जीवन के क्षण भंगुर होते हैं, नाशवान होता है, और धीरे-धीरे काल उस शरीर को अपने झूलों में जकड़े हुए शरीर को समाप्त कर देता है। शरीर को समाप्त करने की क्रिया यमराज की है। परन्तु अक्षर और उनसे रचित स्तोत्र एवं ग्रंथ कालजयी होते हैं क्योंकि वे स्तोत्र काल के भाल पर विराट रूप में अंकित होते हैं। वे स्तोत्र ऐसे होते हैं जैसे पूरे आकाश मंडल में बिजली ने उन ग्रंथों की पंक्तियाँ लिख दी हों, और सारा विश्व उन तस्वीरों को पढ़कर के चमत्कारित होने लग गए। ये श्लोक ऐसे ही होते हैं जैसे एक गंध ने पूरे वातावरण में अनोखा अष्टगंध से इन श्लोकों को अंकित किया हो।
ये श्लोक ऐसे भी होते हैं कि काल की छाती पर पैर रखने काव्यकार, स्तोत्र रचयिता अपनी अक्षर और लिपि के माध्यम से जो कुछ लिखते हैं उसे काला मिटा नहीं सकते। यह उसकी बस की बात नहीं होती, क्योंकि अक्षर दो प्रकार के होते हैं, शब्द दो प्रकार के होते हैं, पंक्तियाँ दो प्रकार की होती हैं, स्तोत्र दो प्रकार के होते हैं और उच्च कोटि के विद्वान उन स्तोत्रों को, उन नामांकन को कुछ इस इस प्रकार से पूरे ब्रह्मांड में अंकित करते हैं जो किसी भी दृष्टि से मिटाये नहीं जा सकते।
प्रयत्न तो प्रत्येक क्षण करता है। यमराज नहीं चाहता कि कोई वस्तु जीवित रहे, यमराज नहीं चाहता कि यह शरीर लम्बे समय तक इस पृथ्वी पर विचरण करे। यमराज इस बात को भी नहीं चाहते कि ग्रंथ अपने आप में गतिमान हों। परन्तु सामान्य प्राणी यमराज से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते, युद्ध नहीं कर पाते और उनका ये अक्षर धूमिल हो जाते हैं, धीरे-धीरे काल उन वर्णों को, उनका प्रतिबिंब समाप्त हो जाता है और यह देश, यह विश्व उन पहचानों से अलग दिखता है है। परन्तु ये पंक्तियां काल के गर्भ में जाने ही होती हैं, ये रेखाएं मिटने ही होती हैं, ये रेखाएं धूल-धूसरित होने के लिए ही होती हैं क्योंकि इन छवियों में वह शक्ति, वह क्षमता, वह ऊर्जा, वह चेतन, वह प्राणस्विता नहीं जो यमराज ललाट को होती डसने में आबद्ध हो, ये पंक्तियां वैसी नहीं होती कि यमराज की छाती पर पद प्रहार कर उन्हें लिखा।
ये पंक्तियां ऐसी भी नहीं होती हैं जो आने वाले पीढि़यां प्रयास करके भी, संभालती हैं। ऐसी पंक्तियां तो वह लिख सकता है जो होता है कालजयी पुरुष है। ऐसे स्तोत्रों की रचना वह कर सकते हैं कि किस काल पर विजय प्राप्त की हो। ऐसा ग्रंथ वह विद्वान रच सकता है, जो अपने आप में इस विश्व से, इस काल से, यम से संघर्ष कर इस बात को सिद्ध करता है, कि व्यक्ति तो एक सामान्य (चीज है) उसका नाम को काल भी समाप्त नहीं कर सकता , मिटा नहीं सकता। लेकिन ऐसे पुरुष बहुत कम होते हैं, सैकड़ों हजारों वर्षों के बाद कोई एक व्यक्ति अवतरित होता है जो इस प्रकार की लिपियों, लिपियों की रचना कर हमेशा-हमेशा के लिए आकाश मंडल में टांग देता है, वायु में गंध के द्वारा लिखता है , पृथ्वी पर छोटी-छोटी बूंदों के माध्यम से अंकित करता है, फूलों को पराग-कणों की अस्थिरता देता है और दुनिया को अनोखा बनाता है, सौन्दर्ययुक्त बनाने और श्रेष्ठतम बनाने के लिए उसके मुंह से जो कुछ भी चुनता है वह आप अपने में एमिट होता है।
यदि उसकी तुलना ही कर दी जाए यदि उसकी समान और किसी ग्रंथ की या श्लोक की रचना कर दी जाए तो उसका व्यक्तित्व भी आप में कोई अर्थ नहीं रखता है, अर्थवता (उस वस्तु की) है जिसके भीतर प्राण होते हैं और प्राण नश्वर देह में (भी) होते हैं। परंतु इस प्रकार के पदों में, इस प्रकार के स्तोत्रों में महाप्राण होते हैं। और महाप्राण को यमराज स्पर्श नहीं कर पाते, महाप्राण को संसार विस्मृत नहीं पाता। क्योंकि महाप्राण तो अजन्मा है, अगोचर है, अनोखा है, अद्वेग है और पूरे वातावरण में अंकित है। वह युग धन्य हो उठता है जिस युग में ऐसे महापुरूष प्रादुर्भाव धारण करते हैं, ऐसे अनोखे युग पुरुष अवतरित होते हैं। काल के भाल पर अपना नाम अंकित करने वाले महापुरूष होती है इस पृथ्वी पर कुछ समय तक विचरण कर, फिर दूसरे लोग में चले जाते हैं क्योंकि वे तो एक लोक के ही नहीं ब्रह्मांड के सभी लोगों में उनकी गति है- वह चाहे ब्रह्म लोक हो, विष्णु लोक हो, भगवान शंकर के शिव लोक हो, रंभा, उर्वशी अप्सराओं से युक्त इंद्र लोक हो या कोई अन्य लोक हो जो अज्ञेय हैं, अगोचर है।
ऐसे युग पुरुषों को युग प्रणम्य करता है, ऐसे पुरुष पुरुषों को ये सिर झुका कर वर मालाये पहनाती हैं, दसों दिशा ऐसे व्यक्ति का वक्र करती हैं आकाश छाया की उस पर झुककर अपने आप को गोवा शाली चलते हैं और जहां- जहां भी उनके पैर आगे बढ़ते हैं पृथ्वी चढ़ते नतमस्तक हो जाती है, प्रणम्य हो जाती है और इस बात का अनुभव करती है कि वास्तव में ही मेरे इस विराट फलक का, मेरी इस विराट पृथ्वी का वह भाग कितना स्वरभक्त है, कि जहां इस प्रकार के युग पुरुष चरण चिह्न पहचान बनेंगे। प्रकृति निरन्तर इस बात के लिए प्रयत्नशील है कि ऐसे युग-पुरुषों का अवतरण हो। प्रत्येक युग इस बात का परिवेश है कि ऐसे अद्वितीय व्यक्तित्व का प्रादुर्भाव हो और यह निश्चित है कि कई सौ-हजार वर्षों के बाद ऐसे महापुरूष का, ऐसे युग-पुरूष का, ऐसे श्लाका पुरुष का अवतरण होता है।
सामान्य रूप से एक अनुभव होता है कि एक पुरुष ने जन्म लिया, ऐसा विश्वास होता है कि देहधारी ने इस पृथ्वी पर जन्म लेकर कुछ कार्य किया। ऐसा अनुभव होता है कि जैसे सैकड़ों, हजारों, लाखों लोग जन्म लेते हैं और निरन्तर उत्तेजित होते हुए काल के गर्भ में समा जाते हैं। परन्तु प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि काल में क्या इतनी क्षमता होती है कि ऐसे व्यक्तियों को, ऐसे युग-पुरूषों को उद्धृष्ट कर सकती है? क्या यह संभव हो सकता है कि काल के ढांचे में ऐसे व्यक्तित्व समाहित हो जाएं? यह संभव नहीं है, यह कदापि संभव नहीं है!
ऐसा संभव हुआ ही नहीं है-क्योंकि ऐसे युग-पुरूष का काल स्वयं अभिनन्दन करता है, दसों दिशाएँ एकटक उस युग-पुरूष की ओर बल रहता है, पृथ्वी और आकाश दोनों मिलकर उस व्यक्ति की महिमा को मंडि़त करने की सफलता-असफल कोशिश करते रहते हैं। मेघ अपनी बूंदों के माध्यम से इस बात का एहसास करता है कि वास्तव में यह एक अद्वितीय व्यक्तित्व है। इन्द्र स्वयं इस बात से विश्वास करता है कि ऐसे महापुरूषों के पैर के नीचे जो रजकण आ गए हैं वे रजकण धन्य हैं, हीरे-मोतियों से भी उच्च मूल्यांक हैं, माणिक्य और अन्य रत्नों से भी अधिक श्रेष्ठ हैं क्योंकि उन रजकणों में गंध है उन रजकणों में एक विराटता होती हैं, उन रजकणों में एक अनूठीता होती है और उस अनूठीता को प्राप्त करने के लिए योगी, यति, संत, लालायित रहते हैं- भले ही वे योगी और सन्यासी उन पंच भूतात्मक व्यक्तियों को नहीं देते। भले ही वे गोचर या अगोचर हो, भले ही वे इस धरती पर सक्रिय होते हुए अनुभव नहीं करते हों।
परन्तु शामिल है और इस प्रकार के युग-पुरूष में एक बहुत बड़ा अंतर है जिस अंतर को काल मिटा नहीं सकता, यमराज समाप्त नहीं कर सकता और युग उस अंतर को 'नहीं' नहीं कह सकता क्योंकि ऐसा इतिहास पुरुष गोचर होते हुए भी अगोचर है , अगोचर होते हुए भी गोचर है। वह कहता है कभी नहीं दिखता है और वह नहीं देखता है, क्योंकि वह देहगत राज्य में जीवित नहीं रहता है, क्योंकि वह इस कर्ममय शरीर का दास नहीं होता है, क्योंकि वह शरीर के पहलू में वर्का नहीं होता है । वह इसके अंदर बहुत अंदर उतरकर उन प्राणमय कोषों में समाहित होता है जो बनते हुए भी दिखाई नहीं देते हैं।
वह व्यक्ति अस्थि-चर्ममय सामान्य संलग्न की तरह प्रकट होता है, लीला करता है, विचरण करता है, सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण को सबके सामने रहता है अपना मार्ग पर समानता रखता है। उसकी गति को कोई अवरूद्ध नहीं पाया, उसकी गति को आकाश का अनुभव नहीं पाया। उसकी गति को दसों दिशाओं में अवलोकित नहीं कर पाईं और उसकी गति को काल अवरूद्ध नहीं पाया।
क्योंकि वह गति नहीं है वह एक चेतन है, वह एक प्रकाश पुंज है, एक ज्योति है, वह जीवन की एक अनूठीता है, वह इस पृथ्वी की सौन्दर्य है, वह इस युग का अन्यतम श्लाका पुरुष है, वह इस आकाश की एक अद्भुत सौन्दर्य है युक्त है और यदि ब्रह्मा स्वयं आकाश की ओर उड़े हैं तो भी ऐसे श्लाका पुरुष का सिर देख रहा है गहराई तक, इसकी नाप नहीं हो सकता है और यदि विष्णु स्वयं गरूड़ पर आरूढ़ हैं, पाताल में गमन करते हैं तो भी उसके पद को देखने वाले नहीं देखते हैं, की थाह नहीं ले सकते। इतने अनोखे युग-पुरुषों को पाकर केवल एक ही शब्द ब्रह्मा और विष्णु के मुख से उच्चारित होता है कि नेति-नेति। जो धुंधली होते हुए अस्पष्ट मान देते हैं, जो दिखते नहीं दिखते हैं, जो दिखाई नहीं देते हैं वे पूर्ण रूप से दिखाई देते हैं, जो नित्य लीला वनारी हैं, जो प्यार हैं, जो शुभ्र है, जो करूणा है, जो श्रेष्ठता है, दिव्यता है, तेजस्विता है और वह सब कुछ है जो इस पृथ्वी पर हजारों-हजारों वर्षों से लिखा गया है।
उसके चेहरे पर एक तेजस्विता है, आभामंडल है, उसकी आंखो में एक अथाह करूणा का सागर लहलहाता रहता है। उसके ललाट की भृकुटि तीनों लोकों को दृश्य करती रहती है और उसके भाल पर जो त्रिवली होती है वह ब्रह्म लोक, विष्णु लोक और रूद्र लोक की व्याख्या करती है। ये तीनों रेखाये सत्व, रज, तमस् गुणों का विशुद्ध वर्णन है। ये त्रयो पंक्तियां उस व्यक्ति की विराटता को स्पष्ट करती हैं, क्योंकि ये तीन पंक्तियां जहां उसके मस्तक पर अंकित होती हैं, वहीं ये तेरो पंक्तियां उसकी ग्रीह्ना पर भी पूर्ण रूप से हस्ताक्षर करती हैं। क्योंकि साक्षात सरस्वती स्वयं उसके कंठ में आप को गौरवशाली अनुभव करती है क्योंकि उसके कंठ में काव्य इसी प्रकार से स्थिर होते हैं जिस प्रकार से इस पृथ्वी के गर्भ में लाखों करोड़ों रत्न अस्पष्ट मान हैं और ग्रीह्ना की इन तीन नामों के माध्यम से यह स्पष्ट है होता है कि वास्तव में ही वह युगपुरुष है।
ललाट की इन तीनों प्रविष्टियों के माध्यम से ही उच्च कोटि के योगी, यति और संत यह अनुभव करते हैं कि यह सामान्य कलेवर में लिपटा हुआ व्यक्तित्व कुछ फीट का नहीं है, कुछ इंचों का नहीं अपितु श्रेष्ठतम है, अनोखा है और विश्व को विजय प्रदान करता है इसलिए ही यह पृथ्वी पर अवतरित हुआ है।
देवता, कोई ऐसा शब्द भी नहीं है कि जिसके बारे में हम चौंके, जिसके बारे में हम नया धारणा बनायें। देवता ठीक वैसी ही योनि हैं जैसी गंधर्व योनि है, जैसी भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस, किन्नरी, अप्सरा योनियां है। उन गोचर और अगोचर योनियों में देवता भी एक योनि है, जो दिखाई नहीं देते हैं वे नोटिस भी देते हैं।
वेदों ने, दुनिया का वर्णन किया है। वहाँ कुछ देवता हैं- अग्नि देवता, वायु देवता, सूर्य देवता, चन्द्रमा देवता- जिनको हम नित्य देखते हैं। परन्तु कई देवता ऐसे हैं जिन्हें हम स्थूल दृष्टि से नहीं देखते हैं जैसे- इंद्र हैं, मरूद गण है, ब्रह्मा हैं, विष्णु हैं, महेश हैं, महाकाली हैं, छिन्नमस्ता हैं, भुवनरी हैं, त्रिसुन्दरी हैं। इन दो प्रकार की देवियों और दुनिया में कोई अंतर नहीं है। अंतर है तो केवल इतना कि जब तक अंतः होती करण में दीपक प्रज्वलित नहीं होता, तब तक भीतर ज्ञान की चेतन जाग्रत नहीं। जब तक आत्म चक्षु पूर्णरूप से जाग्रत नहीं होते, जब तक कुण्डलिनी सहस्त्रार पर नाच नहीं करते तब तक उन देवियों और उन नंगी आंखों से देखने की स्थिति नहीं बनती।
ठीक इसी प्रकार से ऐसे अवतारित उच्चकोटि के योगियों को भी हम नहीं देखते। बस यही अनुभव कर पाते हैं कि यह पांच या जैसा पैर वाला व्यक्ति अनुभव कर सकता है कि यह बहुत अधिक वजन का है। परंतु ऐसे कौन से व्यक्ति का मूल्य वजन से, क्रेन से, या चौड़ाई से किया जा सकता है? यह तो मूल आँख हैं, मूल आँख हैं और वे आँख कुछ भी देखने में समर्थ नहीं है। जिस प्रकार से हमारे नेत्र ब्रह्मा को साक्षी नहीं देख सकते हैं, विष्णु के साक्षात् दर्शन नहीं कर सकते हैं, रूद्र की अनोखी गतिविधियों को समझ नहीं पा रहे हैं उस प्रकार उन आंखों के माध्यम से ऐसे उच्चकोटि के योगियों के आत्म को भी नहीं देख पा रहे हैं विराटत्म को भी न देखना उनकी विशालता का भी अनुभव नहीं कर सकते।
और मनुष्य या एक सामान्य व्यक्ति वह व्यक्ति होता है जो वह सामान्य होता है जिसे वह प्राप्त होता है और मृत्यु के गर्भ में समा जाता है। वह सामान्य है जो योनिज होता है और एक दिन श्मशान में जाता है, वह सामान्य है जो जन्म लेता है और उसका किसी प्रकार का कोई व्यक्ति नहीं होता है और निरन्तर समाप्त होने की प्रक्रिया में गति उत्पन्न होती है। ऐसे विज्ञापनों का कोई शुल्क नहीं लगता। युग ऐसे एड का अभिनन्दन नहीं करता। आकाश ऐसे लोगों के स्टैग्स में अपना सिर नहीं झुकाता, पृथ्वी ऐसे लोगों के स्टैग्स के प्रति नमन नहीं पाते। परन्तु संपूर्ण प्रकृति युग-पुरूषों का अभिनन्दन करता है, क्योंकि ये केवल मात्र मात्र व्यक्ति नहीं होते अपितु संपूर्ण युग को समेटे एक विराट व्यक्ति होते हैं, जिनको देखने के लिए, स्पर्श करने के लिए, अनुभव करने के देवता-गण भी लातेते रहते हैं हैं।
देवता और गंधर्व और यक्ष, किन्नर और अद्विय ये सभी इस बात के लिए लायित रहते हैं कि वे इस पृथ्वी पर अवतरित हों, वे इस पृथ्वी की लीलाये देखते हैं, वे इस पृथ्वी पर गति हो सकती हैं और वे इस पृथ्वी को कुछ प्रदान करते हैं कर योग्य। परन्तु यह संभव नहीं हो पाता क्योंकि दुनिया में इतनी सामर्थ्य नहीं होती कि वे जन्म लेने में सक्षम हों, उसमें वह क्षमताएँ नहीं मिलतीं कि वे इस पृथ्वी पर अवतारित हो जाएँगी। उन दुनिया में यह विशेषता नहीं होती है कि किसी भी प्रकार से मनुष्य पृथ्वी पर गतिमान होने की क्रिया करें।
यह एक कठिन कार्य है, यह सभी कार्यों को काटता है, यह ठीक वैसा ही कार्य है जैसे शूलों की शर-शैय्या पर लेटा हुआ व्यक्ति, यह एक ऐसा ही कार्य है जैसे अंधड़ और तूफान में व्यक्ति निरन्तर अपने लक्ष्य मार्ग पर सक्रिय हो, यह एक ऐसा ही कार्य है जहां घटाघोप अंधेरे में भी प्रकाश बिंदु पर पहुंचने के योग्य हो जाता है। दुनिया में इतनी सामर्थ्य नहीं होती, दुनिया में इतनी सामर्थ्य नहीं मिलती। हमने उन देवता शब्द से उल्लेख किया है और देवता का प्रमाण है जो कुछ प्राप्त करने की क्रिया करते हैं वह देवता है और वह देवता प्राप्त करते हैं इस देह धारी मनुष्य से जप-तप, पूजा-पाठ, ध्यान, धारणा, समाधि, स्तोत्र और विभिन्न प्रकार के मंत्रों का उच्चारण।
क्योंकि देवता का विवरण ही लेना है, स्वीकार करना है। परंतु क्या देवता पुनः देने में समर्थ है? शास्त्रों में ऐसा विधान नहीं है। भगवान ऐसा प्रदान नहीं कर सकते क्योंकि उनके नाम से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वे केवल लेने की क्रिया जानते हैं, स्वीकार करने की क्रिया जानते हैं, प्राप्त करने की क्रिया जानते हैं, परंतु प्रदान करने की क्रिया का भान उन्हें नहीं होता।
जिस प्रकार से चन्द्रमा स्वयं प्रकाशवान नहीं है, वह सूर्य के प्रकाश से दीपमान है। यदि सूर्य नहीं है तो चन्द्रमा का अस्तित्व नहीं है, यदि सूर्य नहीं है तो चन्द्रमा की किरणें भी पृथ्वी पर नहीं छिटकतीं, यदि सूर्य नहीं है तो चन्द्रमा प्रकट नहीं हो सकती क्योंकि चन्द्रमा का सारा आधार बिंदु सूर्य है। ठीक उसी प्रकार वैश्विक आधार का बिंदु ऐसे उच्चकोटि के युग-पुरूष होते हैं जो इन से ऊपर होते हैं, देवता अभ्यर्थना करते हैं, विश्व देवता प्रार्थना करते हैं, जिनके सामने देवता हाथ बांध कर बनाते हैं क्योंकि विश्व की द्युति, का प्रकाश, वैश्विक रूप से प्रदान करने की क्षमता इस प्रकार के उच्चकोटि के ऋषियों और महापुरूषों के माध्यम से प्राप्त हो सकती है।
इस प्रकार के महापुरुषों के कारण पृथ्वी पर अवतरित होते हैं कि देवता लोग इस पृथ्वी पर विचरण करने के कारण लालायित होते हैं। वे इस बात को अनुभव करना चाहते हैं कि दुःख कि क्या है, सुख क्या है, हर्ष क्या है, विषाद क्या है, प्रेम क्या है, अश्रु क्या है, हृदय की उद्वेलना क्या है और एक दूसरे की सामीप्यता क्या है। ये संचारी दुनिया में नहीं होते, ये संचारी भाव दैत्यों में भी नहीं होते। ऐसा वरदान तो केवल मनुष्य को ही मिला है और जो इन संचार भावों में प्रेरणा देता है वह आपके लिए एक सुखद अनुभव करता है क्योंकि आनन्द की अनुकंपा प्रेम द्वारा संभव है क्योंकि आनन्द की अनुकंपा सौन्दर्य के द्वारा संभव है। और जहां प्रेम है जहां हर्ष है वहां विषाद भी है, जहां मिलन है वहां विरह भी है, वहां तड़फ है, वहां असुविधा भी है और यह तडफ, यह बेचैनी, यह उच्छृंखलता, यह वियोग, यह मिलन जीवन का नंदर्य है और जो इस सौन्दर्य को ग्रहण नहीं कर पाते वे अपने में अभागे रहते हैं और देवता इन तत्वों से परे होते हैं, वे इन तत्वों को समझ नहीं पाते हैं, वे इन तत्वों में समाविष्ट नहीं हो पाते हैं। जब तक समाविष्ट न हों तब तक भगवान एकांगी होते हैं और एक ही प्रकार के रंग से बना हुआ अनूठा चित्र नहीं बन सकता। जिसमें विभिन्न रंग होते हैं, विभिन्न आयाम होते हैं, विभिन्न श्रेष्ठता होती है और विभिन्नता होती है, उसे विविधता को सौन्दर्य कहते हैं।
प्रत्येक देवता सौन्दर्यवान बनना चाहता है और वह सौन्दर्यवान तभी हो सकता है जब इसमें शामिल हो, जब इसमें शामिल हो, जब इसमें स्नेह हो, जब शामिल हो, आदर की भावना हो, जब शामिल हो प्रेम करने की क्षमता हो, जब इसमें शामिल सौन्दर्य को समझने की सचेत हो। यह सब लोगों के द्वारा ही संभव है और अभी तक भी मनुष्य जन्म लेने के बाद मृत्यु की पगडंड़ी गति पर होने के कारण ही बाध्य होता है। क्योंकि जो आय होती है उसकी नाश अनिवार्य है। जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। परन्तु कुछ महापुरूष, कुछ अनोखे पुरुष, कुछ युग पुरुष ऐसे होते हैं, जो मृत्यु की पगडंड़ी पर नहीं चलते अपितु अमृत के सागर पर पांव जागरूक होते हैं। वे युग-पुरूष पृथ्वी पर नहीं चलते अपितु वातावरण पर अपने चरण-चिन्हों को छोड़ते हुए गति करते हुए भी गतिहीन रहते हैं, क्योंकि सामान्य व्यक्ति ऐसे युग-पुरूषों को समझ नहीं पाते हैं और ऐसे ही युग-पुरूष अयोनिज कहलाते हैं।
ऐसा लगता है कि जैसे किसी मां के गर्भ से जन्म हुआ हो, ऐसा लगता है कि जैसे किसी मां के गर्भ में नौ महीने का वास हो जाता है, ऐसा लगता है कि जैसे किसी मां के गर्भ से जन्म हो गया हो। परंतु ऐसा अनुभव ही होता है। वास्तविकता कुछ और ही होती है। उसका गर्भ में केवल उतना ही वजन रहता है जितना एक गुलाब का पुष्प होता है। भगवान सदाशिव जब पार्वती को अमर कथा सुना रहे थे और जब उन्होंने डमरू नाद किया तो सारे पक्षी, कीट, पतंग (पशु) उस स्थान से सैकड़ों-हजारों मील दूर चले गए। एक भी प्राणी वहां नहीं रहा क्योंकि जगत-जननी पार्वती के हठ की वजह से औढरदानी भगवान शिव उसे अमरत्व का ज्ञान देना चाहते थे, व्यक्ति उसे बताएं चाहते थे कि किस प्रकार से अमरत्व प्राप्त किया जा सकता है उसे बताना चाहते हैं कि किस प्रकार से अमरत्व प्राप्त करें जन्म लेकर मृत्यु के गर्भ में समाहित नहीं होता है, उसे बताते हैं कि किस प्रकार से किसी व्यक्ति की अवधि की दाढ़ों में नहीं फंस सकता।
परंतु ऐसा ज्ञान प्रत्येक प्राणी को तो दिया जाना संभव नहीं है। तब तो इस सृष्टि पर करोड़ों-करोड़ लोग विराजमान हो जाएंगे और पृथ्वी उन लोगों के बोझ से दबकर रसातल में विचार। इसलिए व्यक्ति जन्म लेता है और पुराना के समाप्त हो जाता है। इसी उद्देश्य को धारण करने में सदाशिव ने डमरू भगवान का नाद किया और उनके निनाद से, उनकी चोट से, उनकी आवाज से सैकड़ों-सैकड़ों मील दूर देवता, गंधर्व, यक्ष, किन्नर, भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस, जीव, कीट , पतंग, पशु और पक्षी रहे ही नहीं और जब ऐसा भगवान शिव ने अनुभव किया तो अमरनाथ के पास स्वयं अमृत्व बनकर सदाशिव अनूठा अमृत्व कहा जाता है जिसके माध्यम से जरा मरण से अनुपयोगी हो जाता है, जिसके माध्यम से व्यक्ति अयोनिज बन जाता है है, जिसके माध्यम से व्यक्ति वृद्धावस्था की ओर गति नहीं पाता, जिसके माध्यम से व्यक्ति काल की ओर नहीं पाता।
जब ऐसा हुआ त्रिपुरारी ने उस अमर कथा को, उस गुप्त विद्या को, उस प्रमाण रहस्य को उद्घाटित करने का निश्चय किया जो अत्यंत रहस्यमय है, अत्यंत विश्वसनीय है, अत्यंत दुर्लभ है। उस समय एक कबूतर और एक कबूतर बैठे हुए थे और डमरू के नाद से वे दोनों उड़ गए, लेकिन एक अंड़ा कबूतर के उपर से निकला हुआ वहीं रह गया क्योंकि उसमें यह क्षमता नहीं थी कि वह गति हो, संभवतः उड़ सके और ज्योहिं अमर कथा शुरू हुई त्योंहि वह अंडा फूटा और उसमें से जो जीव निकला वह अमर कथा का श्रव्य हुआ। कुछ ही समय बाद सदाशिव को भान हुआ कि मेरे और पार्वती के अलावा कोई प्राणी है जो इस रहस्य को सुन रहा है और समझ रहा है। उन्होंने ट्राइशूल फेंका और पास से उड़ान भरी।
उसी समय वेद व्यास की पत्नी भगवान सूर्य को अर्घ्य दे रही थी। मंत्र उच्चारित करने के कारण उनका मुख खुल गया, कि वह प्राणी उनके मुंह के माध्यम से उदरस्थ हो गया। सदाशिव वेद व्यास के घर के बाहर त्रिशूल गाढ़कर बैठे कि जब भी यह, क्योंकि यह बालक बाहर निकलेगा उसी व्यक्ति को इसे समाप्त करने की आवश्यकता होगी इसे गुप्त विद्या को समझ लिया है जो कि अत्यंत विश्वसनीय है। इस प्रकार कई सालों तक मिलते-जुलते रहे। बहुत बड़ी अवधि! जो बच्चे के अंदर गति हो रही थी, उसने मां से पूछा- 'अगर मेरे भार से तुम व्यस्थ हो रही हो तो मैं बाहर निकल सकती हूं। भगवान सदाशिव मेरा कुछ भी अहित नहीं कर सकते क्योंकि मैं उस अमरत्व को समझ चुका हूं।'
वेद व्यास की पत्नी ने कहा- 'गुलाब के फूल से भी कम वजन मुझे अपने पेट में अनुभव हो रहा है।' ठीक उसी प्रकार जो अवतरित होते हैं उनके गर्भ में भी कोई वजन अनुभव नहीं होता है। उतना ही वजन घटता है जितना कि एक गुलाब के फूल का होता है। ऐसे जीवों का, ऐसे लोगों का जन्म कभी-कभी ही होता है, ऐसे युगपुरूष यदा-कदा ही पृथ्वी लोक पर विचरण करते हैं और वे नित्य लीला विहारिणी के खाते पर अपनी लीलाओं का उद्घाटन करते हैं अपने प्रवचनों से, अपने कार्यों से, अपने विद्वता और ज्ञान से जनमानस को प्रभावित करते हुए इस भौतिकता के अंधकार को दूर कर आध्यात्मिकता के प्रकाश को फैलाने में सहायक होते हैं।
देवता लोग भी मनुष्य योनि में जन्म मनुष्य के रूप में अवतरित होकर इस पृथ्वी पर विचरण करने का सफल-असफल प्रयास करते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि वे सफल हों। फिर भी देवता लोग भी इस धरती पर आने के लिए मचलते हैं, प्रयत्न करते हैं और सफल होते हैं। परन्तु ऐसा तब होता है जब ऐसे महापुरूषों का आविर्भाव होता है।
मैंने शुकदेव की कथा के माध्यम से बताया कि वेदव्यास की पत्नी के गर्भ में इक्कीस वर्ष तक रहने के बाद उस गर्भस्थ बालक शुकदेव ने कहा- 'यदि मेरे कारण से पिता अपने पेट में कोई भार अनुभव कर रहा हो तो मैं निकल जाऊं के लिए तैयार हूं, क्योंकि मैं अमर कथा का श्रावण कर चुका हूं और यह भी मुझे ज्ञात है कि भगवान शिव का त्रिशूल मुझे समाप्त नहीं कर सकता यह अलग बात है कि भगवान की अकृपा या उनकी तीसरी आंख मुझे भस्म कर सकती है, मुझे श्राप दे सकते हैं परन्तु मेरा समापन नहीं कर सकता। क्योंकि मैंने अपने जीवन में भगवान सदाशिव, मदनान्तक त्रिपुरारी और पराम्बा जगत जननी मां पार्वती के दर्शन किए हैं और उनकी छाया संवाद और परिसंवादों को सुना है, हृदयंगम किया है और मुझे ज्ञात हुआ है कि अमरत्व क्या है, अमर होने की कला क्या है आयु को उससे परे कैसे किया जा सकता है, यौवन को किस प्रकार से अचूर्ण रखा जा सकता है और मृत्यु के रूप में पाश से आप कैसे जीवित रह सकते हैं।'
व्यास की पत्नी ने जो उत्तर दिया वह आपके लिए उचित है। उसने कहा- 'तुम मेरे गर्भ में हो और एक साल से इक्कीस हो। नौ महीने से नहीं, साल भर से भी नहीं, पांच साल से भी नहीं, इक्कीस सालों से हो लेकिन इक्कीस सालों में भी मुझे ऐसा आभास नहीं हुआ कि गुलाब के फूल से भी ज्यादा वजन मेरे उदर में हो।'
इस प्रसंग के द्वारा मैं यह स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ कि इस प्रकार के युग-पुरुष, इस प्रकार के देव-पुरुष, इस प्रकार के महापुरुष अयोनिज होते हैं। वे योनि के द्वार से जन्म नहीं लेते। यह बात सच है कि वे किसी न किसी मां के गर्भ का चयन करती हैं और लीला विहारी के रूप में मां के गर्भ में नौ महीने भी रहती हैं लेकिन जिस समय जन्म के क्षण आते हैं उससे पहले मां को यह भान नहीं होता कि मेरे पेट में किसी प्रकार का वजन होता है, उस मां को भान ही नहीं होता कि मेरे पेट में किसी प्रकार का दर्द होता है, उस मां का यह दृश्य नहीं रहता कि मैं किसी प्रकार से उदर दर्द से युक्त हूं।
उसे ऐसा लगता है कि जैसे मैं सामान्य रूप से कार्य कर रही हूं और ठीक है उस समय जब वह लड़का, जब वह महापुरूष, जब वह पुरुष जन्म लेने की क्रिया का आरंभ करता है तो उस समय माँ लगभग उवचेतन मानस में चली जाती है या दूसरे रूप में कहें तो तंद्रा रूप में परिवर्तित हो जाती हैं। सही शब्दों में कहा जाए तो वह जगत-जननी के पार्श्व में अपने आप को संकलित करता है। यह क्षण ऐसा होता है जब नीरोहित होती है, न जाग्रत अवस्था होती है और उसे कुछ भान ही नहीं रहता। उसे भान होता है जब युग-पुरूष अवतरित एक के उसके पार्श्व में चला जाता है और उसका शिशु रूदन सुनकर मां की तंद्रा भंग हो जाती है और अचानक उसे एहसास होता है जैसे मेरे गर्भ से एक बच्चे की उत्पति हुई है।
वही संचार भाव, समान दृष्टिकोण, वही प्रक्रिया जो एक माँ की होती है ठीक वैसी ही क्रिया और प्रतिक्रिया की शुरुआत होती है और वह उस बच्चे को, बच्चे को अपने स्तनों को ग्रहण करती है, अपने वक्षस्थल से देती है। यह एहसास होता है कि इस बच्चे ने मेरे गर्भ से जन्म लिया है और एक ही रिश्तेदारी उसके पूरे शरीर और मन को आच्छादित कर देता है। जब ऐसे महापुरूष जन्म लेते हैं, तो केवल ब्रह्मांड में उनके जन्म संकल्प की क्रिया ही संपन्न नहीं होती अपतिु सैकड़ों-सैकड़ों देवता उसी क्षण किसी न किसी गर्भ से, किसी न किसी स्थान पर जन्म लेते हैं। परंतु वे आस-पास के क्षेत्र में ही जन्म लेते हैं जहां पुरुष अवतरित होते हैं क्योंकि उन वैश्विक चेतना तो यह है कि वे लोगों की मृत्यु में भी रहते हैं और उन भगवान एवं युग परूष की नित्य लीलाओं को देखकर के आंखों को सुख पहुंच योग्य , आत्मा को भाव देने योग्य और अपने जीवन को धन्य करने योग्य।
इससे भी बड़ी बात होती है कि वे मनुष्य योनि में जन्म लेकर सभी संचार संबंधी भावों का अनुभव करते हैं, जिनमें हर्ष, विषाद, सुख-दुख, लाभ, हानि और किसी भी क्रियाये प्रतिक्रियाये उनके भाई करते हैं, उनका अनुभव करते हैं और अधिक से अधिक उस युग में पुरुष के पास रहने का प्रयास करते हैं, चाहे वे बाल रूप में हों, चाहे शिशु रूप में हों और वे परवाह अन्य रूपों में हा जिस प्रकार देवता अयोनिज होते हैं उसी प्रकार अप्सराये भी अयोनिज हैं। उन सभी अप्सराओं का यह वातावरण रहता है कि वे जन्म लेकर उस महापुरूष के आस-पास विचरण करें, अपने सौन्दर्य, अपने यौवन, अपने रूपोज्जवला, अपनी संवेदनशीलता और अपनी चेष्टाओं से उस युग पुरुष के पास ज्यादा से ज्यादा वे रहने का प्रयास करती है। ।
वे अप्सराये भी उस स्थान के आस-पास ही जन्म लेते हैं। उनकी क्रिया भी वैसी ही होती हैं जैसी क्रिया होती हैं देवता लोग करते हैं और वे शनै-शनै काल के प्रवाह के साथ-साथ बड़े हैं, यौवनवान है, सौन्दर्य का आगर हैं और अनोखा रूप उस लीला विहारी को करने का प्रयास करती हैं हैं और अधिक से अधिक उनकी सामीप्यता का अवसर ढूंढती रहती है, अवसर प्राप्त करती हैं और उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा करती है। भगवान श्रीकृष्ण के साथ भी यही हुआ। जब उन्होंने जन्म लिया, या दूसरे शब्दों में कहां कि अवतारित आवाज़ें तो सैकड़ों देवता और अप्सराओं ने आस-पास के क्षेत्रों में ही जन्म लिया। गोपों के रूप में बाल आंखों के रूप में और कई रूपों में। यही दृश्य राम के समय में हुआ। यही दृश्य बुद्ध के समय में हुआ और यही दृश्य सभी अवतारों के साथ हुआ। हमारे शास्त्रों में चौबीस अवतारों की गणना की गई है।
प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि एक सामान्य व्यक्ति, एक सामान्य मानव, एक योनिज व्यक्ति किस प्रकार से अनुभव करता है, कौन-सी प्रक्रिया अपनी ये ज्ञात हो जाती है कि व्यक्ति किस युग के पुरुष के रूप में अवतरित हुआ है? सामान्य के पास, सामान्य बालक के पास दिव्य दृष्टि नहीं होती, कोई चेतन दृष्टि नहीं होती, कोई कुण्डलिनी जागरण राज्य नहीं होती और कोई ऐसी क्रिया नहीं होती जिसके कारण से वह ज्ञात कर के कारण कि यह बालक केवल बालक अपुतु एक अनूठा युग-पुरूष नहीं है, जो इस पृथ्वी लोक पर अपने कर्मक्षेत्र को आगे बढ़ाने की ओर सच करने के लिए एक विशेष उद्देश्य की जांच के लिए आया है, अभ्यासशील है। इसके सात बिंदु शास्त्र निर्धारित हैं जिन के माध्यम से एक सामान्य मनुष्य भान कर सकता है कि इस भीड़ में, इन सैकड़ों बंधनों में इन हजारों लड़कों में वह कौन-सा शिशु या बालक है जो अयोनिज है, या जो युग-पुरूष है , जो देव-पुरुष है, जो अद्वितीय व्यक्तित्व है।
ये दृश्य, ये विचार बिंदु कोई कठिन नहीं है। आवश्यकता है भगवती नित्य लीला विहारिणी की कृपा की, आवश्यकता है इसकी ओर चेष्टारत होने की आवश्यकता है चर्म चक्षुओं के माध्यम से समझने की क्षमता प्राप्त करने की और इस बात की चेष्टा करने कि उस युग-पुरूष के प्रति पूर्ण श्रद्धागत हों, विश्वासगती हों क्योंकि ब्रह्म और माया का अस्तित्व हजारों-हजारों वर्षों से सक्रिय है। जहां ब्रह्म है वहां माया भी है। और माया कि किसी की आंखों पर एक परदा रहता है, उसके मन में संशय-असंशय का भाव रहता है, उसके मन में विश्वास और अविश्वास की दीवार बनी रहती है। वह सहज ही विश्वास नहीं कर पाता कि यह व्यक्ति, यह बालक, यह शिशु, यह पुरुष जो हमारे ही समान हंसता है, मुस्कुराता है, रोता है, खाता है, पीता है, विचरण करता है और वैसी ही लीलायें, वैसी ही क्रियाये करता है। जैसा एक व्यक्ति करता है, एक सामान्य व्यक्ति करता है, एक युग पुरुष हो सकता है।
मैंने कहा कि यह तो पराम्बा की कृपा होती है कि हर व्यक्ति के मन में यह दृश्य, यह विचार, यह भाव, यह धारणा स्पष्ट है और जब स्पष्ट होती है तो उसके पुरुष मित्र की क्षमता शुरू हो जाती है। जब उसका मन में यह ज्ञात हो जाता है कि जिस लड़के को मैं देख रहा हूँ, जिस व्यक्ति को मैं अपनी इन गोचर इन्द्रियों, इन आँखों के माध्यम से देख रहा हूँ वो सामान्य नहीं है, उसकी सामान्यता में भी असामान्यता है, क्रिया में भी क्रिया है, उसके हास्य में भी एक ग्रेब्रिएशन है, उसकी आँखों में अथाह करूणा है, उसकी वाणी में अस्त्र प्रवाह है और उसकी वक्तृत्व कला में एक चुंबकीय आकर्षण है, तो उन छोटे-छोटे लेकिन गंभीर चेष्टों के माध्यम से वह लगभग समझ लेता है है कि सिकुड़न की इस बंध में यह बच्चा कुछ हटकर है और अनोखा है।
शास्त्रों ने जो पहचान चिन्ह निर्धारित किए हैं, वे विश्व के लिए उन अप्सराओं के लिए, उन सामान्य मनुष्यों के लिए स्पष्ट संकेत करते हैं कि यही पुरुष पुरुष हैं, यही देव पुरुष हैं निश्चित रूप से सामीप्यता के लिए हम इस पृथ्वी पर अवतरित धारणा हैं। प्रथम तो यह कि उसकी अन्य व्यक्तियों की तस्वीर हटकर होती है- उसकी रोशनी, उसकी चौड़ाई, उसका कठ, उसका काठ और उसका सारा शरीर अपने आप में पूर्ण पुरुषोचित, स्पष्ट दिखाई देता है। उस अप्सरा का संपूर्ण व्यक्तित्व एक अलग ढंग से आभास होता है।
दूसरा श्रोत या क्रिया (चिन्ह) यह होती है कि उसका मुखमंडल पर एक पूर्व तेज होता है।
ऐसा प्रकाश नहीं जो आँख को चौंधिया दे। ऐसा प्रकाश भी नहीं जो आंखों को बंद कर दे, ऐसा प्रकाश भी नहीं कि जो आंखो को अंधेरा हो सकता है। अपितु ऐसा प्रकाश जो अत्यंत शीतल है, जो अमृत की तरह अमृत अमृत है, लेकिन सूर्य के समान दैदीप्यमान भी है, तेजवान भी है, क्षमतावान भी है और उसके चेहरे पर कुछ ऐसा भाव है, कुछ ऐसी विशेषताएं जो अन्य लोगों में हैं नहीं है। वह भले ही अन्य लड़कों की तरह लीला करें, वह भले ही अन्य लड़कों की तरह विचरण करें, भले ही अन्य लड़कों की तरह रोये, हंसे, खिलखिलाये, मुस्कराये और वे सब क्रियाये करें जो एक सामान्य लड़के हैं।
परंतु उसकी क्रिया में भी अक्रिया होती है, उसके कार्य में भी अकार्य होता है, उसके प्रत्येक क्षण अपने आप में सजीव एवं चैतन्ययुक्त होता है उसका आंखो में अथाह करूणा है। शीतलता, तेजस्विता अथाह करूणा से भी आँखे अपने आप में बताए गए हैं कि यह बच्चा, यह शिशु सामान्य नहीं है, यह बालिका एक सामान्य लड़की नहीं है, अपितु बेशक ही अप्सरा का प्रारंभ और स्पष्ट रूप है, निश्चय ही देवता है और जिसके बारे में चेहरे पर तेजस्विता, शीतलता, अथाह करूणा, चमकना, ग्रेविटास और पूरी होती है वह निश्चित ही युग-पुरूष होता है।
शास्त्रों ने इस प्रकार के पुरुष को मित्र के लिए तीसरी क्रिया स्पष्ट की है कि उसकी वाणी में एक अलग प्रकार की धारा होती है। ऐसा प्रवाह जो गति से होता है वह भी सामने वाले और संपर्क में आने वाले लोगों को अपनी ओर विशेष विवरण देता है, अपने निकट आने की कोशिश करता है। क्योंकि उसका शब्द मात्र खोखला शब्द नहीं होते अपितु वे स्वयं ब्रह्म संदर्भ होते हैं। उनके प्रत्येक शब्द में चुंबकीय आकर्षण होता है। वे शब्द ऐसे नहीं होते कि सुनकर हवा में उड़ जाएं। वे शब्द ऐसे नहीं होते जो निरंकुश होते हैं, वे शब्द ऐसे भी नहीं होते जिनके पीछे कोई अर्थवता नहीं हो और इसके माध्यम से यह जाना जा सकता है कि यह निश्चित ही अद्वितीय युग-पुरूष है।
जो इस प्रकार की छाप के माध्यम से, इस प्रकार की चेष्टाओं के माध्यम से, इस प्रकार के बिंदुओं का अवलोकन कर छोटे-सा विचार करते हैं, व्यक्ति करते हैं वो निर्णय उस भीड़ में से उस युग-पुरूष को ढूंढते हैं , जो पृथ्वी का लेखाजोखा होता है, जो उस युग की नियंता होती है, जो उस अंधकार में प्रकाश की किरणें फैलने के कारण अवतरित होता है, और जो अपने युग-पुरूष, इतिहास-पुरूष, देव-पुरूष और अद्वितीय व्यक्तित्व पुरुष में होता है है।
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलास श्रीमाली जी
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