शिष्य को श्रद्धावान तथा स्थिर आशय वाला, लोभ अनुपयोगी, अपने अंगों को स्थिर धारण करने वाला, आज्ञाकारी जितेन्द्रिय होने लगे।
शिष्य को ईश्वर विश्वासी, गुरु में दृढ आस्था धारण करने वाला, और शक्ति विश्वास से पूर्ण ओट-प्रोत होना चाहिए। शिष्य के लिए गुरु और में भेद करना उचित नहीं है, और यदि वह ऐसा करता है तो जीवन में न्यूनता बनी रहती है।
शिष्य को कहे कि वह गुरु के वचनों पर पूरा ध्यान दे। हे गुरुदेव ! आप पर प्रसन्न हो इस प्रकार आदर सहित वचन बोलने वाला होना चाहिए।
सेवा में तत्पर शिष्य को लगता है कि वह गुरु के निकट ही हैं, और गुरु की आज्ञा प्राप्त करने पर ही अन्य कहीं जा सकते हैं। गुरु के मुख की भंगिमाओं को देखने-समझने वाला तदनुरूप ही कार्य करे, यही शिष्यता है। साथ ही गुरु की आज्ञा को पूर्ण आदर से फॉलो करें।
श्रेष्ठतम शिष्य वही है, जो गुरु के सामने कभी असत्य न बोले और न ही अधिप्राप्त करें। काम, क्रोधा, लोभ, मोह, मान, हंसी-मजाक, स्तुति, चपलता, कुटिलता, आमोद-प्रमोद, दृष्टि का निर्देशन-विक्रय आदि क्रियायें शिष्य को गुरु के साथ कभी नहीं कर पाते।
शिष्य को इन सभी बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए, क्योंकि गुरु ही साक्षात शिव हैं। इसलिए उन्हें हमेशा प्रणाम करते हैं उनकी सेवा में सतत् लगे रहे।
शिष्य को कहे कि वह निरन्तर गुरु का ही ध्यान करे, गुरु का ही स्मरण करे और यदि वह ऐसा करता है, तो निश्चित ही ब्रह्ममय बनता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। वह शिष्य का शरीर, पद, रूपादि की आसक्ति से विमुक्त हो जाता है।
गुरु की आलोचना या निंदा करना या आरोपित शिष्य के लक्षण नहीं है।
प्राप्त करना अनिवार्य है गुरु दीक्षा किसी भी साधना को करने या किसी अन्य दीक्षा लेने से पहले पूज्य गुरुदेव से। कृपया संपर्क करें कैलाश सिद्धाश्रम, जोधपुर पूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन से संपन्न कर सकते हैं - ईमेल , Whatsapp, फ़ोन or सन्देश भेजे अभिषेक-ऊर्जावान और मंत्र-पवित्र साधना सामग्री और आगे मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए,