समुद्र मन्थन से निकलने वाले कालकूट विष का भगवान् शंकर ने पान किया और अमृत देवताओं को दिया। श्रेष्ठ व्यक्तित्व और समाज एवं कुटुम्ब के स्वामी का यही कर्त्तव्य है। उत्तम वस्तु समाज के अन्यान्य लोगों को देनी चाहिये और अपने लिये परिश्रम, त्याग तथा तरह-तरह की कठिनाइयों को ही रखना चाहिये।
आप किसी भी देव-साधना को सम्पन्न करें, उसके लिये स्वयं आपको भी देवमय बनना ही होता है, किन्तु देवाधिदेव भगवान शिव की साधना में यह बात नितान्त आवश्यक बन जाती है, क्योंकि ‘शिव’ एक देवत्व से भी कहीं ऊँची भावना एवं आत्मगत स्थिति है। केवल ‘शिव’ कहने से ही शिवत्व की प्राप्ति नहीं हो जाती, यद्यपि भावना के वशीभूत होकर उनका नाम श्रद्धा और विश्वास से भक्तगण लेते ही रहते हैं।
किन्तु साधक उसको कहा जा सकता है, जो श्रद्धा व विश्वास को ग्रहण करते हुये भी उससे आगे बढ़कर शिवत्व को समझने एवं आत्मसात् करने का उपाय करता है। इसी कारणवश शिव एक देव मात्र ही नहीं वरन आत्मगत स्थिति है।
किन्तु साधक ज्यों ही शिव की उपासना से आगे बढ़कर शिवत्व को समझने व आत्मसात् करने का प्रयास करता है, त्यों ही वह ‘विष’ में प्रवेश कर जाता है, क्योंकि महादेव शिव का सम्पूर्ण अस्तित्व विष में ही तो निमग्न है और वे निरन्तर इसे ग्रहण भी करते हुये अमृतत्व में बदलने की क्रिया में संल्गन है। जिस प्रकार इस सृष्टि का चक्र निरन्तर गतिशील है, उसी प्रकार उनके समक्ष विष का उद्भव भी निरन्तर हो रहा है। इस संसार के चक्र में प्रायः अमृत का उद्भव नहीं होता। यदि इस मंथन में अमृत मिल भी जाता है, तो जीवन के विविध विषमता रूपी राहु-केतु उन्हें लेकर चले जाते है और तब त्राण पाने का एक मात्र उपाय ‘शिव’ ही शेष रह जाता है।
योगीजन इस मंथन में कुण्डलिनी जाग्रत कर अमृत की कुछ बूंदे ग्रहण करने का सामर्थ्य रखते है, ये वही ‘देव’ होते है, जिन्होंने अमृत का पान किया था किन्तु भगवान शिव का तो लक्ष्य होता है, कि प्रत्येक व्यक्ति इस अमृत का पान कर सकें, क्योंकि उनका मूल स्वरूप ही कल्याण की भावना से ओत-प्रोत है।
योगीजन और देवगण तो ‘अमृत’ प्राप्त कर उसी में निमग्न हो जाते है, जबकि भगवान शिव योग-अमृत व परम आनन्द में लीन न होकर विष अर्थात् जीवन की विषमताओं में लीन हो जाते है। इसी कारणवश वे योगीराज एवं देवाधिदेव की संज्ञा से विभूषित है।
यही स्वरूप सद्गुरू का भी होता है। इसी कारणवश उन्हें भगवान शिव का प्रकट रूवरूप भी कहा जाता है। स्वयं अमृतमय होते हुये भी विष में निमग्न रहना यह लक्षण केवल किसी विराट सत्ता में ही हो सकता है।
इसके उपरान्त भी भगवान शिव कटु नहीं है, तिक्त और खिन्न नहीं है, क्योंकि उन्होंने स्वेच्छा से यह गुरूतर भार वहन किया है और इस स्थिति में भी वे नृत्य मग्न, आनन्दित प्रफुल्लित एवं संतुष्ट हैं।
भारतीय चिन्तन में किसी भी अन्य देव की धारणा नृत्यमग्न स्वरूप में नही की गयी है, केवल महादेव शिव ही इस अनोखे स्वरूप में हमारे समक्ष उपस्थित होते है और यह नृत्य भी कोई सामान्य नृत्य नहीं वरन् ताण्डव है, अर्थात् दिग्-दिगान्तरों को अपनी ऊर्जा से स्पन्दन देने की क्रिया है, प्राण संयम करने की, विष के मध्य भी अमृतत्व का बोध कराने की आनन्द ताण्डव की दशा है। इसी कारणवश भगवान शिव लोकदेव हैं, सहज ग्राह्य और वन्दनीय है।
भगवान शिव के इसी विलक्षण स्वरूप को शास्त्रकारों ने साकार रूप में नटराज शिव की संज्ञा दी है तथा मूर्तिकारों ने उन्हें चतुर्भुज अथवा द्विभुज स्वरूप में, आनन्द के साथ, नृत्य में तल्लीन उत्कीर्ण किया है।
पूज्यपाद गुरूदेव ने इस तथ्य को बार-बार स्पष्ट किया है कि किस प्रकार मनुष्य जब ऊर्ध्वगामिता ग्रहण करता है, तब स्वतः ही नृत्य में लीन होने लग जाता है। नृत्य अपने शुद्ध अर्थो में देह तत्व से आनन्द तत्व की यात्रा ही है।
यही इस साधना की व्यावहारिकता है, कि यह विष के मध्य (जो जीवन की अपरिहार्य स्थिति होती है) रहने का और आनन्दयुक्त रहने का सामर्थ्य हमारे अन्दर विकसित कर देती है।
आध्यात्मिक अर्थो में इस साधना का रहस्य गंभीर और कुण्डलिनी जागरण से गहन रूप से भी सम्बन्धित है। यह अपने आप में कला, विलास, सौन्दर्य और ऐश्वर्य की भी साधना है। मैने भारत की एक विश्व प्रसिद्ध नृत्यांगना को, जो मूलतः नटराज शिव की उपासक है, उन्हें पूज्यपाद गुरूदेव के समक्ष इस पूर्ण रहस्य एवं प्रमाणिक साधना विधि का ज्ञान प्राप्त करने के लिये बार-बार आते एवं प्रार्थना करते देखा है। योगाम्यासी साधक इस साधना के माध्यम से शून्य एवं आकाश गमन की सिद्धि को प्राप्त करने का प्रयास करते देखे गये है।
इस साधना को आप शिव कल्प में सम्पन्न कर सकते है। यदि आप किसी कारणवश इस साधना को शिवकल्प में सम्पन्न नहीं कर पाये तो इसे किसी सोमवार को सम्पन्न किया जा सकता है।
आसन और कपड़ों का रंग यथासंभव सफेद रखें और दिशा ईशान या उत्तर रखें।
इस साधना को रात्रि के द्वितीय प्रहर अर्थात् रात्रि दस बजे के बाद में करना ही उचित होता है।
साधक स्नान आदि से शुद्ध होकर आसन ग्रहण करें तथा दैनिक साधना विधि नामक पुस्तक में दी गई विधि के अनुसार पवित्रीकरण, आचमन एवं आसन शुद्धि सम्पन्न कर लें।
तदुपरान्त अपने समक्ष किसी ताम्र पात्र में ताम्रपत्र पर अंकित ‘नटराज यंत्र’ स्थापित करें, इनका पूजन केवल कुंकुम एवं अक्षत से करें तथा सोलह बिन्दु एक-एक करके, ‘ऊँ नमः शिवाय’ मंत्र के साथ यंत्र पर लगायें। प्रत्येक बिन्दु अर्पित करते समय मन में भावना रखें कि मुझे षोडश कलाओं में से एक-एक करके समस्त कलायें प्राप्त हो रही है, जिससे मैं जीवन में न केवल नृत्य युक्त अपितु षोडश कलाओ से युक्त आनन्द ताण्डव की स्थिति तक पहुँच सकूंगा।
इसके उपरान्त रूद्राक्ष माला से निम्न मंत्र का पांच माला मंत्र जप सम्पन्न करें, जप के काल में घी का दीपक अवश्य जला लें-
मंत्र जप के उपरान्त दूसरे दिन अथवा अपनी सुविधानुसार कभी भी समस्त साधना सामग्री को पवित्र सरोवर में विसर्जित कर दें। उच्चकोटि के साधक अपनी साधना सामग्री को गुरू या गुरू आश्रम में भी विसर्जित करते देखे गये है, क्योंकि ‘गुरूदेव’ भगवान शिव के ही साक्षात् स्वरूप होते है।
प्रत्येक साधक को प्रयास पूर्वक यह साधना अवश्य ही सम्पन्न करनी चाहिये, क्योंकि जब तक जीवन में आनन्द ताण्डव जैसी स्थिति या मनोदशा नहीं आती, तब तक कोई नव निर्माण सम्भव ही नहीं। यह सृजनात्मकता की ही साधना है।