जहां सुख हो, वहां हमेशा सुख ही रहे, ऐसा सम्भव नहीं, जहां दिन तो रात भी आएगी। सुख के बाद दुःख आएगा ही, परन्तु आनन्द के बाद आनन्द ही आता है। आनन्द और सुख में यह मूलभूत अन्तर है, आनन्द के बाद मृत्यु नहीं आ सकती, चिन्ता नहीं व्याप्त हो सकती।
अगर तुम जीवन में आनन्द प्राप्त करना चाहते हो, तो समर्पित होने की क्रिया सीखनी पड़ेगी, अपने प्राणों को गुरु के प्राणों में समावेश करने की क्रिया सीखनी ही पड़ेगी, अपने आप को भुलाना पड़ेगा। तुम्हारे पास जो भी चिन्ताएं है, दुःख है, परेशानियां है, बाधाएं है, वे सभी तुम्हें मुझको समर्पित कर देनी हैं।
तुम्हें बिल्कुल खाली पात्र की तरह मेरे पास आना हे, खाली कागज की तरह मेरे पास आना है, जिसमें मैं पूर्णत्व लिख सकूंगा, मैं उस पर ब्रह्मत्व लिख सकूंगा। मैं तुम्हें बता सकूंगा, कि जीवन की पूर्णता क्या है? जीवन का आनन्द क्या है? जीवन की सर्वोच्चता क्या है? श्रेष्ठता क्या है?
अणु से विराट बनाने की क्रिया केवल गुरु जानता है, मनुष्य से देवता बनाने की क्रिया केवल गुरु जानता है, मूलाधार से सहस्त्रार तक पहुंचाने की क्रिया केवल गुरु जानता है और इसी लिये जीवन का आधार केवल और केवल गुरु ही होता है।
गुरु तो तुम्हें कहीं भी भगवा कपड़ों में मिल जाएंगे, मगर सद्गुरु न कोई भगवे कपड़े पहिनता है, न कोई चालाकी करता है, उसकी वाणी में ओज होता है, एक सत्यता होती है, एक दृढ़ता होती है, वह ठोकर भी मार सकता है, वह तुम्हें चेतना युक्त भी बना सकता है, यदि तुम तैयार हो तो।
साधना पथ की ये पगडण्डि़यां चाहे ऊबड़-खाबड़ हों, चाहे कंटीली हों, चाहे इस रास्ते में टेढ़े-मेढ़े पत्थर बिखरे हो, परन्तु इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन रास्तों का जो समापन है, वह अद्भुत है, पूर्ण आनन्दयुक्त है, पूर्णता देने वाला है और वहां पहुंच कर पूरी यात्रा की थकान अपने आप में समाप्त हो जाती है।
मंत्रों के माध्यम से उस दैवी सहायता को प्राप्त करना, जिसके माध्यम से हम जीवन में पूर्णता प्राप्त कर सकें, उसको साधना कहते हैं। साधना के लिये यह आवश्यक है, कि हम उन देवताओं से परिचित हों—- और यह परिचय मात्र और केवल मात्र सद्गुरु ही करवा सकते हैं।
उन रास्तों पर पैर लहुलहुहान तो होते हैं, थकावट तो आती है, रास्ते की धूप को सहन करना पड़ता है, परन्तु अन्त में अलौकिक अनिवर्चनीय आनन्द की प्राप्ति होती है, जिसे समाधि सुख है।
गुरु तो बहुत दूर की देखता है, वह देखता है कि शिष्य को जीवन की पगडण्डी पर कहां खड़ा करना है, और जहां खड़ा करना है उसके लिये आज उसको कौन सी आज्ञा देनी है। इसलिए शिष्य को आज्ञा पालन में विलम्ब नहीं करना चाहिए।
शिष्य तो वह है, जिसकी हर समय मन में यही इच्छा हो, कि मैं गुरु के पास दौड़कर पहुंच जाऊं हो सकता है कोई मजबूरी हो, नहीं जा सके, यह अलग चीज है, मगर मन में उत्कण्ठा हो, तीव्र इच्छा हो, छटपटाहट बनी रहे कि उसे हर हालत में गुरु के पास पहुचंना है।
समर्पण हाथ जोड़ने से नहीं हो सकता, और न ही गुरु की आरती उतारने से हो सकता है। समर्पण का तात्पर्य है, कि गुरु जो आज्ञा दे, उसका बिना नानूच किये पालन किया जाए।
यदि कोई शिष्य चाहे, कि मैं गुरु को हृदय में समेट लूं, गुरु को अपने जीवन में पा लूं, गुरु को अपने में आत्मसात् कर लूं और यदि उसके हृदय में प्रेम की सरिता नहीं है, यदि उसके हृदय में प्रेम का रस नहीं है, तो वह अपने जीवन में, अपने हृदय में गुरु को उतार भी नहीं सकता।
शिष्य भी स्त्री बनकर गुरु को प्राप्त कर सकता है, हृदय पक्ष को जाग्रत करके अपने आप में चेतना प्राप्त कर सकता है, उस भावना को प्राप्त करके कि मेरा केवल एक ही चिन्तन, एक ही तथ्य, एक ही धारणा है कि अपने जीवन में गुरु को आत्मसात कर सकूं, जीवन में ही नहीं, अपने प्राणों में आत्मसात कर सकूं, प्राणों में ही नहीं, मेरे रोम-रोम में, रेशे-रेशे में, रग-रग में गुरु स्थापित हो सकें।
साथ ही मेरा स्वप्न तो यह भी है कि मेरे शिष्य उस पवित्र भूमि का स्पर्श कर, अपने जीवन को धन्य कर, उसकी चेतना से ओतप्रोत होकर, वहां की स्निग्धाता में तरल होकर वहां की पावनता से पवित्र होकर वहां की ज्योत्स्ना से शुभ्र होकर पुनः इस समाज में लौटे और समाज को स्पष्ट और प्रामाणिक विवरण दे सकें। बता सके की बिना भौतिकता को छोड़े हुये भी कैसे जीवन के उस सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
प्राप्त करना अनिवार्य है गुरु दीक्षा किसी भी साधना को करने या किसी अन्य दीक्षा लेने से पहले पूज्य गुरुदेव से। कृपया संपर्क करें कैलाश सिद्धाश्रम, जोधपुर पूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन से संपन्न कर सकते हैं - ईमेल , Whatsapp, फ़ोन or सन्देश भेजे अभिषेक-ऊर्जावान और मंत्र-पवित्र साधना सामग्री और आगे मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए,