भौतिकता के चक्रव्यूह में उलझा कर मानव का मन और मस्तिष्क अंतर्द्वंद्व में उलझ जाता है, और तब व्यक्ति निर्णय नहीं ले पाता, व उसकी विचारधाराएं, परस्पर मंथन करने लग जाते हैं। अपने स्वार्थ और परमार्थ दोनों की भावनाओं से व्यक्ति यह विचार नहीं पाता कि जीवन में उसे क्या चाहिए, क्या नहीं चाहिए, क्या उचित है, क्या अनावश्यक है, और उस समय कभी-कभी ऐसा भ रूप आता है, कि क्या हमारा जीवन अपने-आप में एक क्षुद्रमय अस्तित्व अनुभव करने के लिए या जीवन को पूर्ण देने के लिए है।
आज हर तरफ विज्ञान हावी हो रहा है, और दूसरी तरफ जो हमारे खून में ज्ञान की गरिमा है, जो ज्ञान के काले हैं, वे भी बार-बार हम पर हावी हो रहे हैं, कि हम श्रेष्ठ व्यक्तियों के रूप में पूर्ण को प्राप्त करने वाले हैं है। संपूर्ण की ओर सटीक होती है, और इसलिए कि हमारा रक्त सदियों पुराना है, क्योंकि हम उन ऋषियों की पवित्रता है, जिनको हमने वशिष्ठ कहा है, विश्वामित्र, अत्रि, कणाद— कहा है। हमारे इन अनुष्का में वशिष्ठ का रक्त प्रवाहित हो रहा है, जो निश्चय ही हमारे पिता के शरीर में भी प्रवाहित होता है, अर्थात हमारे शरीर में पचास-सौ पीढ़ी पहले का भी रक्त है, और यह रक्त निश्चय ही ऋषियों का रक्त हैं— क्योंकि ज्ञानश्चेतना से अनुप्राणित है, इसलिए बार-बार हमारा मन, हमारा ज्ञान हमें साधना के क्षेत्र में कुछ करने के लिए हमेशा प्रेरित करता है। तकि हम एक पंछी के तरह फ्लाई की कला सक्षम सीखते हैं। एक सम्राट शंकास्पद, विवेक-मन का प्रेमी, सत्य का अन्वेषण उसे खबर मिली की दूर किसी गांव में कोई बड़ा सिद्धांतवादी है, बढ़ा हुआ तार्किक है, बड़ा बुद्धिमान है। तो उसने अपना संदेश भेजा। अपने हाथों से पत्र लिखा, मोहर यी, लिफाफा बंद किया।
संदेश पत्र लेकर दूर की यात्रा पर निकल गए। ईसाईवादी के द्वार पर संपर्क किया, हाथ में पत्र दिया और कहा, सम्राट ने पत्र भेजा है। ईश्वरवादी ने पत्र को बिना देखे नीचे रख दिया और कहा, पहले तो यह सिद्ध होना जरूरी है, कि सम्राट ने ही पत्र भेजा है या किसी और ने? आपके पास क्या प्रमाण है कि तुम सम्राट के संदेश हो? उस आदमी ने कहा कि इसके प्रमाण की कोई जरूरत नहीं है? मेरे परिधान देखें। मैं संदेशवाहक हूं। ईश्वरवादी ने कहा, वस्त्रों से क्या होगा? गारमेंट तो कोई भी पहन सकता है, धोखा दे सकता है। क्या सम्राट ने स्वयं ही अपने हाथों से पत्र दिया है? संदेश भी संदिग्ध था। उसने कहा, यह तो संभव नहीं है, क्योंकि मुझमें और सम्राट में तो दूर हैं। प्रधान वजीर को पत्र दिया होगा सम्राट ने वजीर से प्रधान अधिकारी के पास फिर मुझे मिला। लाइव तो मुझे नहीं मिला है। उसने दार्शनिक ने कहा, जो करते हुए न देखा, जिसने परमात्मा को संदेश दिया, उसके संबंध में अधिकार कैसे सही कह सकता है कि वह निर्धारितं है?
इतने चर्चा होते-होते तो शिक्षा संदेश भी संदिग्ध हो गए। पत्र की तो जैसे बात ही भूल गए। दोनो निकल पड़े कि जब तक यह प्रमाणित न हो जाए कि सम्राट है, तब तक पत्र खोलने की आवश्यकता भी क्या है? दोनों विवरण। कई लोगों से रास्ते पर एक सिपाही मिला पूछा तुम कौन हो? उसने कहा मैं सम्राट का सैनिक हूं। क्या मेरे परिधानों को देख कर तुम नहीं पहचानते? उस ईश्वरवादी ने कहा, कपड़ों के धोखे में तो यह जो मेरे साथ खड़ा है? गारमेंट्स से क्या होता है? मेकर को अपनी आंखों से देखा है?
वह सैनिक भी छोटा डगमगाया उसने कहा कि किसी ने नहीं देखा, लेकिन मेरे सेनापति ने देखा। उस दार्शनिक ने पूछा कि कृत्रिम सेनापति को अपनी आंख से देखा है? उसने कहा यह भी ब्री! याने सेनापति को तो नहीं देखा, सुना है कि सेनापति सम्राट से मिलता है। मैं एक छोटा सैनिक हूं। बचाओ मेरी नहीं। महल के दरवाजे मेरे लिए बंद हैं। दोनों खिलखिला कर हंसे-संदेश शिक्षा और दार्शनिक। और कहा तुम भी हमारे साथ शामिल हो जाओ। जब तक यह सिद्ध न हो जाए कि सम्राट है, तब तक यह सब झूठ का जाल खुल गया है।
यह कभी सिद्ध न हो, क्योंकि जो भी मिला, उसका प्रत्यक्ष अनुभव न था और बड़े आश्चर्य की बात तो यह थी, कि यह सिद्ध हो सकता था बड़ी आसानी से क्योंकि सम्राट ने स्वयं निमंत्रण दिया था कि तुम आओं मेरे महल में अतिथि बनो और मैं ईश्वर राज्य का महागुरू बनाना चाहता हूं। लेकिन वह पन्ना तो पढ़े ही नहीं गए। किसी से परिचित की जरूरत नहीं थी। वैध सम्राट का ताला था पैलेस के द्वार खुले थे, स्वागत था।
जिनके मन में सन्देह है, बुद्ध के वचन उनके लिए संदेश शिक्षा की तरह हैं। ये वचन के पत्र बंद ही पड़े रहेंगे तुम उसे खोलोगे ही नहीं क्योंकि पहले तो यह सिद्ध होना होगा कि बुद्ध बुद्ध को जाना और यह सिद्ध होना करीब-करीब असंभव है। कौन सिद्ध करेगा? यह सिद्ध कैसे होगा? शब्द बंद पड़ जाते हैं। कितना कहा जाता है। लेकिन उसे सुना नहीं। कितने शब्दों में भरे गए हैं, लेकिन वे शब्द बनाते कभी अपने मन के पन्नो को खोला ही नहीं, उनके कुंजियां भी साथ ही लटकी हुई थीं, लेकिन घड़ी सन्देह से सभी चित्त बुद्धत्व की कोई भी झलक को खोली नहीं पाई। तुम सूरज को उगते देख कर आंख बंद कर लेते हो और पूछो हो, सूरज कहां है?
मैं रोज कहता रहता हूं वही बार-बार प्रवचन में भी बताता रहता हूं, आओ बैठो सुनो तुममें से कुछ लोग आए थे कुछ नहीं क्योंकि तुम्हारे मन के पन्नो को खोलना ही नहीं चाहते, तो तुम उड़ भी नहीं पाओगे। एक बार एक पक्षी वातायन पर आकर बैठा। उसने गाना गुनगुनाया और उड़ गया। मैं उस पक्षी को देखकर-निश्चित, फड़फड़ते, गीत गाते, उड़ जाता हूं। मैं यही कहता हूं कि संसार घन वातायन है। उस पर तुम बैठे हो उस पर तुम घर मत बनो। वहां थोड़ा देर विश्राम कर लो, लेकिन वह मंजिल नहीं है। बैठे कर कहीं का फंदाना मत भूल जाना, नहीं तो खुला आकाश सदा के लिए खो जाएगा पक्षी स्थिति रह जाऊं तो शायद भूल ही जाएं कि उसके पास पंख भी हैं। यो मत भूल जाना कि तुम उन ऋषियों की मान्यता हो– क्योंकि क्षमताये हमें वही याद रहती हैं, सत्य हम उपयोग करते हैं।
वास्तव में हम उपयोग नहीं करते वे विस्मरण हो जाते हैं, सत्य हम उपयोग नहीं करते हैं वे धीरे-धीरे निष्कि्रय हो जाते हैं, और उनकी क्षमता खो जाती है। तुम अगर कुछ दिन नहीं चलोगे तो तुम्हारे पैर पंगु हो जाएंगे, तुम अंधेरी कोठरियों में ही हो और देखो न तो जल्द ही अंधी हो जाएंगी। तुम अगर शब्द ही न सुनों अगर तुम्हारे कान पर कोई ध्वनि तरगित ही न हो तो जल्दी ही तुम बहरे होगे जाओ। और न जाने कितने जन्म से तुम उड़े ही नहीं!
काम के पंखे फड़फड़ाये, कितने समय तक बीता गया, जब से तुम खिड़की पर बैठे हो और खिड़की को ही घर समझ लिया है। तुम द्वार को ही महल समझ कर रूक गया! पड़ाव के लिए रूके इस वृक्ष के नीचे थे, लेकिन कितने समय तक बीता, तब से यह ही घर मान लिया जाता है! पंजर पढ़ाई ही नहीं, आगर मेरे पास आने से पके पंख फड़फड़ाना नहीं सिखाते और कुछ सीख भी नहीं पाओगे।
भगवान बुद्ध का अंत समय आ चुका था, सभी शिष्य समन्वय दृष्टिकोण, शिष्यों के लिए उनका अंतिम संदेश था- हे मित्रें! जब तक तुम संयमी मित्रभाव से रहोगे, एक साथ मिल साझाकर खाओगे और धर्म के सभी रास्ते पर सामूहिक चलोगे, तब तक बड़ी से बड़ी विपत्ति आने पर भी तुम नहीं हारोगे। लेकिन जिस दिन तुम संगठित न हो जाओगे जीवित रहेंगे नष्ट होगे संगठन में अपार शक्ति है। ठीक इसी प्रकार जब हम अपने मन और शरीर, ज्ञान, चेतन को एक साथ योग, साधना, दीक्षा को माध्यम से संगठित कर कार्य करते हैं, तो हमें सफलता बेशक ही प्राप्त होती है।
नेपोलियन ने युवावस्था में आठ साल तक लेखक बनने की कोशिश की, हर बार असफलता ही हाथ लगी, और उसने क्षेत्र में अपनी प्रतिभा को आजने का निश्चय किया, एक सामान्य सैनिक से जीवन की शुरुआत अपनी क्षमता प्रतिभा के बल पर वह अपने देश की ही नहीं, अन्य देशों की भी भाग्य विधाता बन गई। हमारे जीवन में साधना का मार्ग हो ये भौतिकता, किस्मत मिलने पर निराश नहीं होने पाए, इसलिए बार-बार प्रयास करते ही हो जाते हैं।
ईसाई सुबह घूमने के लिए जा रहे थे, उनके साथ उनके शिष्य भी थे, हर तरफ प्राकृतिक सौंदर्य की छटा छाई हुयी थी। सुबह सूरज की चमक के साथ पाकर घास पर छाए धुंध के धुंधलेपन की तरह चमक रही थी, आम तौर में लिली के फूल खिल रहे थे, पक्षियों की रंगव ध्वनि मन में संगीत की मिठास घल रही थी, एक शिष्य ने पूछा-भगवन्! जीवन में सुख और सौंदर्य का रहस्य क्या है? ईसाइयों ने हंसते कहा-देख रहे हो, इन लिली के फूलों को, ये सम्राट सोलोमन से भी अधिक सुखी और सुंदर है, क्योंकि न उन्हें अपने पुराने कल की चिंता है, ये तो अपने वर्तमान में अपनी भरी हुई झिझक बिखेर रहे हैं, जो इन फूलों की तरह भूत और भविष्य की चिंता को बढ़ाता है बिना जीवन जीता है, जो वर्तमान में सत्कमों की गंध बिखेरता है, वह स्वयं ही अपने जीवन की सुख और सौंदर्य के द्वार मानकर है।
लेकिन तुम हमेशा भविष्य की चिंता में रहो, और भूतकाल को याद कर दुःखी होते हो, जब तुम अपने वर्तमान को ठीक से जियोगे, तो तुम्हारा भविष्य अपने उस लिली के फूल के रूप में खिलाएगा। जिसमें से हमेशा प्रवाहित होते रहते हैं। यदि तुम ऐसा नहीं कर पाओगे, तो आकर्षण लाइव बुझा-बुझा सा रहेगा। जीवन में जो कुछ पूर्ण होने लगेगा, वह परमेश्वर को प्राप्त नहीं होगा, जीवन में जो कुछ प्राप्त करना चाहिए, वह नहीं कर पाओगे, क्योंकि बाहरी सभ्यता तुम पर बहुत अधिक प्रतिकुल दबाव डालती है, क्योंकि तुम हमेशा जल्दी में रहते हो, कोई भी काम तुम गांभीर्य से करते ही नहीं, मैं जब भी परमेश्वर को बुलाता हूं, तुम आते हो, पर गुरुजी जल्दी दीक्षा दे दो, जल्दी जाना है, अरे भाई थोड़ा रुको तो कम से कम गुरु के पास तो समय निकाल कर आओं, यह याद रखना जितना जल्दी उतना जल्दी करते हो उतना तुम आप भूल जाते हैं ही, जितना संभव हो उतना परेशान नहीं हो सकता।
जब तक तुम अपने आप नहीं जान पाओगे तब तक तुम्हारे भीतर यही छटपटाहट बनी रहेगी, कभी की कला नहीं सिख पाओगे। मैं वहीं वही सिखाना चाहता हूं, मैं सबसे कहता हूं कि तुम्हारे भीतर भी वशिष्ठ, विश्वमित्र, गौतम आदि ऋषि-मुनियों का ही रक्त है। जो आप नसों में बह रहा है, तुम जब तक उसे नहीं पहचान पाओगे तबतक तुम अपने जीवन में योग, ध्यान, साधना के मार्ग पर गति नहीं हो पाओगे, पर ये भी एक दुराग्रह है, तुम साधना भी करते हो सटीक भाग दो जैसे करते हो कि बस 11 मिट्टी ही तो बिछाई जाती है, एक घड़ा ही तो बैठ जाता है। याद रखना की तुम उस को, उस साधना को, अपने गुरु के हर एक मंत्र को, अपने भीतर-हृदय में उसकी चमक की क्रिया नहीं करोगे, तो किसी क्षेत्र में सफलता भी प्राप्त नहीं कर पाओगे, क्योंकि परमेश्वर की गंभीरता के साथ योग- ध्यान में गिरने की क्रिया करें, तभी आप अपनी पहचान पाओगे।
यही तो उद्देश्य है मेरा, यही तो हमारे ऋषि-मुनियों का संदेश है, कि तुम उड़ सकते हो मुक्त आकाश में। तुम मुक्त गगन के पक्षी हो। तुम ही चिंता के लिए बैठो हो, डरे समझो, तुम भूल ही गए हो कि तुम्हारे पास पंख है। तुम पैरों से चल रहे हो। तुम आकाश में उड़ सकते थे, लेकिन तुम फड़फडाना भूल गए हो, गुरु के चेतन, शक्ति, ध्यान, योग, साधना फड़फड़ा पैदा करती है, उन लोगों को जो उड़ सकते हैं, दूर आकाश में जा सकते हैं। विश्वास और श्रद्धा के साथ रिकॉर्ड करने की पूरी आवश्यकता है। मैं ईश्वर सिखाना चाहता हूं, अपने प्रवचनों के माध्यम से, पत्रिका के माध्यम से, शक्तिपात दीक्षा की क्रियायों से, ताकि विस्मृति मिट जाए स्मृति जग जाए। संतों ने, कबीर ने, नानक ने शब्द का उपयोग किया है, सुरति। सुरति का अर्थ है, स्मरण आ जाए। जो भूल जाता है, उसका खयाल आ जाए। कार्यक्षेत्र कुछ खोया नहीं है, तुम सिर्फ भूले हो। खो तो तुम भी नहीं। पक्षी भूल सकता है कि उसके पास के पंख हैं, खो कैसे सकता है? कितने ही जन्मों तक तुम न उडे तो भी अगर फ्लाई का स्मरण आ जाए तो फिर से उड़ सकते हो।
विवेकानंद जी की एक छोटी सी कहानी कहते थे। वे कहते थे, ऐसा हुआ कि एक सिंहनी एक पहाड़ी से जाँघ रही थी, प्रेयसी और जाँघ के बीच में उसका बच्चा हो गया। वह कूद कर चला गया। बच्चा भेड़ों की भीड़ में घट गया, फिर भेड़ों ने उसका पीछा किया, वह सिंह का बच्चा था, लेकिन याद कौन करे? उसे पहचान कौन करे? सुरक्षा कैसे मिली? वह भेड़ों के साथ बड़ा हुआ और उसने समझा कि मैं भी भेड़ हूँ, यही स्वाभाविक भी है।
तुम जिनके बीच बड़े होते हो, वही तुम अपने समझ लेते हो। क्योंकि तुम भूल जाते हो की तुम हो कौन और वही भूल उस सिंह के बच्चे की थी। शेर का बच्चा ज्यादा समझदार तो नहीं था! उसने समझा कि मैं भेड़ हूं। वह भेड़ों के बीच ही चलता है, भेड़ियों जैसा ही आत्मानुभूति होता है, घास-पात खाता।
एक दिन सिंह ने देखा कि भेड़ों की पंक्ति गुजर रही थी, कुछ इस बीच एक सिंह! बड़ा हैरान हुआ। यह असंभव घटना घट रही थी। न तो भेड़ें घिन खा रही हैं, न भेड़ों को खा रही हैं। ठीक भेड़ों की भीड़ में घसर-पसर-जैसे और सब भेड़ें जा रही हैं, ऐसे ही वह चल रहा है। वह सिंह इस भेड़ों की भीड़ में आ गए। भेड़ों के हिस्से में चीख-पुकार मच गई। वह सिंह का बच्चा जो बड़ा हो गया था वह भी भागा, चीख-पुकार मचता, उसकी आवाज भी भेड़ों की हो गई थी। क्योंकि भाषा भी तो तुम सीखते हो, जिनके तुम पास होते हो। भाषा कोई जन्म साथ लेकर तो पैदा नहीं होता। भाषा भी सीखी जाती है। उनका भी संस्कार है। तुम हिन्दी बोलते हो, मराठी बोलते हो, अंग्रेजी बोलते हो, तुम वही सीख लेते हो जो तुम्हारे चारों ओर बोला जाता है। पैदा करो तुम खाली स्लेट की तरह होते हो।
उसने भेड़ों की भाषा ही जानी थी, वही सुनी थी, वही सीखी थी। वह भी मिमियाने लगा, रोने लगा, नौकरी करने लगा। यह नया सिंह भागा, बहुत मुश्किल से वह सिंह का बच्चा पकड़ में आया। पकड़ा तो वह गिरगिड़ाने, छूट की आज्ञा चाहने लगा। बड़ी खबर यह है कि गिरने से मौत सामने आ जाती है। अब सिंह ने उस भेड़ सिंह से बहुत कहा कि नासमझ! तू भेड़ नहीं है! लेकिन वह कैसे माने? इसमें उसे जालसाजी दिखायी पड़ी। यह सिंह कुछ ऐसी बात समझा रहा है, जो सच नहीं हो सकता। उनके जीवन भर के अनुभव के विपरीत है।
जब भी कोई कहता है, तुम शरीर नहीं हो, परमेश्वर क्या विश्वास करता है? जब मैं सब कहता हूं कि तुम आत्मा हो तो मनुष्य क्या भरोसा करता है? अगर उस भेड़ सिंह को भी गारंटी नहीं मिली तो आश्चर्य तो नहीं। लेकिन यह दूसरा सिंह भी जुदा था। मैं भी बड़ा जूठन हूं, तुम जागो या न जागो मैं दुनिया से जुदा रहूंगा। तुम कितने ही भागो, गुरू देवता फिर से पकड़ ही खाते, तुम भाग नहीं ले सकते। क्योंकि यह तो नित्य धरता सनातन संबंध है। उस सिंह ने भी उसे घसीटते एक सरोवर के किनारे पर ले जाकर छोड़ दिया, जिससे वह रोया, आंखों से आंसू झरने लगे, लेकिन वह सिंह उसे घसीटता ही अपनी इच्छा के विपरीत ले गया।
कई बार गुरु शिष्य को उनकी इच्छा के विपरीत दर्पण के निकट ले जाया जाता है। शायद बहुत बार नहीं, हर बार क्योंकि शिष्य तोदर्पण के करीब जाने से डरता है, क्योंकि दर्पण के सामने जाने से उसकी अब तक की सारी मान्यताये छिन्न-भिन्न हो सकती हैं। जो भी उसने समझा-बुजा है, वह तैयार हो जाएगा। जो भी उसका धारणाये है, टूटेगी, खंडित होगा। सारे जीवन की कल्पना बिम्ब विचार। दर्पण के सामने आने से सभी परिचित हैं। अपना चेहरा देखने से सभी परिचित है। क्योंकि तुम सब कुछ और चेहरा बना लेते हो, जो तुम्हारे नहीं हैं। तो वह सिंह भी डर रहा था। लेकिन गुरु नहीं। गुरू सिंह ने उसे घसीटा और सरोवर के किनारे ले जाकर खड़ा कर दिया और कहा कि देख ना-समझ! मेरे और तेरे चेहरे पर पानी में देख, कोई फर्क तो नहीं है? जो मैं हूं, वही तु है। ''तत्त्वमसि'' यही मैं कह रहा हूं कि जो मैं हूं, वही तुम हो। यही उपनिषद कह रहे हैं कि जो मैं हूं वही तुम हो, जरा भी भेद नहीं है। आकाशगंगा-डरते उस सिंह ने देखा, जैसे कोई सपना देखता है। क्योंकि हम उसी का यथार्थ कहते हैं, ग्लैक्सिया हमने बहुत बार पुनरूक्त किया है। नया तो शंका ही आसान है। भरोसा नहीं आया, आंख मीड़ी होगी, फिर देखा होगा। जीवन भर का अनुभव तो यह था कि मैं भेड़ हूं, यह सिंह नो तरकीब तो नहीं करता! कोई जादूगर तो नहीं! कोई हिपनोटिस्ट तो नहीं है!
जब तुम गुरू के पास पहले दफा जाओगे तो मुखिया कई बार बदलेगा कि कोई सम्मोहित तो नहीं हो रहा है? कोई हेड चीट तो नहीं कर रहा है? कोई मुखिया ऐसी बात तो नहीं समझा रहा जो सच नहीं है? क्योंकि आपका अनुभव प्रतिनियुक्ति है। लेकिन सिंह ने कहा कि तू देख, फिर देख कि सिंह ने गर्जना की अपनी गर्जना ही सरोवर के दर्पण में अपने चेहरे को ठीक देखकर देखा ही दूसरे सिंह के अंदर सोया सिंह भी जागा। भेड़ का खल तो ऊपर था, उसे तो हटना ही था। संस्कार तुम आत्मा तो नहीं बन सकते। तुम भी कुछ उपाय करों, तुम रहोगे तो आत्मा ही। तुम ही चेष्टा करोगे जन्मों-जन्मों तक, तो भी तुम शरीर न हो सकोगो। आत्मा और शरीर तो अलग-अलग है। विचार ऊपर ही ऊपर है। मन ऊपर ही है और जिस दिन गुरु परमेश्वर दिखाएगा सरोवर और जिस दिन तुम गुरु की हमार सुनोगे—। उसकार के साथ ही भेड़ सिंह की तरह के भीतर की आत्मा जागता हूं। सारा जंगल, पहाड़ पहाड़, हूंकार से गूंज उठे। एक क्षण में भेड़ खो गई—वह सिंह था! उसने फिर से पानी में देखा। मुस्कुराया होगा। प्लाट कैसा हुआ कैसा वंचना! कैसा आपने धोखा दिया!
एक आदमी अपने गाँव में झूम रहा था। रात के समय वह एक गांव में संदेश, वहां एक जगह ब्याह हो रहा था, ढोल-बाजे बज रहे थे, वह आदमी ब्राह्मण था, वहां जाकर देख तो पता लगा कि भूर बंटवाली है, भूर को संस्कृत में भूयासी विशेष दक्षिणा कहते हैं । जो ब्याह के समय ब्राह्मणों को दी जाती है, वह ब्राह्मण कैमरून को बाहर का पहाड़ बनाकर भू-धारण के लिए अंदर गया। चोरों ने कैमल को बाहर देखा तो वे उसे वामकर ले गए, दुर्घटना भूरी बंटी तो सभी ब्राह्मणों को चार-चार आने मिले, चार आने लेकर वह ब्राह्मण बाहर आए तो देखा कि कैमल नहीं है, अटल चार-पांस सौ रूपयों का कैमल गया।
इस तरह संसार में तो दच्छ मिला, थोड़ा धन मिला, थोड़ा मन मिल गया, थोड़ा आदर मिल गया, थोड़ा भोजन बढ़ गया या मिल गया पर उर कैमरा चला गया परमात्मा की ओर चला गया, यही स्थिति है, तुम स्पर्श सुख में आनन्द को खोओ दे दो। तुम्हारे मोह के कारण तुम उस मर्म, उस पदार्थ को समझ नहीं पाते जो चमक समझाना चाहता है। प्रथम से आदर-सत्कार में चार आने से भूर के कारण राजी हो जाता है।
एक संत को किसी ने कहा कि हम आपका आदर करते हैं, तो वे बोले-धूल आदर करते हो। हम आदर भगवान करते हैं तुम क्या कर सकते हो? सभी साथी भी क्या साथ देंगे? आपके लिए कौन सी ताकतें हैं जो अन्य करोगे? वास्तव में संतों का सम्मान भगवान करते हैं, दूसरा लघुरा क्या जाने का सम्मान क्या होता है?
आप जो सर्वोनपरि लाभ चाहते हैं, यही बस्तव में परमात्मा को प्राप्त करने की इच्छा है। इस इच्छा को ज्ञान की इच्छा कहो या प्रेम की, सुख की इच्छा या पूर्व दर्शन की, भगवतप्राप्ति की इच्छा कह दो, एक ही बात है, यही हमारा लक्ष्य है, इस लक्ष्य पर डटे रहना, अधूरे में मत रहो, पूरा मिल जाएगा । अधूरे को ले लोगे, तो वहीं अटक जागे, यह मनुष्य शरीर उत्तम से उत्तम है। इसलिए यह लक्ष्य पूर्णता को प्राप्त करना है, आनंद को प्राप्त करना है, परमात्मा की खोज के लिए ही मानव जीवन मिला है।
एक चरवाहा आया और ब्राह्मण से बोला, संसार का सुख जाने से परमात्मा मिल ही जाएगा क्या? शोक का तो छोड़ दो और उद्र का मिले ही नहीं, तो फिर रोते रह जाओगे न? ब्राह्मण न उत्तर दिया कि अर्जुन ने भी यही प्रश्न किया था कि यदि साधक को योग की प्राप्ति न हो, तो और वह बीच में ही मर जाए, उस लुकारे की क्या गति है? वह लक्ष्यभ्रष्ट क्या हो जाता है? संसार को तो छोड़ दिया और परमात्मा नहीं मिला, तो किस बीच में ही लटकता रहेगा? भगवान बोले- नहीं पार्थ! उसका न तो इस लोक में और न परलोक में ही पतन होता है, क्योंकि जैसे हम कर्म करते हैं, वैसा ही हमें प्राप्त होता है।
दो शिष्य अपने गुरु के आश्रम में थे, दोनों को एक घंटे में काम करने का समय मिलता था। दोनों में सिगरेट पीने की आदत थी। वही एक घंटा था जब वे पी सकते थे। लेकिन वह घंटा भी मिलता था, ध्यान के बदले कि घुमा कर ध्यान करो। तो सवाल था कि ध्यान करते समय सिगरेट भरा हुआ नहीं है? तो दोनों ने तय किया कि गुरु से पूछें उचित है। तो पहले ने पूछा। गुरु ने कहा नहीं बिल्कुल नहीं। यह बात है? शर्म नहीं आती? नालायक कहीं के! जाओ ध्यान करो! वह तो बड़ा दुःखी वापस लौट आया। एक बैंच पर आकर बैठा हुआ उदास उदास, दूसरा आया वह तो सिगरेट पीता आ रहा था। पहले ने पूछा कि मामला क्या है, मुझ पर तो बहुत नाराज गुरू जी! क्या सी सी दी की आज्ञा दी?
उसने कहा हां मैंने पूछा तो उन्होंने कहा हां मजे से। उसने कहा तो हद हो रही है! यह कैसा हिस्सा! तो दूसरे ने कहा मैं तुमसे पूछता हूं ट्यूने पूछा क्या था? उसने कहा मैंनेपूछा था कि मैं ध्यान करते समय सिगरेट पी रहा हूं? वे एकदम नाराज हो गए, आग बबूला हो गया कि बिल्कुल नहीं। दूसरा हंसने लगा, उसने कहा वहीं भूल गया। मैंने गुरू जी से पूछा कि मैं क्या सिगरेट पीता हूं ध्यान कर सकता हूं। उन्होंने कहा हां बिल्कुल कर सकते हैं! अरे कम से कम ध्यान तो कर रहे हो।
तुम कहो मैं बार-बार भागना चाहा और ज्यादा खिंचता आया आया तुम भाग भी कैसे हो सकता है! मैं बड़ा नहीं हूं। किसी को बांधो तो वह भाग सकता है। जंजीरें हों तो तोड़ सकते हैं। मैंने मुखिया को पूरी आजादी दी है, तुम भागना चाहो तो तुम मालिक हो अपने। मैं तुम्हारा मालिक हूं, तुम भागना चाहते हो तो तुम मलिक हो मैं तुम्हारा मालिक हूं। सारा यही मेरा है कि तुम्हारी स्वतंत्रता है।
तुम हो मैं अपात्र को आपने स्वीकार किया! कोई भी अपात्र नहीं, आनंद किरणें हो तुम मेरी, तुम्हारे भीतर ही में बैठा हूं, परमात्मा स्थित हूं, अपात्र कैसा, पात्र कैसा, लाखों लोग मेरे संपर्क में आओ, मैं कोई अपात्र देख, अपात्र है कोई ही नहीं। लेकिन इस समाज ने मुखिया को यह समझा दिया है कि तुम पापी हो, तुम्हारे आलोचकों ने खुद से भर दिया है। मैं तो सिर्फ एक ही बात का स्मरण करना चाहता हूं। तत्त्वसि कि तुम हंस हो, मेरे राज हंस हो। तुम अपने आप को भूल गए हो क्योंकि तुम सो रहे हो, मूरछित हो, अनिद्रा में हो। जाग गोगे ध्यान में तो अपने-आप में साधु होगे। एक सम्राट को उसकी ज्योतिषी ने कहा कि इस साल जो सफलता मिलेगी उसे जो भी खायेगा, पीएगा वह पागल हो जाएगा। तुम कुछ बचाने का उपाय कर लो। सम्राट ने कहा, तो पिछले साल की सफलता को हम बचा लें लेकिन ज्योंतिषी ने कहा, वह इतनी प्रर्याप्त नहीं है कि आपके पूरे राज्य के लोग उसे एक साल तक चलने में सक्षम हो गए। केवल महल में रहने वाले लोग तुम, मैं, तुम रानी, तुम्हारों बच्चें, मिस्त्र से लोग बचत करें।
सम्राट ने कहा कि इनसे सीधे लोगों को बचाया जा सकेगा? जब मेरा पूरा साम्राज्य ही पागल हो जाएगा तो उनके बीच रहने में भी रुकावट आएगी। तो तुम एक काम करो, बस पूरी फसल को बचा लो, पूरे अनाज को और हम सब को पागल हो जाने दो, एक बात याद रखो तुम पागल नहीं रहोगे। तो तुम एक-एक व्यक्ति को जो भी परमेश्वर ने उसे हिलाकर कहा कि तू पागल नहीं है। बस इतना ही खा लो।
सम्राट ने ठीक कहा- अगर पागल को स्मरण दिया जाए, होश दिया जाए कि अन्न का प्रभाव शरीर पर ही होगा, आत्मा तक नहीं पहुंच सकता। वह बेहोश है, बाहर-बाहर, अंदर नहीं पहुंच सकता। ऐसा हुआ सारा एम्पायर पागल हो गया। सिर्फ ज्योतिष को बचाया गया। बड़ी मुश्किल उसकी यात्रा थी, क्योंकि हिलाना बड़ा मुश्किल था। वे कितने ही कहते हैं, वे गिनती में नहीं थे। कितना ही विश्वो वे जगते नहीं थे, जितना ही हिलाओ, हिलते नहीं थे। लेकिन कुछ लोग हिले, कुछ लोगों को याद आई और जिनको आया याद, वे ज्योतिषी तुम भी यही कहते हो। दूसरों को हिलाओ, क्योंकि जो अन्न है वह अंदर तक नहीं जा सकता। वह आत्मा नहीं बन सकता। ऊपर बेहोशी तंद्रा ही तो है।
तुम सो गए हो जैसे ही तुम हिलते हो जग हो जाते हो तो जागरण कभी खोता नहीं, सिर्फ भीतर छिप जाता है। भगवान्धुयें से भर दिया है। बस तुम जिस्म पर ही वह धुयें का पहलू है, तुम अँधेरा नहीं हो, तुम रौशनी हो, तुम्हारी दीये की नाली कितनी ही मंदिर जलती है, चारों ओर चाहे कितना ही अँधेरा हो वह खुद अँधेरा नहीं है। कोई भी देवता हिला नहीं सकता, दुनिया में न्यायोचित क्रांति घटित हो सकती है। उसी क्षण में तुम हंस बन जाओगे, तुम स्वयं बुद्ध हो जाओगे। क्योंकि तुम्हारे भीतर एक दिया है, जो सदा से जल रहा है, सदा जलता रहेगा, कितने ही कंपेयर हो जाएंगे, जैसे बादलों में सूरज फिर से प्रकट हो जाता है। थोड़ी सी हवा मिले तुम गीत छितर-बितर हो जाओगे और स्मरण हो जाएगा कि तुम कौन हो। सिर्फ भूली हुई आत्मा की पुनःआत्मबोध, स्मृति है, सूरती है।
तो मैं जो कह रहा हूं वह हिलाने की है। क्योंकि जब भी तुम सद्गुरु के पास पहुँचते हो बड़ा संघर्ष पैदा होता है। थोड़े रास्ते से तुम भागना चाहोगे, हटना चाहोगे, बचना चाहोगे। तुम सब उपाय खोजो कि कैसे निकल भागें? और थोड़े से तुम रुके रहोगे, भागोगे तो भी वापस आ जाओगे, क्योंकि मन कहेगा, कहीं और जाने का कोई अर्थ नहीं है, वह मंजिल है, जिसकी तलाश थी।
गुरु पुर्ण है, अद्वैत है, शिष्य अपुर्ण है, शिष्य द्वैत है। आपके भीतर जो दायित्व की चिंता है, उसे ही हटा दें, आपके भीतर जो सचेत है, वह प्रकट हो जाए। परमात्मा आग में डालना होगा, ताकि घन स्वर्ण निखर आएं, स्वर्ण तो जलता नहीं, सिर्फ निखरता है।
मैं वह परमेश्वर मंत्र, साधना, दीक्षा दे रहा हूं जिसके माध्यम से तुम इसी जीवन में पूर्ण हो सको, जिससे तुम चिन्ताएं, तुम बाधायें, तुम सब मैं अपने ऊपर उठाऊंगा, ईश्वर मुक्त होना है, मेरे प्राणों के साथ रहना है, हर क्षण और हर झटके के साथ रहना, भगवान उड़ना ही सीखते हैं।
इस दीपावली महापर्व पर अपने मन का दीपजये, जो आपको आन्तरिक रूप से आलोकित करें, आपके जीवन को एक नई ऊर्जा, नई सोच, नई सोच के साथ, जिससे आपकी कर्म शक्ति का भावज्यर्मंय स्वरूप में दैदीप्यमान हो पर्याप्त। जिससे हर क्षण आनन्द मग्न हो सके, उत्सवमय हो सके, इस प्रकाशमान दीपावली महापर्व पर मैं ईश्वर ऐसा ही आशीर्वाद देता हूं, कल्याण कामना करता हूं।
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलास श्रीमाली जी
प्राप्त करना अनिवार्य है गुरु दीक्षा किसी भी साधना को करने या किसी अन्य दीक्षा लेने से पहले पूज्य गुरुदेव से। कृपया संपर्क करें कैलाश सिद्धाश्रम, जोधपुर पूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन से संपन्न कर सकते हैं - ईमेल , Whatsapp, फ़ोन or सन्देश भेजे अभिषेक-ऊर्जावान और मंत्र-पवित्र साधना सामग्री और आगे मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए,