यह चिन्तन किसी पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि में नहीं हो सकता। देवताओं और राक्षसों में भी जन्म लेने की क्रिया नहीं है, इसलिए मनुष्य जन्म को ब्रह्माण्ड की सर्वश्रेष्ठ क्रिया कहा गया है।
जीवन में जीवन की गति है? यह किसी भी तरह से खतरनाक नहीं है।
उस पशु जीवन से केवल गुरू ही उठा सकते है। मनुष्य जीवन का क्या उद्देश्य है इसे देवता भी नहीं बता सकते, क्योंकि जिन्होंने जन्म लिया ही नहीं वे इस मर्म को नही समझ सकते। परन्तु गुरू ने जन्म लिया है और जन्म लेकर पूर्णता तक पहुँचा है, इसलिए वह शिष्य को उस जगह तक पहुँचा सकता है।
जो पूर्णता का चिन्तन स्पष्ट करें, उसे गुरू कहा गया है। जिस क्षण गुरू तुम्हें दीक्षा देता है, जिस क्षण वह ब्रह्मा बनकर तुम्हारी उत्पति करता है, वहीं क्षण तुम्हारे जीवन का स्वर्णिम प्रभाव होता है, वहीं से तुम्हारा नवजीन शुरू होता है।
गुरू तुम्हें मात्र दीक्षा नहीं देता है, वह तुम्हारे रक्त को शुद्ध करता है, जिसमें पीढ़ी दर पीढ़ी का छल, कपट, असत्य, व्याभिचार समाया हुआ है। गुरू तुम्हें एक चिन्गारी देता है, एक क्रान्ति देता है, एक विस्फोट देता है, और मृत्यु से अमृत्यु की ओर ले जाने की क्रिया देता है।
मैने तुम्हें उसी पगडण्डी पर अग्रसर किया है, जहां अमृत्यु है, जहां चेतना है, जहां प्राण है, जहां पूर्णता है। मैं तुम्हें ऐसा ही आशीर्वाद दे रहा हूँ कि तुम्हें जीवन में पूर्णता और श्रेष्ठता प्राप्त हो।
मेरा स्वप्न यह भी है कि मेरे शिष्य सिद्धाश्रम की पवित्र भूमि को स्पर्श कर अपने जीवन को धन्य कर उसकी चेतना से ओतप्रोत होकर वहां के सान्निग्ध में तरल होकर, वहां की पावनता में पवित्र होकर, वहां की ज्योत्सना से शुभ होकर उस समाज को यह बता सकें कि बिना भौतिकता को छोड़े हुए भी कैसे जीवन के उस उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
यह संघर्ष जो मन का है, प्रत्येक शिष्य के मन में रहता है और यही उसके जीवन में पाप है और जीवन में आनन्द व मस्ती इस संघर्ष में विजयी होने की क्रिया को कहते है। मन खिंचता है विषय की ओर, छल की ओर, झूठ की ओर, कपट की ओर, दूसरे के बहकावे में आकर अपने आप को निराशा में धकेलने की ओर, किसी का अहित पहुँचाने की भावना की ओर तथा चालाकी की ओर ये तो संचारी भाव है।
गुरू तो शिष्य को माया में इसलिये ग्रस्त करता है कि वह सोचता है इसको धक्के देकर देख लूं एक बार, दो बार, चार बार धक्के देकर देख लूं, क्या वह जीवन भर शिष्य बन सकता है या केवल श्रोता ही रहेगा शिष्य नहीं बन सकता।
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