही सब कुछ हूँ और कोई कुछ नहीं, तब वह अहंकार की तरह प्रतीत होता है। वह मन का एक ढंग है; वह मन के व्यवहार का एक रूप है। तब वह अहंकार, जब वह कहता है-मैं ही सब कुछ! जब मन घोषणा करता है कि मेरे सामने और कोई कुछ भी नहीं, तब मन अहंकार है और जब मन विचार करता है, सोचता है, तब वह बुद्धि है। और जब मन न सोचता, न विचार करता, सिर्फ तरंगों में बहा चला जाता है, अन-डायरेक्टेड….। जब मन डायरेक्शन लेकर सोचता है-एक वैज्ञानिक बैठा है प्रयोगशाला में और सोच रहा है कि अणु का विस्फोट कैसे हो-डायरेक्टेड थिंकिंग, तब मन बुद्धि है। और जब मन निरूद्देश्य , निर्लक्ष्य, सिर्फ बहा जाता है-कभी सपना देखता है, कभी धन देखता है, कभी राष्ट्रपति हो जाता है-तब वह चित्त है; तब वह सिर्फ तरंगें मात्र है। और तरंगें असंगत, असंबद्ध, तब वह चित्त है और जब वह सुनिश्चित एक मार्ग पर बहता है, तब वह बुद्धि है। ये मन के ढंग हैं बहुत, लेकिन मन ही है।
सागर में तूफान आ जाए, तो तूफान और सागर एक होते हैं या अलग? विक्षुब्ध जब हो जाता है सागर तो हम कहते हैं, तूफान है। आत्मा जब विक्षुब्ध हो जाती है तो हम कहते हैं, मन है; और मन जब शांत हो जाता है तो हम कहते हैं, आत्मा है। मन जो है वह आत्मा की विक्षुब्ध अवस्था है; और आत्मा जो है वह मन की शांत अवस्था है। ऐसा समझेंः चेतना जब हमारे भीतर विक्षुब्ध है, विक्षिप्त है, तूफान से घिरी है, तब हम इसे मन कहते हैं। इसलिये जब तक आपको मन का पता चलता है तब तक आत्मा का पता न चलेगा और इसलिए ध्यान में मन खो जाता है। खो जाता है इसका मतलब? इसका मतलब, वे जो लहरें उठ रही थीं आत्मा पर, सो जाती हैं, वापस शांत हो जाती है। तब आपको पता चलता है कि मैं आत्मा हूँ। जब तक विक्षुब्ध हैं तब तक पता चलता है कि मन है। विक्षुब्ध मन बहुत रूपों में प्रकट होता है- कभी अहंकार की तरह, कभी बुद्धि की तरह, कभी चित्त की तरह-वे विक्षुब्ध मन के अनेक चेहरे हैं। आत्मा और मन अलग नहीं, आत्मा और शरीर भी अलग नहीं; क्योंकि तत्व तो एक है, और उस एक के सारे के सारे रूपांतरण हैं और उस एक को जान लें तो फिर कोई झगड़ा नहीं है-शरीर से भी नहीं, मन से भी नहीं। उस एक को एक बार पहचान लें तो फिर वही है-फिर रावण में भी वही है, फिर राम में भी वही है। फिर नमस्कार दोनों को ही कर आएंगे, या दोनों को ही जला आएंगे; क्योंकि दोनों में वही है। एक है तत्व, अनंत हैं अभिव्यक्तियां; एक है सत्य, अनेक हैं रूप; एक है अस्तित्व, बहुत हैं उसके चेहरे, मुद्राएं।
विचार फासले बनाएगा; वह कहेगा-यह शरीर है, यह मन है, यह आत्मा है, यह परमात्मा है। विचार फासले बनाएगा। क्यों? क्योंकि विचार समग्र को एक साथ नहीं ले सकता, विचार बहुत छोटी खिड़की है; उससे हम टुकड़े-टुकड़े को ही देख पाते हैं। जैसे एक बडा मकान हो और उसमें एक छोटा छेद हो। और उस छोटे छेद से मैं देखूं। तो कभी कुर्सी दिखाई पड़े, कभी टेबल दिखाई पड़े, कभी मालिक दिखाई पडे़, कभी फोटो दिखाई पड़े, कभी घड़ी दिखाई पड़े। छोटे छेद से सब टुकड़े-टुकड़े दिखाई पडें, पूरा कमरा कभी दिखाई न पड़े; क्योंकि वह छेद बहुत छोटा है। और फिर दीवार गिराकर मैं भीतर पहुँच जाऊं, तो पूरा कमरा एक साथ दिखाई पड़े। विचार बहुत छोटा छेद है जिससे हम सत्य को खोजते हैं। उसमें सत्य खंड-खंड होकर दिखाई पड़ता है। लेकिन जब विचार को छोड़कर हम निर्विचार में पहुँचते हैं, ध्यान में, तब समग्र, दि टोटल दिखाई पड़ता है। और जिस दिन वह पूरा दिखाई पड़ता है, उस दिन बड़ी हैरानी होती है कि अरे! एक ही था, अनंत होकर दिखाई पड़ता था! पर वह अनुभव से ही।
ध्यान में प्रवेश तो एक क्षण में हो जाता है। हाँ, दरवाजे के बाहर कितने ही जन्म घूम सकते हैं। दरवाजे में प्रवेश तो एक ही क्षण में हो जाता है। क्षण भी ठीक नहीं, क्योंकि क्षण भी काफी बड़ा है, क्षण के भी हजारवें हिस्से में हो जाता है। वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि क्षण का हजारवां हिस्सा भी टाइम का ही हिस्सा है। असल में ध्यान तो प्रवेश होता है टाइमलेसनेस में, समय रहता ही नहीं और प्रवेश हो जाता है। इसलिये अगर कोई कहे कि ध्यान में प्रवेश में मुझे घंटे भर लगा, तो वह गलत कहता है; कहे कि साल भर लगा, तो वह गलत कहता है; क्योंकि जब ध्यान में प्रवेश होता है तो वहां समय नहीं होता। समय होता ही नहीं। हाँ, ध्यान का जो मंदिर है, उसके बाहर आप जन्मों तक चक्कर काटते रहें। लेकिन वह प्रवेश नहीं है। सब का हिसाब हम रखें जो मंदिर के बाहर घूमने में वक्त बिताया, तो वह अंतहीन हिसाब है; वह अनंत जन्मों का हिसाब है। उसको भी बताना मुश्किल है, क्योंकि बहुत लंबा है। उसकी भी कोई गणना नहीं की जा सकती और अगर प्रवेश को ही ध्यान में रखें सिर्फ, तो उसे समय की भाषा में नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह दो क्षणों के बीच में घट जाती है घटना। एक क्षण गया, दूसरा अभी आया नहीं, और बीच में वह घटना घट जाती है। आपकी घड़ी में एक बजा और फिर एक बजकर एक मिनट बजा और बीच में जो गैप छूट गया, उस गैप में होती है वह घटना। वह सदा गैप में, इंटरवल में, दो मोमेंट के बीच में जो खाली जगह है, वहाँ होती है और इसलिये उसको नहीं बताया जा सकता कि कितना समय लगा। समय बिलकुल नहीं लगता, समय लग ही नहीं सकता, क्योंकि समय के द्वारा इटरनल में प्रवेश नहीं हो सकता। जो समय से बाहर है, उसमें समय के द्वारा जाना नहीं हो सकता।
आनंद में समय मिट ही जाता है, छोटा-मोटा नहीं होता। आनंद में समय होता ही नहीं। जब आप आनंद में होंगे तब आपके पास समय नहीं होगा। असल में, समय और दुःख एक ही चीज के दो नाम हैं। टाईम जो है वह दुःख का ही नाम है; समय जो है वह दुःख का ही नाम है। मानसिक अर्थों में समय ही दुःख है और इसीलिए हम कहते हैं-आनंद समयातीत, कालातीत, बियांड टाईम, समय के बाहर है। तो जो समय के बाहर है, उसे समय के द्वारा नहीं पाया जा सकता।
ज्ञान की उपलब्धि निर्विचार में होती है और उपलब्धि हो जाये तो वह हर अवस्था में रहता है। फिर तो विचार की अवस्था में भी रहता है। फिर तो उसे खोने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन उपलब्घि निर्विचार में होती है। अभिव्यक्ति विचार से भी हो सकती है। लेकिन उपलब्धि निर्विचार में होती है। उसे पाना हो तो निर्विचार होना पड़े। क्यों निर्विचार होना पड़े। क्योंकि विचार की तरंगें मन को दर्पण नहीं बनने देतीं।
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