मृत्यु की उपस्थिति में सभी कुछ निर्जीव जैसा है। स्वयं को छोड़कर स्व की अमर सत्ता तथा स्व अस्तित्व की अनुभूति ही अमृत है। स्व अस्तित्व ही मृत्यु की पकड़ से बाहर है। जो मृत्यु को भी कांपने के लिये विवश कर दे, वह नचिकेता है। जब वह अपने-आप में जाग्रत हो उठता है, तब समय पास आकर ठहर जाता है। काल अर्थात समय में जो कुछ भी है, वह सब विनाशी है। समय मृत्यु की गति है। समय मृत्यु रूपी रथ के पहिये हैं। इस प्रकार समय में भागना और बहना ही मृत्यु में बहना तथा भागना है। सभी उसकी ओर भाग रहे हैं। मृत्यु के मुख में ही लोग दौड़ रहे हैं। जरा सोचो, तुम्हारा संपूर्ण जीवन क्या है? क्या तुमने किसी की मृत्यु देखी है? क्या उस मृत्यु में तुम्हें कुछ सत्य दिखा है। अतएव मृत्यु का बोध होने पर ही जीवन के प्रति जागरूकता बढ़ेगी। यह जीवन के वास्तविक अर्थ के साथ ही साथ उसके प्रति गहरा सम्मान भी प्रकट करेगी।
जीवन से पलायन करने अर्थात भागने का अर्थ है-मृत्यु की ओर मुड़ना। इसलिये जो भी हो रहा है, उसके वास्तविक रूप को देखकर उसे स्वीकार करना चाहिए। इससे जीवन के प्रति वह चेतना बलवती हो जायेगी जो समय में ठहरकर जीवन और उसके अर्थ को छूना चाहती है। वर्तमान युग में व्यक्ति की संपूर्ण चेतना बाहर की ओर बढ़ रही है। वह उसे ठहरकर नहीं देखना चाहता। ऐसा मनुष्य बहिर्मुख होकर स्वयं को केवल बाहर देखता है और अपनी सुरक्षा के विभिन्न उपायों को खोजकर मृत्यु से बचना चाहता है। पाश्चात्य पद्धति के किंचित आस्वादन के बाद अब हताश और निराश बुद्धिजीवी लोगों ने स्वयं की ओर मुड़ने का एकाकी साहस जुटाया है। इसीलिए धरती पर जीवन को सहेजकर मानवीय अस्तित्व में उस व्यापक संभावना को कुरेदने के प्रयोग हो रहे हैं।
इस परिदृश्य में प्रश्न यह उठता है कि जीवन की सत्यता क्या है? वस्तुतः जीवन अंदर से बाहर की ओर आता है। बाह्य जगत में केवल इसका विस्तार होता है। बाहर जीवन का केद्र नहीं है। जीवन का केंद्र मानव का स्व है। मानव का निज स्वभाव और उसकी मूल सत्ता ही जीवन की मूल ऊर्जा तथा उसका स्त्रोत होते हैं। इस प्रकार व्यक्ति का जीवन बिंदु और अभिव्यक्ति का केंद्र एक ही है। विकास के नियम के अनुसार, संपूर्ण सृष्टि उसी एक केंद्र बिंदु से प्रारंभ हुई और उसी केंद्र बिंदु से मानव के व्यक्तित्व का विकास हुआ। जब व्यक्ति अपने बाहरी स्थूल अस्तित्व से बाह्य आवरण हटाते हुए केंद्र की ओर बढ़ता है तब वह स्वयं आत्मा या ईश्वर की ओर बढ़ता है।
जीवन में अशुभ भाव कांटों की तरह हैं, इसलिये न उनका संग्रह करना चाहिये और न ही आदान-प्रदान। जीवन एक पथ है और प्रत्येक मनुष्य यहां यात्री है। जन्म से लेकर मृत्यु तक हर मानव इस जीवन-पथ पर चलता है। वह इस पथ पर चलता रहे और यही उसके मनुष्यत्व की सार्थकता है।
संसार में तीन तरह के लोग जीवन जीते हैं। पहले प्रकार का जीवन ऐसा है, जहाँ पशु में और मानव जीवन में कोई फर्क नहीं है। दूसरे प्रकार का जीवन वह है जिसमें मनुष्य, मनुष्य की तरह बनने के लिये इच्छुक होता है। जहाँ मनुष्य अपने बाहरी विकास के साथ-साथ अपने भीतर की ऊँचाइयों को भी प्राप्त करने की तमन्ना रखता है। तीसरे प्रकार के जीवन में मनुष्य ईश्वरत्त्व की ऊँचाई तक पहुँचना चाहता है। जीवन नदी की वह धारा है, जो सांसारिक किनारों को छूकर बहा करती है। कुछ नदी किनारों को दिया करती है, तो कुछ न कुछ वह किनारों से लिया भी करती है। इस तरह सारा जीवन लेन-देन भरी एक यात्रा है और इसका सर्वोत्तम सूत्र है-न्यूनतम लेना, अधिकतम देना और श्रेष्ठता जीना। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उठते-बैठते, चलते-फिरते, जाने-अनजाने जिससे भी हम मिलते हैं उनसे जीवन ऊर्जा का आदान-प्रदान होता है। ऐसे में कुछ भेंट ली जाती है और कुछ भेंट दी जाती है। मनोविज्ञान कहता है कि जो भीतर है, वह बाहर झलकता है। जो भीतर है, हम वही बांटना चाहते हैं। इसलिये श्रेष्ठतम जीवन कैसे जिया जाये, इस पर विचार करना होगा। केवल स्थूल अर्थों में जीना तो उथलापन है। इसके गहरे अर्थ को समझने का प्रयास होना चाहिये। जब हम अपनी गहराई में जायेंगे तो हमें अपने भीतर राग, द्वेष, झूठ, पाखंड, लाभ, कपट और अहंकार जैसे अनेक विकार दिखेंगे, लेकिन साथ ही सत्य, करुणा और पवित्रता के भाव भी दबे हुये ही सही, किंतु वे भी अवश्य दिखाई देंगे। संभव है, इतना अंतः दर्शन भी व्यक्ति का जीवन बदल दे। लोक जीवन में कहा जाता है कि जीवन पथ का सर्वश्रेष्ठ पाथेय है, ‘‘उनसे सदा दूर रहना जिनसे अशुभ मिलता हो और उनके सदा करीब रहना जिनसे कुछ श्रेष्ठ मिलता हो।’’ लेकिन आदतन जीवन मार्ग में जो भी कुछ देता है, हम बटोर लेते हैं-कभी आवश्यकता से कभी औपचारिकता से, कभी शर्म से तो कभी मजबूरी से। इस प्रकार अपने जीवन में भी कचरा इकट्ठा कर लेते हैं। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति रास्ते में कुछ अफवाहें सुनाना शुरू करे तो हम उसे अत्यंत ध्यान से सुनने लगते हैं, बिना यह सोचे-समझे कि इनको मन के भीतर ले जाने से क्या परिणाम होगा? व्यर्थ की बातों में सिर खपाना हमारी दिनचर्या का हिस्सा बनकर रह गया है। हैरानी की बात है कि हमारे आंगन में कोई कचरा डाल जाये तो हम नाराज होकर उससे झगड़ने चले जाते हैं। लेकिन जब कोई हमारे मन या मस्तिष्क में झूठी और निरर्थक बातों का कचरा डालता है तो न हम नाराज होते हैं और न ही उसे लेने से इनकार करते हैं, बल्कि ध्यान लगाकर उसे रुचिपूर्वक सुनते हैं।
एक माली खाली टोकरी लेकर बगीचे में फूल तोड़ने के लिये गया। वहाँ कुछ देर तक चमेली, केवड़ा, मोगरा, कनेर, गेंदा आदि के फूल तोड़-तोड़कर अपनी टोकरी में डालता रहा। सहसा उसे हँसते हुए कुछ गुलाब दिखाई पड़े। माली उनके पास पहुँचा और प्रश्न किया, ‘क्या आप अपने हंसने का कारण बताएंगे?’
गुलाब ने कहा, ‘अवश्य, परंतु इससे पहले आप हमारे प्रश्न का उत्तर दीजिए कि प्रतिदिन आप इस फुलवारी में से फूल ही क्यों चुनते हैं? काँटे क्यों नहीं चुनते?’ माली ने जवाब दिया, ‘जिनके लिये ये फूल चुने जाते हैं, वे मनुष्य केवल फूलों से ही प्यार करते हैं, काँटों से नहीं।’ यह सुनते ही गुलाब ने व्यंग्य भरे स्वर में कहा, ‘यदि ऐसी बात है तो मनुष्य दूसरों के जीवन में काँटा बोना और देखना क्यों पसंद करता है?’ माली इस प्रश्न से ठगा रह गया। जीवन में अशुभ भाव उन्हीं काँटों की तरह हैं, न उनका संग्रह करना चाहिए और न ही आदान-प्रदान। आत्मा की अनुभूति के बाद बाहर-भीतर में कोई अंतर नहीं पड़ता। ‘जित देखूं तित श्याममयी है’ तथा ‘यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः’ आदि अनुभूति की अभिव्यक्ति के वाक्य हैं।
सस्नेह
शोभा श्रीमाली
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