गुरू को चाहिये कि वह तुम्हें पादपद्म नहीं बनने दे, तुम चाहे कितनी आरजू करो, मिन्नत करो, चापलूसी करो, तुम चाहे कितने ही पांव पसारो पर यदि गुरू सतर्क है तो तुम पर प्रहार करे और देखे, तुम्हें टेस्ट करे, बार-बार करे।
हजारों साधानाये सिद्धियां है जो मुझे तुम्हें एक सिद्धि देने में कुछ सैकण्ड लगेंगे। मगर उसके पहले गुरू यह देख लें कि यह उसका दुरूपयोग तो नहीं करेगा।
अनायास जो चीज प्राप्त होती है, बिना पूर्ण परिश्रम के जो चीज प्राप्त होती है, उसका मूल्य और महत्व शिष्य समझ नहीं सकता, उसको आंक नहीं सकता, गुरूर आ जायेगा और वह गरूर गुरू के लिये बहुत घातक सिद्ध हो जायेगा, इसलिये गुरू को चाहिये कि वह उस गरूर को समाप्त करे।
तुम मेरे सामने कितने ही गिड़गिड़ाओ, हाथ जोड़ो, पर मैं जान लेता हूँ, कि तुम कहाँ खड़े हो, पूरा बैरोमीटर मेरे सामने लगा हुआ है और जिस क्षण मुझे एहसास होगा कि अब इसमें समर्पण आ गया है, तुम्हें कुन्दन बना देने में मुझे कोई ज्यादा समय नहीं लगेगा, एक क्षण भर ही लगेगा।
शंकराचार्य ने बहुत पहले ही पादपद्म को वह ज्ञान दे दिया, जबकि उसका अहम् तोड़ा ही नहीं था और जब अहम् तोड़ा ही नहीं तो उसके मन में यह आ गया, कि मुझको अब शंकराचार्य बन जाना चाहिये और मैं शंकराचार्य तब बन सकता हूँ जब इनकी हत्या कर दूं। इतना जघन्य अपराध इसलिये हुआ क्योंकि उसका अहम् गला नहीं, उसके खून में गन्दगी बनी रही। यह शंकराचार्य की न्यूनता थी, वह शंकराचार्य की गलती थी और उस गलती का परिणाम शंकराचार्य को भुगतान पड़ा।
लेकिन इतिहास इस बात का गवाह है कि पादपद्म अपने जीवन में कोई उच्चता प्राप्त नहीं कर सका। शंकराचार्य ही महान् बने रहे। भारत में उनके द्वारा बतायें गये मार्ग को अपनाया। इसलिये मैं भी शिष्यों को बार-बार परखता रहता हूँ। इसलिये गुरू को चाहिये कि वह पादपद्म नहीं पैदा करे और शिष्य को चाहिये कि वह विवेकानन्द बने, उसके पास सेवा हो, श्रद्धा हो।
यदि आप श्रद्धा देते हैं, सेवा करते हैं, तो गुरू उस ऋण को अपने ऊपर नहीं रख सकता, कोई भी गुरू शिष्य का ऋणी नहीं होना चाहता। परन्तु गुरू की यह विवशता होती है कि शिष्य को तब तक वह पूर्णता नहीं दे सकता, जब तक कि उसका अहम पूरी तरह गल नहीं जाता। तब तक सेवा के उस ऋण को गुरू को धारण करना पड़ता है, न चाहते हुये भी शिष्य के कल्याण के लिये गुरू को ऋण ढोना पड़ता है। परन्तु जिस क्षण अहम गल जाता है, शिष्य पूर्णता प्राप्त कर लेता है और गुरू भी ऋण से मुक्त हो जाता है।
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