पुराणों में एक सुन्दर प्रसंग आया है कि भगवद् पूज्यपाद वेदव्यास के पुत्र शुकदेव ने अपने पिता से संन्यास लेने की आज्ञा ली तो श्री वेदव्यास ने कहा कि गृहस्थ में जो भी संन्यासी की तरह जीया जा सकता है। शुकदेव मुनि ने तर्क दिया कि संन्यास और गृहस्थ बिल्कुल अलग-अलग पक्ष हैं और गृहस्थ व्यक्ति अपनी ही अलर्ट में खोया रहता है। इस कारण यह संभव नहीं है कि गृहस्थ जीवन में एक सन्यासी की तरह जीवन जीया जा सके। इस पर वेद-व्यास ने कहा कि राजा जनक महान् मनीषी हैं। उनके पास जाने से कुछ दिन पहले और ज्ञान प्राप्त कर उन्हें जब ज्ञान प्राप्त हो जाएगा, तब तुम संत लेने के लिए स्वतंत्र होगे।
शुकदेव जी राजा जनक यहां पहुंचे और अपना परिचय दिया तो राजा जनक ने उन्हें दरबार में बुलाया। वहां देखा तो बड़ा ही अद्भुत दृश्य मिला, राजा पैदा करने वाले सुंदरियों के बीच आमोद-प्रमोद कर रहे थे उनकी कई रानियां, दासियां थीं। राजसी परिधान पहने हुए संगीत, नृत्य का आनंद ले रहे थे। शुकदेव को लगा कि यह कैसे संत हैं?
अंतिम वे नहीं रहे और उन्होंने राजा जनक से पूछा ही कैसे लिया 'आप संत हैं, आप उपदेश कुछ देते हैं, और आपके जीवन में यह व्यवहार कुछ अलग सा है। यह सब कुछ अजीब लग रहा है। आपको विदेह राज कहा जाता है। विदेह राज का अर्थ है जो अपनी देह से परे हो। संसार में न हो। शुकदेव मुनि ने कहा कि आप सभी ऋषि-मुनि का सम्मान करते हैं, और ज्ञानियों में आप सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, तथा आप सच्चे संत भी मानते हैं। मैं यह बात समझ नहीं पा रहा हूं कि सारे साधु सन्यासी आपके दरबार में आते हैं। आपके गुणगान करते हैं अन्यथा मुझे तो यहां संत जैसा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। किंग जनक ने कहा कि आपसे अनुरोध किया गया है। पहले भोजन कर लें, विश्राम कर लें, उसके बाद संत इसी तरह की चर्चा करेंगे।
दूसरे दिन प्रातः राजा जनक ने पूछा कि भोजन और विश्राम में कोई कमी तो नहीं थी। मुझे विश्वास है कि आपने भोजन और विश्राम का आनन्द लिया होगा। इस पर शुकदेव मुनि अत्यंत क्रोधित हो उठे और बोलें कि भोजन तो बहुत अच्छा था लेकिन अपने सिर के ऊपर एक तलवार बांध रखी थी। वह भी एक घोषणा के साथ, इस कारण पूरा ध्यान तलवार की तरफ ही रहता था। भोजन स्वादानुसार कैसे लग सकता था तथा विश्राम के समय भी सिर के ऊपर ग्लॉर्डरी लटक रही थी। इस कारण एक क्षण भी नींद नहीं ले पाया, पूरा ध्यान तलवार की ओर केंद्रित था।
राजा जनक ने दिया और बोलें कि कल जो आपने प्रश्न पूछा था, उसका यही उत्तर है। मैं जीवन में सारे आमोद-प्रमोद करता हूं लेकिन हमेशा इस बात का ध्यान रखता हूं कि मेरे ऊपर यमराज की तलवार लटकी हुई है। इसलिए मैं पूरी निष्ठा के साथ राज-काज चलाता हूं। राज्य में धर्म की स्थापना में सहयोग करता हूं, आसान किस घड़ी यमराज की तलवार ले लें। इसलिए मैं किसी भी प्रकार की तृष्णा में नहीं होता हूं। दुनिया के सारे राग-रंग देखते हुए भी मन को इन सब से अलग-अलग रहते हैं। मन को वासना, तृष्णा, भोग, विलास आदि में नहीं देखता हूं। यह सुन कर शुकदेव मुनि को ज्ञान आया और उन्होंने कहा कि तुम मुझे संत धर्म का ज्ञान दो। तब राजा जनक ने कहा कि संत जीवन का दूसरा नाम है जोकि गृहस्थ जीवन में मान्यता प्राप्त व्यक्ति संन्यास्त हो सकता है क्योंकि जीवन का लक्ष्य ही आत्मा तत्व का बोध है।
वास्तव में मनुष्य के जीवन में दिन प्रतिदिन हजारों बंधन अनजाने में बढ़ते रहते हैं। और मनुष्य उन बंधनों के रूप में मोह, कामना, वासना में इतना अधिक जुड़ जाता है कि उससे परे हट कर वह जीवन को ही नहीं देख सकता।
मोह और तृष्णा ईश्वर की दी हुई एक ऐसी क्रिया है, जिससे मनुष्य इस माया रूपी संसार को सत्य मान कर जीवन प्रातिवहित करता रहता है। मनुष्य इसमें इतना अधिक भाग हो गया है कि वह केवल तृष्णा, वासना, भोग, विलास के बारे में सोचता है, और अपना जीवन एक कूप-मण्डूक की तरह व्यतीत कर देता है। कर्म को ही जीवन कहा गया है। जब तक कर्म कर्तव्य से लाल रंग रहता है, तब तक वह कर्म सात्विक होता है, और जीवन संन्यास्त है। लेकिन जब आस्तिकता से जुड़ जाता है तब मनुष्य स्वंत्र नहीं हो जाता और वह प्रपंचो के अयोग्य हो जाता है। जब इन बातों से मनुष्य ऊपर उठता है तब कर्मशील बनता है। जीवन का उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्त करना है। अपनी इच्छा से जीवन के प्रत्येक क्षण जी विशेष को सन्यास ने कहा है।
संन्यास भी एक प्रकार से कर्म का ही संदर्भ है। व्यक्ति के पिछले जन्मों के कर्म व्यक्ति के साथ प्रारब्ध संस्कार के रूप में जुडे रहते हैं और इस जन्म में भी समयनुसार व्यक्ति विशेष के साथ जुडे होने वाले व्यवहार का आधार कर्म बनते हैं।
जब जीवन प्राप्त होता है तो जीवन में कई प्रकार के संयोग-वियोग बनते हैं, हर संयोग-वियोग किसी कार्य का निमित्त बनता है। जब किसी व्यक्ति मान-अपमान, दुःख-सुख, शत्रु-मित्र आदि में सम भाव से जीवन जीना चक करता है, तब स्थित प्रज्ञा के कारण में 'बसुधैव कुटुम्बकम्' समष्टि भाव आ जाता है। व्यक्ति में 'स्व' का विकास होता है, बहिर्मुखी भाव समाप्त हो जाता है जागरूक होता है। यही सन्न्यस्त भाव है, जीवन चक्र से मुक्त होना जीवन से भागना नहीं है। कर्म भाव से ही संन्यास प्राप्त हो सकता है।
इसीलिये हजारों साल पूर्व महर्षि पराशर ने संत, संत और जीवन के दस नियम बताए हैं। ये नियम व्यवहार में आने योग्य नियम हैं। और जो व्यक्ति इन जानकारियों का पालन करता है, वह गृहस्थ संत बनकर जीवन का गौरव प्राप्त कर सकता है, वह छोटे गांव में या बड़े शहर में नौकरी पेशा हो या व्यवसायी, वह महिला या पुरुष इसमें कोई अंतर नहीं रखता। इसीलिये महर्षि पराशर कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति गृहस्थ संत बन सकते हैं।
सर्वभौमिक सत्य, ज्ञान कर्म और धन का प्रवाह, ज्ञान कर्म और धन का दिशा, फल की दृष्टि, तारा और शौर्य, प्रभावशाली नेतृत्व, श्री से युक्त, स्त्री शक्ति का जागरण, सरस्वती और शक्ति-संगठन, आत्मीयता संन्यासी ही गृहस्थ रूप में समाज में उपरोक्त दस सिद्धांत कई प्रकार के हो सकते हैं। संत भी साधक होता है। और गृहस्थ साधक भी सन्यासी होते हैं। क्योंकि संसाधन का ढाँचा ही जीवन में निश्चित सिद्धांत अपनाकर भौतिक और भौतिक परिस्थितियों के साथ निरंतर कर्मशील रहना है।
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