जिस परमात्मा का हमें कोई पता नहीं है, उसकी याद बड़ी कठिन और असंभव बात है। अगर हम यह जाड़ा करें कि पता ही आपको याद आ जाएगा, तो यह बहुत बड़ी बात है। क्योंकि पता हो जाने पर स्मरण की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। जो जानते हैं, उन्हें प्रभु का नाम लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। जो पहचानते हैं, उनके लिए प्रार्थना भी तैयार होती है। और जिन्हें पता नहीं है, वे कैसे प्रार्थना करें ! वे उसे कैसे कहें ! वे कैसे स्मरण करें! जिन्हें कोई खबर ही नहीं है, उनके तरफ वे हाथ भी कैसे जोडे और सिर भी कैसे झटकते हैं।
रनर को सागर का कोई भी पता नहीं है, लेकिन फिर भी रन रन जब तक सागर न हो जाए तब तक तृप्त नहीं हो सकता। और अंधेरी रात में जलते एक छोटे से दीये को पता चल जाएगा कि सूरज के बिना वह जल नहीं सकता। लेकिन सूरज इतना दूर हो जाता है, वह जो छोटे से अंधेरे में दिखाई देता है, उसकी रोशनी भी सूरज की रोशनी है। और आपके गांव में आपके घर के पास छोटा सा जो तालाब बहता है, उसे क्या पता होगा कि दूर के सागरों से छाया है! और सागर सुख जायें तो यह झरना भी सूखकर समाप्त हो जाएगा। झरने को देखकर आपको भी यह ख्याल नहीं आता कि समुद्रों से उसके संबंध हैं।
आदमी भी ठीक ऐसी ही स्थिति में है। वह भी एक छोटा सा चेतन का अंधेरा है और उसमें अगर चेतन दिखाई दे शक हो सकता है तो बस इसी तरह कि किसी भी चेतन का कोई महासागर पास में है- निशान हुआ, संयुक्त है, ज्ञात हो, अज्ञात न हो। ऋषि एक यात्रा पर निकले थे इसी सूत्र के साथ। लेकिन यह सूत्र बहुत अदभुत है और बहुत अजीब भी है, क्योंकि जो खोज रहा है, उसी से प्रार्थना कर रहा है। जिसका पता नहीं है अभी, उसी के स्टैचेज में सिर रख रहा है। यह कैसे संभव होगा? यह समझ लें, क्योंकि जिसे भी संसाधन के जगत में प्रवेश करना है, उसे इस असंभव को संभव बनाना है।
एक बात तय है कि बूंदों को सागर का कोई पता नहीं है, लेकिन दूसरी बात भी इतनी ही तय है कि बच्चों के सागर में आना चाहते हैं। जो हम चाहते हैं, व्यक्त ही हमें प्रणाम करना होगा- हमें, वे जो हम हैं। वह उसकी विशेष प्रार्थना करेगा, जो हम हो सकते हैं। जैसे बीज बीज फूल के सामने प्रार्थना करें, जो वह हो सकता है। इस प्रार्थना से परमात्मा को कुछ लाभ हो जाता है, ऐसा नहीं है। लेकिन इस प्रार्थना से हमारे पैरों में बड़ी ताकत जाती है। यह प्रार्थना परमात्मा के लिए नहीं है, अपने ही लिए है। परमात्मा के प्रति नहीं है, अपने ही लिए हैं।
अगर चांद ठीक से प्रार्थना कर पाएं सागर की, तो उसके प्राणों में कहीं सागर से संपर्क होना शुरू हो जाता है। और जब सागर को कहती है, तो किसी अज्ञात मार्ग से सागर होने की क्षमताएं और पात्रताएं पैदा होती हैं और जब विवरण आता है तो सागर से कि मेरी सहायता करो ताकि मैं तुम तक पहुंच सकूं, तो पहली मंजिल पूरी हो जाती है। क्योंकि जिस नामांकन ने श्रद्धा, विश्वास और निष्ठा से कह सकी वो दौड़, परमात्मा में सहायता करना, यह श्रद्धा, यह आस्था और यह सत्यता भर की है जो प्रमाण है उसे तोड़ देता है और विराटता है उसे जोड़ देता है।
प्रार्थना के क्षणों में प्रार्थना करने वाला वही नहीं रहता, जो प्रार्थना करने के पहले था। जैसे कोई द्वार खुल जाता है, जो बंद था। एक नया आयाम, एक नई यात्रा और एक नए आकाश का दर्शन होना शुरू हो जाता है। यह नहीं कि आप आकाश तक पहुंच जाते हैं, बल्कि अपने घर के भीतर ही खडे होते हैं जहां थे। आप कुछ दूसरे नहीं गए हैं।
एक आदमी अपने घर के अंधेरे में खड़ा है और उसका द्वार खोल देता है। वही आदमी है, वही घर है, वही जगह है। कहीं कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, लेकिन अब बहुत दूर का आकाश दिखाई देने लगता है। और मार्ग अगर दूर तक दिखाई न पड़े तो चलना बहुत मुश्किल है। और मंजिल हम जहां खड़ी है, अगर उसी समय दिखाई पड़े तो न शुरू हो जाए तो यात्र असंभव है।
दीये की ज्योति बुझ जाती है, मिट नहीं जाती। दीये की ज्योति खो जाती है, समाप्त नहीं हो जाती। हमारी तरफ से जो खो जाता है, वह किसी दूसरे का कहीं मिलन बन जाता है। वह ज्योति आई थी, किसी विराट से और पिफर विराट में लीन हो जाती है। कॉमिक्स से प्रकट होता है और फिकॉमिक्स में चला जाता है। सागर से ही वे धुंधले होते हैं, जो आपके घर पर ब्लिस्टर करते हैं और आपके खेत, बाग और व्यवस्थित में, और फिर सागर में लीन हो जाते हैं।
यह भी ध्यान रखें, एक धरना सूत्र है कि जो चीज जहां लीन होती है, वह लीन होने का स्थान वही है जो उद्गम का है। उद्गम और अंत सदा एक हैं। जहां से जन्म पाता है, वहीं समाप्त होता है, वहीं लीन, वहीं विदा हो जाता है। आने का द्वार एक ही है। ज्योति वहीं खो जाती है, जहां से मिलती है। ज्योति के इस खो जाने को मैं कहता हूं कि ये का निर्वाण। किसी दिन जब अहंकारी भी इसी तरह खो जाता है, महाविराट में, तब मैं उसे व्यक्ति का निर्वाण कहता हूं।
परमात्मा से प्रार्थना करें, तो कुछ और कहें कहें। परमात्मा के लिए शांति के पाठ का क्या अर्थ हो सकता है? परमात्मा शांत है। लेकिन इसे कहते हैं, शांति पाठ। जानकर कहा है, बहुत सोच-समझकर। उसने यही कहा है कि प्रार्थना करते हैं तो परमात्मा से करते हैं, करते अपने ही हैं। और हम अशांत हैं और अशांत रहने की रणनीति नहीं हो सकती है। अशांत रहने वाले हम जहां भी होंगे वह परमात्मा से विपरीत होंगे। आयाम का अर्थ है, परमात्मा की प्रार्थना बिना उठाए।
असल में जितना अशांत मन, उतना ही परमात्मा से दूर। समन्वयन में गड़बड़ी है, दूरी है। क्लासिक आप अशांत हैं, वैसे ही पफासला है। अगर पूरे शांत हैं तो कोई भी फासला नहीं हैं, देन देअर इज नो डिस्टेंसेंस। तब ऐसा भी कहना ठीक नहीं कि आप परमात्मा के पास हैं, क्योंकि पास होना भी एक फ़ासला है। नहीं, तब आप परमात्मा में, परमात्मा ही हैं। शायद यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि परमात्मा में तारा भी एक फ़ासला है। तब कहना ठीक है कि आप परमात्मा हैं। या तो फिर तुम हो, और या परमात्मा है। फिर दो नहीं हैं, क्योंकि जहां तक दो हैं, वहीं तक कोई तल पर टिका रहता है।
ध्यान रहे जहां भी अर्थ होता है, वहां सीमा आ जाती है। अर्थ समान होता है सीमा। जब भी अर्थ होता है, तो उसके विपरीत भी हो सकता है। सभी शब्द के विपरीत शब्द होते हैं। ओम के विपरीत शब्द बताए जाएंगे? जीवन है तो मृत्यु है, अँधेरा है तो प्रकाश है, अद्वैत है तो द्वैत है, और मोक्ष है तो संसार है। लेकिन ओम के विपरीत शब्द कभी सुना? अगर अर्थ हो तो विपरीत शब्द निर्मित हो जाएगा। लेकिन ओम में कोई अर्थ नहीं है। यही महत्व है।
लोग कहते हैं, मेरी वाणी मेरे मन में स्थिर हो जाए। कभी आपने सोचा, आप बहुत सी बातें कहते हैं, जो आप कहना ही नहीं चाहते थे। बड़ी अजीब बात है। जो आपने कभी नहीं कहनी चाही थी, वे भी आप कहते हैं, आप खुद ही कहते हैं। और पीछे यह भी कहते हैं कि सुने जाते हैं कि मैं कहना नहीं चाहता था। यह वाणी तुम्हारी है! आप बोलते हैं वाणी से कि कुछ और सिखाता है
सौ में से निन्यानवे मौकों पर दूसरे लोग आपसे बुलवा लेते हैं, आप नहीं बोलते। पत्नी भली प्रसंग है कि आज घर पति से कौन सा सवाल पूछे तो कौन सा उत्तर निकलेगा। पति भी भली भांति जानते हैं कि वह क्या कहता है कि पत्नी क्या कहेगी। हमारे मन-मन का अर्थ है, हमारे मन की, दृश्य की क्षमता का भी हमारी वाणी से कोई संबंध नहीं है, हमारी वाणी यांत्रिकी हो गई है। हम बोले जाते हैं, जैसे यंत्र बोल रहे हो। एक शब्द भी शायद ही आपने कहा हो जो मन से एक हो। कई बार ऐसा ही होता है कि मन में ठीक विपरीत चलता है और वाणी में ठीक विपरीत होता है। किसी से आप कह रहे हैं कि आपसे बहुत प्यार है और उसी आदमी की जेब काटने का विचार कर रहे हैं या धोखा दे रहे हैं। जेब कटी मैंने कहा कि बहुत अतिश्योक्ति न हो जाए। मन में घृणा चल रही होती है, क्रोध चल रहा होता है और आप प्रेम की बात भी व्यक्त करते रहते हैं। आप मित्रता की बातें भी चलते रहते हैं और भीतर शत्रुता चलती रहती है। तो ऐसा आदमी अपने को भी कभी नहीं जान पाएगा। ऐसा कोई अन्य व्यक्ति धोखा नहीं दे रहा है, अंततः उसे धोखा दे रहा है।
मन की वाणी में टेंट का अर्थ है कि जब मैं बोलूं, तभी मेरे भीतर मन हो! और मैं जब न बोलूं तो मन भी न रहूं। ठीक भी यही है। जब आप काम करते हैं तभी आपके पास पैर होते हैं। आप कहते हैं, जब नहीं चलते हैं तब भी पैर होते हैं। लेकिन उन्हें पैर कहना सिर्फ कामचलाऊ है। पैर वही है जो चलता है। आंख तो वही है जो विजेट है। कान तो वही है जो सुनता है। तो जब हम कहते हैं अंधी आंख, तो हम बड़ा शब्द कहते हैं, क्योंकि अंधी आंख का कोई मतलब ही नहीं होता। अँधेरे का मतलब होता है, आँख नहीं। आँख का मतलब होता है आँख, आँख का मतलब होता है आँख नहीं। लेकिन जब आप आंख से दूर होते जा रहे हैं तब भी आप आंख का उपयोग अगर न कर रहे हों तो आप बिल्कुल अंधेरे में हैं।
आँख का उपयोग होता है केवल आँख आँख है। एक पंखा रखा हुआ है, तब भी हम उसे पंखा कहते हैं। कहना नहीं चाहिए। पंखा हमें उसे तभी कहे जब वह हवा करता हो। नहीं तो पंखा नहीं कहते। तब वह सिर्फ बीज के रूप में पंखा है। उसका मतलब यह है पंखा कहने का कि हम तो उसे हवा कर सकते हैं। बस इतना ही। अगर आप एक किताब से हवा करते हैं तो किताब के पंखा हो जाते हैं। जब वाणी के लिए आवश्यकता हो बोलने कि, तभी मन को होना चाहिए, बाकी समय नहीं होना चाहिए। पर हम तो ऐसे हैं कि कुर्सी पर बैठे रहते हैं तो टांगें हिलाते रहते हैं। कोई भी सवाल कि क्या कर रहे हैं आप, तो रुक जाते हैं। तुम क्या कर रहे थे? बैठे-बैठे चल रहे थे या टांगे आप पागल हो गए हैं? ठीक ऐसे ही हम बोलते रहते हैं। ठीक ऐसे ही, वाणी की कोई आवश्यकता नहीं रहती है तो वाणी में चलती रहती है। बाहर नहीं बोलते तो भीतर बोलते हैं। दूसरे से नहीं बोलते, तो अपने से बोलते रहते हैं।
धैर्य का अर्थ है, अनंत प्रतीक्षा की क्षमता आज मिल जाए सत्य, अभी मिल ही जाए सत्य, ऐसा मन कि वासना हो तो कभी नहीं मिलता और मैं प्रतीक्षा करूं, कभी भी मिल जाए सत्य, मैं देखता हूं देखता हूं, कभी देखता हूं, कभी देखता हूं भी अनंत-अनंत जन्मों में, कभी भी जब उसका कृपा हो मिल जाए, तो अभी और हस्ताक्षर भी मिल सकता है। जितनी बड़ी गांभीर्य उतनी ही जल्दी होती है, उतनी ही कम गांभीर्य जितनी देर लगती है।
प्रभु की ओर पहुंचने के लिए पत्ते तो गहरे कहे, लेकिन अधैर्य नहीं। अभीसिप्ता तो पूर्ण हो, लेकिन हस्ती नहीं। जितनी बड़ी चीज को हम निकालते हैं, उतने ही तरीके से देखने की तैयारी होती है और कभी-कभी कुछ घटित घटना जल्दी ही हो जाती है, क्योंकि जो उससे मिलता है उसे समय से नहीं तौला जा सकता है। अनंत-अनंत जन्मों के बाद भी प्रभु का मिलन हो, तो बहुत जल्दी हो गए। कभी देर नहीं होती। क्योंकि जो मिलता है, अगर उस पर ध्यान दें, तो अनंत-अनंत जन्मों की यात्रा भी ना-कुछ है। जो मंजिल मिलती है, उस पर पहुंचने के लिए कितना भी निकल ना कुछ हैं।
सन्यासी के कंधे पर जो झोली टंगी होती है, उसका नाम है कन्धा। वस्तुतः सन्यासी की जो झोली है, तो वह गांभीर्य है। और सब्र की इस गुदड़ी में बड़े-बड़े हीरे-जवाहरात मिलते हैं। लेकिन गांभीर्य तो हमारे भीतर जरा सा भी नहीं होता और क्षुद्र के लिए तो हम प्रतिक्षा भी कर लें, विराट के लिए हम जरा भी प्रतिक्षा नहीं करना चाहते। एक सामान्य सी शिक्षा प्राप्त विश्वविद्यालय की यात्रा पर प्रभाव पड़ता है, तो कोई भी सोलह-सत्रह वर्ष स्नातक होने के लिए व्यय करता है। पता कुछ भी नहीं, फ़र्क लेकर घर लौटता है।
लेकिन अगर कोई व्यक्ति यात्रा पर ध्यान देता है, तो वह पहले ही दिन आकर कहता है कि किसी एक दिन का आकलन किया गया है, फिर भी कुछ नहीं हुआ। क्षुद्र के लिए हम कितना इंतजार करने को तैयार हैं विराट कि लिए कोई इंतजार नहीं! इससे एक ही बात पता चलती है कि शायद हम ख्याल ही नहीं कि विराट क्या है। और शायद हमारी चाहत इतनी कम है कि हम इंतजार करने को तैयार नहीं हैं। क्षुद्र की हमारी इच्छा बहुत है, इसीलिये हम इंतजार करने को राजी हैं। एक आदमी सीधे तौर पर कमाई कर सकता है कि उसके लिए संपत्ति की हिस्सेदारी हो सकती है और इंतजार करता रहता है कि आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों। चाहत गहरी है धन को पाने की, क्योंकि प्रतीक्षा करता है। परमात्मा के लिए वह विचार करता है कि एक बैठक में ही हो जाए और बैठक में भी वह तब चयन करता है जब उसके पास अतिरिक्त समय हो, जो धन की खोज से बच जाए। विदा का दिन हो, छुट्टी का समय हो, और फिर वह चाहता है, बस जल्दी निर्धारित करें। वह जल्दी विवरण जाने की बात ही बताता है कि ऐसी कोई इच्छा नहीं है कि हम पूरे जीवन स्टेक्स पर लगा दें।
और ध्यान रहे, विराट तब तक उपलब्ध नहीं होता, जब तक कोई अपना सब कुछ समर्पित करने को तैयार नहीं होता और सब कुछ समर्पित करना भी कोई सौदा नहीं है। नहीं तो कोई कहे कि मैंने सब कुछ समर्पित कर दिया, अभी तक नहीं मिला। अगर इतना भी बंधन मन में है कि मैंने समर्पण कर दिया तो मुझे प्रभु, परमात्मा प्राप्त हो, तो भी नहीं मिल पाएगा। क्योंकि हमारे पास है क्या जो हम परमात्मा को प्राप्त करने में सक्षम हैं? आप क्या छोड़ेंगे? आपके पास क्या है? आपका कुछ है ही नहीं, जिसे आप छोड़ दें। सभी कुछ एक जैसा है। उसी को देकर सौदा करेंगे? क्या हमारा पास है? हमारा शरीर है, हमारी जमीन है, क्या है हमारे पास? और हो सकता है, धन भी हमारा हो, जमीन भी हमारी हो, लेकिन एक बात पक्की है कि गहरे में वह जो हमारे भीतर छिपा है, वह बिल्कुल नहीं है। क्योंकि न तो हमने उसे बनाया है, न हमने उसे खोजा है, न हमने उसे पाया है। वह है।
तो धन तो हो भी सकता है आपका, लेकिन आप बिलकुल नहीं हैं। क्योंकि कह सकते हैं, धन मैंने कमाया। लेकिन इसमें जो दिया जल रहा है चेतन का, वह तो परमात्मा का ही दिया है। आपका इसमें कुछ भी नहीं है। इसलिये क्या? मारपा, तिब्बत का एक बहुत ही अद्भुत ऋषि जब अपने गुरु के पास संदेश भेजते हैं, तो उसके गुरु ने कहा, तू सब दान कर दे। मारपा ने कहा, लेकिन मेरा अपना कुछ है कहां? गुरु ने कहा, तो तुम कम से कम अपने को समर्पित कर दो। तो मारपा ने कहा, मैं! मैं तो उसका ही हूं। समर्पण करने के, उसकी चीज उसी को लौटा देंगे, कौन सा गौरव होगा! तो उसके गुरू ने कहा, भाग जा, अब दुबारा इस तरफ मत आना। क्योंकि जो मैं लेन-देन कर सकता था, वह तो लेन-देन ही हो गया। वह तेरे पास ही है। मारपा ने कहा, मैं केवल किसी को पहचानने वाला हूं, क्योंकि आपके चरणों में आया हूं। अनन जो मिल गया है, उसे भी पहचान नहीं पाता, क्योंकि पहले वह कभी मिला नहीं था। तुमने कहा दिया, मुबारक दी।
असल में गुरु की अंतिम आवश्यकता के साधनों के शुरू होने से घटतें नहीं होतीं, अंतिम आवश्यकता होती है तो उस दिन की मृत्यु जिस दिन घटित होती है। उस दिन को कहा, जो कह दे कि हां, हो गया। क्योंकि अधिकार, किसी, को पहले कभी नहीं जाना जाता है, उस लोक में प्रवेश हो जाता है। पहचान नहीं होती कि जो हो गया है, वह क्या है। प्राथमिक चरणों में गुरू की आवश्यकता अनिवार्य है, वह बहुत ही सामान्य है। अंतिम क्षणों में गुरु की बहुत आवश्यकता है कि वह कह दे कि हां, हो गया वह जिसके बारे में खोज रहा था। वह प्रमाण बन जाए, वह साक्षी बन जाए।
धैर्य का अर्थ है, हमारे पास न स्टेक्स पर लगाने को कुछ है, न परमात्मा को प्रत्तर देने के लिए कुछ है, न सौदे करने के लिए कुछ है, हमारे पास कुछ भी नहीं है। और मांग है हमारी कि परमात्मा मिले। प्रतीक्षा करें तो कर लेंगी। गांभीर्य तो जरूर पढ़िए और अनंत को सुनें। ऐसा नहीं कि चूके कि दो-चार दिन बाद फिर हम संपर्क दिखाएंगे। तो वही नुकसान होता है, जैसे छोटे बच्चे कभी आम की गुठली को बो देते हैं और दिन में चार दफे उसे गवाह कर देखते हैं कि अभी तक अंकूर नहीं निकला? अधैर्य, अंक कभी नहीं निकलेगा। यह चार दपफे शिकायत में अंक कभी नहीं निकलेगा। अंकुर निकल का मौका भी तो नहीं मिल रहा है, अवसर भी नहीं मिल रहा है।
जमीन में बीज को बोकर भूल जाने लगे, प्रतीक्षा करें। हां, पानी डालें जरूर, पर अब बीज को दृश्य-उखाड़कर मत रहो अभी तक बीज फूटा, नहीं फूटा! नहीं तो फिर कभी नहीं फूटेगा, बीज खराब हो जाएगा। तो ध्यान देकर हर बार न विकल्प कि अभी पहुंचे, कि नहीं पहुंचे। बोते जायें, सींचते जायें। जब अंक निकलेगा, पता चलेगा। जल्दी ना करें, बार-बार सीवीकर मत देखें।
एक सन्यासी था, अपने गुरु के पूर्वजों के रूप में बारह वर्षों तक सेवा में था। बारह साल तक उसने यह भी नहीं पूछा कि मैं क्या देखता हूँ। बारह साल बाद एक दिन गुरु ने कहा, किसलिये आया है यहां, कुछ भी नहीं पूछता। तो सन्यासी ने कहा, रुको, जब तुम पाओगे कि मैं योग्य हूं, तो तुम स्वयं ही कहोगे।
यह सन्यासी के लक्षण हैं। सांझ में आने वाला पैर दबा देता है, सुबह का कमरा तीखा कर देता है, पीएनजी बैठ जाता है, दिनभर स्थिति रहती है। रात को जब गुरु कहता है कि अब में सो जाता है, चला जाता है। बारह साल बाद पूछो है, बहुत दिन हो गए आए बातें, कुछ पुछता नहीं है! तो सन्यासी कहता है, जब मेरी पात्रता होगी, अब आप समझेंगे कि क्षणों में कुछ कहने का, तो आप ही कहेंगे। मैं राहेल हूं। और सन्यासी ने कहा कि जो मैं पूछता हूँ मुझसे जो मिलता है, वह इस राह में अनायास ही मिल गया। अब मैं बिल्कुल शांत हो गया हूं। यह बारह वर्ष कुछ भी ठीक नहीं है। तो मैं एकदम शांत हो गया हूं। अंदर कोई विचार नहीं कर रहे हैं।
अवसाद अचुनाव है। अवसाद का अर्थ है कि द्वंद्व में कोई भी चुनाव नहीं करते। मन का एक हिस्सा है, क्रोध करों, मन का दूसरा हिस्सा कहता है, क्रोध जहर है। न हम मन के पहले अंशों की संख्या रखते हैं, न हम दूसरे अंशों की संख्या रखते हैं। हम दूर हो रहे हैं दोनों हिस्सों को देखते हैं। न हम इसे चुनेंगे, न चुनेंगे। हम कुछ ठीक ही नहीं। अचुनाव अवसाद है। और प्रतिमन द्वंद्व खडे़ करता है, क्योंकि मन का स्वभाव द्वंद्व है। मन एक से नहीं जीत सकता। मन दो ही चला जीता है।
आपके मन में कभी कोई ऐसी लहर न पाई होगी जिसके विपरीत लहरें मन दिखाई नहीं देगा। जहां रुचि होती है, वहीं विच्छिन्नता उत्पन्न होती है। मन का एक हिस्सा होता है, बायें दो, दूसरे दावे होते हैं, दायें हों। मन सदा ही द्वंद्व खडा करता है। मन का स्वभाव द्वंद्व है और बोलियां आप चुनते हैं, इसके विपरीत जो है वह मौजूद रहेगा, वह मिटेगा नहीं। वह आपके डंडे का इंतजार करेगा, उसी दिन चुनाव में लगेगा, फिर मैं लोग चुनूंगा। यही तो हो रहा है मध्यरात्रि।
मन द्वंद्व में जीता है। आप ऐसी कोई चीज नहीं चाह सकते, जिसके प्रति एक दिन इच्छा पैदा न हो। आप ऐसा कोई प्रेम नहीं कर सकते, जिससे आपको किसी दिन घृणा न जन्म मिले। आप ऐसा कोई दोस्त नहीं बना सकते, जो किसी दिन शत्रु न हो जाए। जो भी चाहेगा, उसका भ्रम टूटेगा आप ऐसी कोई चीज पा नहीं सकते, कि एक दिन ऐसा न लगे कि गले में फांसी लग गई। इतनी मेहनत करके जो हम देखते हैं, ठीक में हम देखते हैं, अपनी ही काम करते हैं। हम जीते हैं ऐसे ही । सब जड़ हो जाता है, सब बंध हो जाता है, एक लीक हो जाता है, उस पर हम भड़क जाते हैं। बाहरी जीवन में भी ठीक है। काम करना मुश्किल होगा। लेकिन भीतर की जिंदगी में बहुत खतरनाक है, क्योंकि विचार कम होता जाता है। इसीलिये बच्चे सभी शंकास्पद होते हैं, बड़े समान शंकास्पद नहीं होते हैं, हालांकि बच्चों के पास विचार कम होते हैं और बूढ़ों के पास बहुत होते हैं।
इसलिए मतभेद को सोच में ले लें। पुराने के पास विचार तो बहुत होते हैं शंकास्पद कम होती हैं। क्योंकि उसकी हर बात बन जाती है, अब उस पर विचार नहीं करना चाहिए। विचार किया जाता है, वे नियमित हो जाते हैं। बच्चे के पास विचार तो बहुत कम होते हैं, क्योंकि शंकास्पदता बहुत होती है। फिर धीरे-धीरे विचार के परावर्तित जमती विचार। वह भी कल बूढ़ा हो जाएगा, तब विचार करने की जरूरत नहीं है। विचार उसका पास होगा। जब जिस विचार की आवश्यकता होगी, वह अपनी स्मृति को खाने से निकाल देगा और सामने रख देगा। क्योंकि बहुत से पत्ते झील पर जमा हो जाते हैं। बच्चा झील खाली की तरह है जिस पर पत्ते अभी नहीं हैं।
आपके विचार के प्रति भी तटस्थता का नाम शंकास्पद है। दूसरे के प्रति तो हम तटस्थ होते ही हैं। आपके विचार को भी विस्तार करने की क्षमता का नाम देना विचार है। और प्रतिदिन, आदत नहीं, होशपूर्वक। क्योंकि कल का कोई विचार आज काम नहीं हो रहा है। सब बदल गया है, विचार स्थिर हो जाता है, जड़ हो जाता है। वह पत्थर की तरह अंदर बैठ जाता है। और जीवन तो हर तरह से, वह तय करता है, और हम कंकड़-पत्थर में सागर जाते जाते हैं।
विचार करने के तरीके भी सागर में होते जाते हैं। जिंदगी बहुत तरल है, विचार बहुत ठोस हैं। फिर आखिरी में हम अकेले कांकड़-पत्थरों को गिनकर जिंदगी का होश रखते हैं। और जैसा कि राजकुमार के लड़के ने कई पत्थर डाले हैं, विचार सब आपके नहीं होते, आपके तो थोड़े ही होते हैं, बाकी तो आप दूसरे में डाल देते हैं। निश्चित रूप से आप के घड़े में जो पत्थर की चीजें हैं, वे सब आपके भी नहीं होते हैं। सब डाल रहे हैं, पत्नी पति के घड़े में पति पत्नी के घड़े में। कंकड़-पत्थर का जमावड़ा हो जाएगा आपको। उनका नाम विचार नहीं है। उद्धरण के संग्रह का ना होना विचार नहीं है।
विचार एक शक्ति है-सोचने की, देखने की, फेयर होने की, उसी विचार के प्रति तटस्थ होने की। जो कल का विचार था, वह भी पराया हो गया, और जिस व्यक्ति की योग्यता है उसके अनुसार वह दौड़ता रहता है। व्यवस्थित का अर्थ जड़ता नहीं है।
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलास श्रीमाली जी
प्राप्त करना अनिवार्य है गुरु दीक्षा किसी भी साधना को करने या किसी अन्य दीक्षा लेने से पहले पूज्य गुरुदेव से। कृपया संपर्क करें कैलाश सिद्धाश्रम, जोधपुर पूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन से संपन्न कर सकते हैं - ईमेल , Whatsapp, फ़ोन or सन्देश भेजे अभिषेक-ऊर्जावान और मंत्र-पवित्र साधना सामग्री और आगे मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए,