अग्नि शब्द से अग्नि पैदा नहीं होती है और आप कितना ही चिल्लाये-आग, आग, आग-कोई आग पैदा नहीं होती। फिर भी ‘आग’ शब्द का आग से संबंध है और पैदा बिल्कुल नहीं होती। फिर भी संबंध है, प्रतीक का संबंध है, सिंबल का संबंध है। अभी यहां कोई जोर से चिल्ला दे- आग लग गई! तो कुछ लोग भागना तो शुरू करेंगे और अगर आस-पास धुआं भी दिखाई पड़ जाये, चाहे आग न भी लगी हो, तो भी भगदड़ तो हो जायेगी। आग शब्द भी आपको दौड़ा सकता है।
अन्दर मन है। उसके अपने राग हैं, अपने रंग है, दूसरे को तो दिखाई नहीं देता, तुम्हीं को दिखाई पड़ेगा। तुम्हारा मन दूसरों को दिखाई भी कैसे पड़ सकता है? तुम किस दुनिया में रहते हो वह किसी को भी पता नहीं चलता। तुम थोड़े होश से रहो, तो तुम्हीं को पता चलना शुरू होगा और तुम्हारा मन सारी चीजों को रंग डालता है। किसी को तुम कहते हो की यह मेरा अपना है और यह पराया। किसी को मित्र, किसी को शत्रु। कौन है मित्र? कौन है शत्रु? जो तुम्हारी वासनाओं के अनुकूल पड़ जाये, वह मित्र। जो तुम्हारी वासनाओं के प्रतिकूल पड़ जाये, वह शत्रु। कोई अच्छा लगता है, कोई बुरा लगता है। किसी के तुम पास होना चाहते हो। किसी से तुम दूर होना चाहते हो। यह सब तुम्हारे मन का ही खेल है।
जहां धन धोखा है, वहां उसी को सब कुछ मान कर जी लेता है। जहां देह आज है और कल नहीं होगी, उस देह के साथ ऐसा आसक्त हो जाता है, कि जैसे यही मैं हूं! जहां विचार हवा की तरंगों से ज्यादा नहीं हैं, उन्हीं विचारों में इतना लीन हो जाता है, जैसे कि वे शाश्वत नित्य है। जहां अहंकार एक झूठी मान्यता है पर सब न्यौछावर कर देता है, मरने-मारने को उतारू हो जाता है। कल्पना अज्ञान का सूत्र है।
जीवित प्रभु ही पार लगाते हैं। अगर तुम डूब रहे हो तो कोई जिंदा आदमी ही तुम्हें बचा सकता है। घाट पर लाशें रखी रहे तो उन लाशों में से एक भी छलांग लगाकर पानी में नहीं कूदेगी, तुम्हें बचाएगी नहीं और जीवित भी लोग बैठे हों, लेकिन जीवित में भी केवल वही बचा सकता है तुम्हें, जो तैरना जानता हो। जिन्दगी उनकी है जो गणित से मुक्त हो जाते है, जो हिसाब-किताब से ऊपर उठते हैं, जो प्रेम से जीते हैं। जो हृदय से जीते हैं, जिन्दगी उनकी है और जिनकी जिन्दगी है उन्हीं का परमात्मा है और जिनकी जिन्दगी है उनका स्वर्ग कल नहीं है, भविष्य में नहीं है, मौत के बाद नहीं है। उनका स्वर्ग अभी है और यहीं है। वे स्वर्ग में ही है। अर्थात् आनन्दमय है, पूर्णमय है। लेकिन मनुष्य के जीवन का एक तर्क है- एक काम करके जब थक जाता है तो तत्क्षण दूसरी अति पर चला जाता है। स्वभावतः उसे लगता है ऐसा करने से नहीं हुआ, इसके विपरित करके देख लूं। केवल यह एक प्रतीक है और महत्वपूर्ण प्रतीक है।
छाया तो ठोस चीज की बनती है- शरीर की बनती है, आत्मा की नहीं बन सकती। अगर बिल्कुल शुद्ध कांच हो- पारदर्शी-तो उसकी छाया नहीं बनेगी। आत्मा तो पदार्थ नहीं है, चेतना है, आत्मा की कोई छाया नहीं बन सकती। देह तो यहीं छूट जाती है, परलोक में तो सिर्फ आत्मा होती है। आत्मा की कैसी छाया! बुद्धि का काम इसलिये थोड़ा कठिन है।
तुम गाली देते हों, क्योंकि तुम पार नहीं होना चाहते। तुम कहते हो, हम भले है, मजे में है, कहां ले चले? हमें जाना नहीं। हमने यहां घर बना लिया है, गृहस्थी बसा ली है, बहुत फैलाव कर लिया है, बहुत जाल बुन लिया है। हमारे सारे स्वार्थ इस किनारे पर है और तुम कहते हो- उस किनारे चलो। तुम ही जाओ। आयेंगे कभी हम भी, मगर अभी नहीं। लेकिन बुद्धि की भी तकलीफ है। उनको पड़ता है कि तुमने जो बनाया है सब झूठा है माया है, सपना है। वे चाहते हैं कि तुम्हें जगा दें। उनकी करूणा चाहती है कि तुम्हें जगा दे।
क्योंकि तुम जो धन इकट्ठा कर रहे हो वह धन नहीं है, कूड़ा-करकट है। तुमने जो हीरे समझे है, वे हीरे नहीं है, कंकड-पत्थर है। बुद्धि को साफ दिखाई पड़ रहा है कि तुम कंकड-पत्थरों को इकट्ठे कर रहे हो और समय गंवा रहे हो। वे तुम्हें झकझोरना चाहते हैं। वे कहते हैं, जरा आँख खोल कर भाई देखो ये कंकड-पत्थर है! और मुझे हीरों की खदान पता है, मैं तुम्हें वहां ले चलता हूं जहाँ अकूत हीरे है। मगर तुम्हारी भी अड़चन है। तुम जन्मों-जन्मों से इन्हीं कंकड-पत्थरों को हीरे मान रहे हो। तुम्हारी बड़ी श्रद्धा इन कंकड-पत्थरों पर है। कोई डिप्टी कलेक्टर है, उसको कलेक्टर होना है। वह कहता है, अभी ठहरो। अभी निर्वाण नहीं, अभी समाधि नहीं। अभी कहां कैवल्य! पहले कलेक्टर तो हो जाऊं! लेकिन कलेक्टर होने से क्या होगा? कमिश्नर होना है। कमिश्नर होने से क्या होता है? गवर्नर होता है। और यह होने की दौड़ का कोई अंत नहीं है।
सब भरोसे आत्मवचनाये है
यहां कितना ही भरोसा रखो, सब भरोसे आत्मवचनाये है। यहां कितनी ही कामनाओं के घोड़े दौड़ाओ, सब सपनों की दौड़ है। कितनी ही नावें चलाओ, सब कागज की नावें है और कितना ही मन फूला-फूला लगे, सब पानी के बुलबुले हैं- अब टूटे, तब टूटे, देर-सबेर, लेकिन सब बुलबुले टूट जायेंगे, फूट जायेंगे। हाथ यहां कुछ भी नहीं लगता है। खाली हाथ हम आते है और खाली हाथ हम जाते हैं। कुछ गंवा कर जाते है, कमा कर तो कुछ भी नहीं जाते। बच्चा पैदा होता है तो बंद मुट्ठी आता है, जाता है तो खुला हाथ जाता है। कम से कम भ्रम तो था बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक की! ठीक ही कहते हैं। कम से कम बच्चा भ्रम तो लेकर आता है। लेकिन वे सारे भ्रम जिन्दगी में टूट जाते हैं।
तुम्हारे अहंकार
तुम्हारे अहंकार के जीवित रहने के लिये दूसरे की जरूरत है। अगर दूसरा मौजूद हो तो अहंकार जीता है। तू हो तो मैं जीता है, बिना तू के मैं को कोई अस्तित्व नहीं बचता। जहां तू ही नहीं है वहां मैं भी नहीं है और जहाँ मैं नहीं है वहां घबराहट लगेगी कि डूबने लगे- डूबने लगे अतल गहराइयों में! कोई पार मिल सकेगा इस अतल गहराई का, भरोसा नहीं आता। हाथ में छूटने लगे सब सहारे। अब तक अहंकार में जीये हो- मैं हूँ। लेकिन जहाँ तू गया वहीं मैं भी गया।
गुरू को तुम बदल नहीं सकोगे।
शास्त्र को तुम बदल सकते हो। गुरू तुम्हें बदलेगा और गुरू की बदलाहट का पहला सूत्र तो यही है, कि पहले वह तुम्हें जगायेगा और बतायेगा कि तुम गहरी नींद में सोये हुए हो। वह पहले तुम्हें इस होश से भरेगा की तुम अज्ञानी हो, निपट अज्ञानी हो। वह पहले तुम्हारी आँखे अंधकार के प्रति खोलेगा। क्योंकि अंधकार के बाद ही प्रकाश की संभावना है। गिरा हुआ ही उठ सकता है और जो सोचता है, मैं उठा ही हूँ, शिखर पर विराजमान हूँ, उसको उठाने के सब उपाय व्यर्थ हो जाते हैं और कोई उसको उठाने की झंझट में पड़ता भी नहीं।
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