सद्गुरू एक सूर्य के समान, एक दीपक के समान शिष्य के जीवन में प्रवेश करता है जिससे शिष्य का मोह, अज्ञान, वासना, रूपी अंधकार समाप्त हो सके तथा वह आध्यात्मिक उच्चता एवं श्रेष्ठता के मार्ग पर अग्रसर हो सकें।
परन्तु केवल सद्गुरूदेव से मिलने या उनकी जय जयकार करने या उनके चरण स्पर्श करने से यह रूपांतरण संभव नहीं है। इसके लिये तो आवश्यक है कि गुरू के हृदय से जुड़ने की क्रिया हो। शिष्य सद्गुरू को अपने हृदय में स्थापित कर ले और ऐसा स्थापित कर ले कि फिर सद्गुरू के अलावा किसी और चीज के लिये स्थान ही न हो।
अगर आपके हृदय में पहले से ही बहुत कुछ स्थापित है, देवी-देवता या कोई भी अन्य तो सद्गुरू वहां स्थापित नहीं हो सकता।
प्रेम गलि अति सांकरी तामें दोऊ न समाए।
जब हृदय स्वच्छ होगा, उसमें छल, झूठ, व्याभिचार, द्वेष कुछ नहीं होगा तभी सद्गुरू का प्रवेश संभव है।
फिर विषय हर क्षण सद्गुरू का स्मरण करता रहे। हर क्षण केवल उनका ही ध्यान रहे, चाहे फिर वह कोई भी कार्य करने में संलग्न क्यों न हो। जिस प्रकार एक पहिया घूमता रहता है परंतु उसकी धूरी स्थिर रहती है उसी प्रकार शिष्य संसार के समस्त क्रियाओं में संलग्न रहता हुआ निरंतर क्रियाशील बना रहता है, परंतु उसका मन सदा सद्गुरू में स्थिर रहता है।
जब ऐसी स्थिति जीवन में उपस्थित होती है तो सद्गुरू दूर रहते हुये भी विषय का मार्ग दर्शन करते रहते है। तब शिष्य स्वयं अनुभव करता है कि उसके हर कार्य में सद्गुरू सहायक हो रहे है तथा उसकी हर क्षण विपदाओं से रक्षा कर रहे है।
व्यक्ति या शिष्य कोई और साधना न भी कर पाये, कोई मंत्र जप न भी कर पायें तो भी अगर वह सद्गुरू स्मरण करता है या उनके नाम मात्र का जप करता है तो वही किसी भी अन्य साधना या मंत्र जप से श्रेष्ठ सिद्ध होता है तथा उसके जीवन के लिये पूर्ण सिद्धिदायक या उन्नितदायक सिद्ध होता है।
सद्गुरू शिष्य से धन या चढ़ावे की आशा नहीं करता। वह तो केवल यह चाहता है कि शिष्य स्वच्छ हृदय से अपने मन के तार सद्गुरू के मन से जोड़े रखे जिससे कि जीवन के हर पग पर शिष्य का मार्गदर्शन करते हुये सद्गुरू उसे उच्चता एवं श्रेष्ठता तक पहुँचा सके।
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