जब भू देवी पाप और अत्याचार से अत्यधिक व्यथित हो गई और पूरे भूमण्डल पर अत्याचार बढ़ने लगे, यज्ञ और धर्म की हानि होने लगी तब पृथ्वी ने गौ माता का रूप धर प्रजापिता ब्रह्मा से प्रार्थना की। ब्रह्मा जी ने सभी देवी-देवताओं के साथ श्वेत दीप पर पुरुष सूक्त के श्लोकों से भगवान विष्णु की प्रार्थना की तब भगवान विष्णु ने उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर यह वरदान दिया कि मैं शीघ्र ही यदुवंश में कृष्ण के रूप में अवतरित पृथ्वी को पाप से मुक्त और पुनः धर्म की स्थापना होगी।
द्वापर युग में भाद्रपद पक्ष की अष्टमी की अर्धरात्रि को रोहिणी नक्षत्र में भगवान का अवतरण हुआ। यह रात कालरात्रि से भी महान है जहां भगवान ही षोडश कला संपन्न विष्णु के पूर्ण अवतार अवतार है। श्री कृष्ण जन्मोत्सव का महान पर्व जन्माष्टमी की रात्रि को अत्याधिक धूमधाम से संपूर्ण आर्यावर्त में मनाया जाता है। विशेष्य-विशेष स्थानों पर आज भी कृष्णलीला, श्रीमद्भागवत कथा और रासलीला जैसी घटनाएँ घटित होती हैं और इन जगहों में कृष्ण के जीवन और उनके वचनों के गुण संपन्न होते हैं।
आप सत्य को स्वीकार न करने की तो जैसे स्क्रैच ही बन गए हैं, इसीलियें तो आज तक यह विश्व किसी महापुरूष का अन्य देव पुरुष का सही ढंग से अटेंशन ही नहीं पाया। जो समाज वर्तमान तक कृष्ण को समझ नहीं पाया, वह समाज उनकी उपस्थिति के समय उन्हें कितना जान पाया होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। सुदामा जीवन पर्यन्त नहीं समझते कि वे केवल मित्र ही समझते थे, वे कृष्ण एक दिव्य विभूति हैं, और उनके माता-पिता भी तो हमेशा उन्हें अपने पुत्रों की ही दृष्टि से देखते रहे तथा दुर्योधन ने उन्हें हमेशा अपना शत्रु ही समझा।
इसमें कृष्ण का दोष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कृष्ण ने तो अपना संपूर्ण जीवन पूर्ण के साथ ही जिया। कहीं वे माखन चोर के रूप में प्रसिद्ध हैं तो कहीं प्रेम शब्द को सही रूप में प्रस्तुत करते हुए दिखते हैं। कृष्ण के जीवन में राजनीति, संगीत जैसी विषय भी पूर्णरूप से समाहित थे, वे अपने जीवन में षोडश कला पूर्ण होकर पुरुषोत्तम कहलाये।
कुरूक्षेत्र युद्ध में जो ज्ञान कृष्ण ने अर्जुन को प्रदान किया कि निरन्तर कर्मशील बनो, जीवन में अच्छे-बुरे का भेद कर ही क्रियाशील बनो। वह बहुत ही विशिष्ट और समाज के कुरीतियों पर कड़ा प्रहार करने वाला ज्ञानमय उपदेश है। उन्होंने अर्जुन का मोह भंग करते हुए कहा-
हे अर्जुन! तु कभी न शोक करने वाले व्यक्तियों के लिए शोक करता है, और अपने-आप को विद्वान भी कहते हैं। परन्तु जो विद्वान होते हैं, वे जो जीवित हैं, उनके लिये और जो जीवित नहीं हैं, उनके लिये भी शोक नहीं करते। इस प्रकार जो ज्ञान कृष्ण ने अर्जुन को दिया, वह अपने-आप में हिट अक्षर है और अधर्म का नाश करने वाला है।
भगवान श्री कृष्ण को षोडशकला पूर्ण व्यक्तित्व माना जाता है। जो व्यक्ति सोलह कला पूर्ण हो, वह केवल एक व्यक्ति ही नहीं एक समाज ही नहीं, अपितु युग को परिवर्तित करने की सामर्थ्य प्राप्त करता है, और ऐसे व्यक्ति की सोच, विचार और धारणा से पूरा जन समुदाय आपसे प्रभावित होने लगता है ।
वाणी पूर्णता- जो भी मूल वचन देते हैं, वे व्यवहार में पूर्ण हो जाते हैं, वे वचन कभी भी अपरिचित नहीं होते। ऐसे व्यक्ति में श्राप और वरदान देने की क्षमता होती है।
दिव्य दृष्टि- जिस व्यक्ति के संबंध में भी देखा गया है, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान सटीक सामने आ जाए, संसार में जहां पर कौन सी घटनाये घटित होने वाली हैं, उस ज्ञान का होने पर वह व्यक्ति दिव्य दृष्टि युक्त महापुरूष हैं।
प्रज्ञा सिद्धि- मेद्या अर्थात् स्मरण शक्ति, बुद्धि, ज्ञान आदि। ज्ञान के संबंधित सभी विषयों को जो अपनी बुद्धि में समाहित करता है वह प्रज्ञावान है।
टेलीहियरिंग- इसका तात्पर्य यह है कि भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता।
जलगमन- यह सिद्धि निर्धारण ही महत्वपूर्ण है। इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता है। मानो धरती पर गमन कर रहा हो।
वायु यातायात- यह प्रमाणीकरण है, व्यक्ति अपने शरीर को सूक्ष्म रूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता है।
अस्पष्टता- अपने मूल शरीर को सूक्ष्म रूप में परिवर्तित कर आप को अदृश्य कर देते हैं, जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा देखे ही नहीं पाता है।
ज़हर- कई रूपों में अपने आपको संशोधित कर लेना। एक स्थान पर अलग-अलग रूप में, दूसरे स्थान पर अलग-अलग रूप में दिखाई देता है।
देव क्रियानुदर्शन- इस कला का संपूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न विश्व का साहचर्य प्राप्त किया जा सकता है। उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बना कर उचित सहयोग दिया जा सकता है।
कायाकल्प- शरीर परिवर्तन समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती है, लेकिन कायाकल्प कला युक्त व्यक्ति निरंतर रोगमुक्त और यौवन ही बना रहता है। सम्मोहन- सम्मोहन का लेटर है सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया। इस कला से पूर्ण व्यक्ति तो क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता है।
गुरुत्व- जिस व्यक्ति में गरिमा होती है, ज्ञान का भण्डार होता है और देने की क्षमता होती है, उसे गुरू कहते हैं। और भगवान कृष्ण को तो जगत्गुरू ने कहा है।
पूर्ण पुरुषत्व- अनोखा पराक्रम, और निडर, एवं बलवान होना। श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही नामित था। जिसके कारण उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया। संपूर्ण जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की।
सर्वगुण संपन्न- आज भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सब कुछ भगवान श्री कृष्ण में मान्य थे। जैसे-दया, विष, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता इत्यादि। इन्हीं सीमित गुणों के कारण वे मनुष्य सारी दुनिया में श्रेष्ठतम कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करते हैं।
इच्छा-मृत्यु- इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता है। काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बन्धन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता है।
अनूर्मि-जिस पर भूख-प्यास, शीत-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो।
यह समस्त संसार द्वंद-धर्मों से आपूरित है। आज भी यहां प्राणी हैं, वे सभी इन द्वंद-धर्मों के वशीभूत हैं, भगवान श्रीकृष्ण में ये सभी सोलह कलाये पूर्णरूप से पकड़ा गया था, और भौतिकता एवं आध्यात्मिता का पूर्ण संयोग उनके पूरे जीवन में रहा। इसी कारण से वे जनमानस के आदर्श बन जाते हैं और ऐसे ही महापुरूषों के गाथा के गुणगान द्वारा ही उनके नियमों को जीवन में उत्प्रेरित कर, उनकी पूजा को साधना के माध्यम से जीवन को धन्य बनाया जा सकता है।
पूर्णता के लिए कृष्ण की साधना सभी लोग करते हैं, लेकिन इसके साथ-साथ यह तथ्य भी ध्यान में रखना चाहिए कि केवल पूर्णता, धारणा ही जीवन का स्वर नहीं है, अपितु संतति चाहे वह पुत्र हो या पुत्री हो जबकि उचित होना आवश्यक है है, और इसमें कृष्ण के समान कर्म करने के गुणों का विकास भी हो, इस प्रकार की ये साधना वें ही साधक अनिवार्य रूप से जो अपनी पवित्रता की सर्वागीण विकास चाहते हैं।
यदि अपनी संतति की उन्नति के लिए यह साधना कर सकता है, तो उसका नाम कुंकुम से यंत्र के आगे कागज पर लिखें। पति-पत्नी दोनों सम्मिलित रूप से संपन्न होंगी, तो शीघ्र व श्रेष्ठतम सफलता की प्राप्ति होगी। इस साधना में पूर्णता सुनिश्चित करें स्थापित कर चेतनाता पूर्वक-
ऋषिन्यास-ओम नारद-ऋषिये नमः सिर पर, चेहरे पर
ॐ गायत्री जप को, ॐ हृदय में श्रीकृष्ण के देवता को।
हाथ की स्थिति-क्लैम अंगूठे। क्लीन
प्रयोगनीभ्यां स्वाहा। क्लूं मध्यमाभ्यां वस्ट्। क्लैम
अनामिकाभ्यां हूं। क्लौं कनिष्ठाभ्यां वसट्। क्लः
करतल-कर-पृष्ठभ्यां फट्।
अव्याद् व्याकोष नीलाम्बुज प्रत्यक्षरूणाम्भोज नेत्रऽम्बुजस्थो।
बालो जड़ा कटिर स्थल कलि तरणत् किडणीको मुकुन्दः।।
दोभ्यौ हैयड़ वीणं दधदति विमलं पायसं विश्व वन्धो
गो-गोप-गोप वीतारूणथ विलसत् कण्ठ भूश्चिरं नः।।
संत निरीक्षण यंत्र सिद्ध प्राणप्रतिष्ठा युक्त यंत्र एवं संजीवनी मातृभूमि का कुंकुम अक्षर आदि से पूजन करें। अपने कृष्ण संकल्प के लिए संकल्प लें व गुरु एवं का ध्यान दें, निम्न मंत्र की 5 माला जप करें।
यह पांच दिवसीय दिना है। नित्य उठाए गए मंत्र की यंत्र के सामने जप कर पूजा स्थान में स्थापित रहने दें। यदि संतति नित्य प्रतिदिन इस यंत्र के स्पर्श भी करते हैं तो उसे अपने भीतर एक तेज का अनुभव अवश्य होता है।
कृष्ण का संपूर्ण जीवन शत्रुओं को कभी युद्ध से, कभी नीति से परास्त कर, धर्म व शांति की स्थापना कर रहा है, जहां धर्म है, वहीं श्रीकृष्ण हैं। हर कोई आज विनाश बाधा से पीडित है। व्यक्ति की उन्नति-दांवता से प्रभावित होने की भावना से व्यक्ति के कई स्वामित्व हो जाते हैं। जीवन में अनेक प्रकार के शत्रुओं को परास्त करने की शर्त और निरन्तर विजय श्री युक्त क्रियाशीलता के लिए जन्माष्टमी की रात्रि में सर्व शत्रु सहांरक कृष्ण दृढ साधना संपन्न करें।
स्नान आदि के अभिलेख अपने पूजन स्थान में पीला वस्त्र धारण कर अपने सामने चौकी पर पीला या लाल कटोरा बिछाकर उसके ऊपर एक दीपक लगायें, दूसरी ओर धूप, अगरबत्ती जलाएं, दक्षिण दिशा की ओर मुंह कर सर्वप्रथम गुरू पूजन के साथ गणपति का ध्यान पूरा करें करें। इसके लेटर चौकी पर चावल की एक जमाई पर सुदर्शन अधिकार स्थापित करें तथा चारों ओर कृष्ण के अस्त्र शस्त्र चिह्न आठ जीवट चक्र स्थापित करें, ये अष्ट जीव चक्र भगवान श्रीकृष्ण के आठ हाथों में स्थित शंख, चक्र, गदा, पद्य, पाश, अंक, धनेश्वर, शर के प्रतीक हैं, तथा प्रत्येक जीव चक्र पर कुंकुंम, केसर, चावल चढ़ाते हुए कम निम्न मंत्र का उच्चारण करें-
ॐ शंरावाय नमः ॐ चक्राय नमः
ॐ गदायै नमः ॐ पद्यं नमः
ॐ पाशाय नमः ॐ कूटाय नमः
ॐ धनेश्वरे नमः ॐ श्राय नमः
संकल्प आत्मसात कर अब अपना अवरोध निवारण और शत्रु नाश की इच्छा व्यक्त करते हुए कृष्ण शक्ति माला से निम्न मंत्र की 3 माला 7 दिन तक जप करें।
नित्य मंत्र जप के बाद 3 दिन तक प्रातः राय मिला कर सुदर्शन कवच तथा आठों जीव चक्र को एक लाल कपड़े में बांध कर किसी नदी या तालाब में विसर्जित कर दें।
इस साधना विधि साधक कृष्णजन्माष्टमी की आधी रात में अपने सामने सर्वप्रथम एक बजोट पर पुष्प बिछाएं और उन पुष्पों की मध्य इच्छा पूतिं यंत्र स्थापित करें, कुंकुंम चन्दन अक्षर से पूजन करें, अपने सामने कृष्ण का एक स्वच्छ चित्र स्थापित करें, चित्र को कुंकुंम अक्षत से पूजन कर प्रसाद पंचामृत व अन्य नैवेद्य अर्पित करें, इच्छा सत्यापन यंत्रो के दोनों ओर एक गोमती चक्र स्थापित करें, तथा कुंकुंम से तिलक लगाएयें और दोनों हाथ जोड़ कर भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करें,
वामोर्ध्व-हस्ते वधतं, सर्वस्व-इच्छा पुट।
अक्षरमां च दक्षोर्ध्वे, स्फटिकी मातृका मयीम्।।
नाद ब्रह्म है, नीचे दो हाथ बांस बजाते हैं।
गाता हुआ पीला वसंत, श्याम कोमल आकृति।
वैहिवर्हा कृतोत्से, सभी वेदियों द्वारा सर्वज्ञ।
सर्व चेतन धारयामि उपासितं तिष्ठेद्वरिं सदा।।
ध्यान के बाद अष्ट शक्तियों का नाम उच्चारण करें-
ॐ लालमयै नमः, ॐ सरस्वतीयै नमः, ॐ रात्यै नमः, ॐ प्रीतियै नमः
ॐ कीत्यै नमः, ॐ कण्त्यै नमः, ॐ तुष्टयै नमः, ॐ पुष्यै नमः
ध्यान के ज्ञापन इच्छा सत्यापन ग्रंथ से निम्न मंत्र की 7 माला जप करें-
साधक के जीवन में जो भी इच्छा हो उसे किसी कागज पर लिखकर कर भगवान श्री कृष्ण जी के चित्र के नीचे रख दे, इस प्रकार यह साधना पूर्ण हो जाने पर साधक के जीवन की इच्छायें बेशक पूरी है व सभी पूजन सामग्री को किसी लाल कपडे़ में लॉकर मंदिर में रखें।
भगवान श्रीकृष्ण ने पूर्ण पुरुष और महामानव के रूप में धर्म पालन, आध्यात्मिक विचार, ज्ञान-विज्ञान, मैत्री, गुरू भक्ति, मातृ-पितृ सेवा, पत्नी प्रेम, स्त्री सम्मान व आदर, राजनीति, रण कौशल, विविध कला निर्देशता, असुरवृत्ति युक्त अत्याचारियों का शमन, मानव भावनाओं के सभी क्षेत्रों में आदर्श स्थापना का ज्ञान संपूर्ण जगत् को दिया।
अर्थात् ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य इन छह का नाम भग है, और ये भगवान के स्वरूप हैं। ऐश्वर्य- उस सर्व वशीकारिता शक्ति को कहते हैं, जो सभी पर सील रूप से अपना प्रभाव बना सकते हैं। धर्म-उसका नाम है, इससे सभी का मंगल और संकलन होता है। यश- अनन्त ब्रह्माण्डव्यापिनी मंगल कीर्ति है। श्री-ब्रह्माण्ड की समस्त मान्यता का जो एकमात्र मूल स्वरूप महान शक्ति है। ज्ञान-ज्ञान तो स्वयं भगवान का दिव्य स्वरूप ही है। वैराग्य- साम्राज्य, शक्ति, यश आदि में जो स्वाभाविक अनासक्ति है। सर्वकाल की समस्त वस्तुओं के साक्षात्कार को ज्ञानमय चौसठ कला कहते हैं।
श्री कृष्ण प्रकारान्तर से चौसठ कला युक्त है। इनमें से पचास तो उच्चभूमि पर स्थित दिष्ट में अधी की कृपा से जाग्रत होते हैं, विशेष इसके अतिरिक्त पांच गुण होते हैं, जो श्री रूद्र में होते हैं, पांच गुण श्रीपति में प्रकट होते हैं। यह चार ऐसे गुण हैं, सत्य पूर्ण प्राकट्य केवल मात्र में ही है। वे गुण हैं- लीला माधुरी, प्रेम माधुरी, रूप माधुरी और वेणु माधुरी इन चारों दिव्य गुणों के कारण ही वे मधुरातिमधुर हैं।
योगेश्वर कृष्णमय चौसठ कला चैतन्य दीक्षा धारण कर निश्चित रूप से जीवन के प्रत्येक सुखद शीशों को स्वयं में समाहित करते भौतिक सुखों को पूर्ण रूप से भोग पान। साथ ही कृष्णमय कला से जीवन शौर्य, प्रेम, मित्रता, सम्मोहन, आकर्षण, जीवन संग्राम वीरता, राजनीति, कला प्रवीण, वाक्पटु व छवि से युक्त महाभारत रूपी जीवन महासंग्राम में विजय प्राप्त कर सकते हैं। साथ ही धन-लक्ष्मी, भोग, आनंद, भौतिक समृद्धि, सम्मोहन, सौन्दर्य, तेज, आकर्षण, आरोग्यता, पूर्ण पौरूषता, भौतिक और आध्यात्मिक जीवन की चेतन प्राप्त होती हैं। इसी के अनुरूप योग व भोग दोनों को पूर्ण से ग्रहण कर सकता हूं।
प्राप्त करना अनिवार्य है गुरु दीक्षा किसी भी साधना को करने या किसी अन्य दीक्षा लेने से पहले पूज्य गुरुदेव से। कृपया संपर्क करें कैलाश सिद्धाश्रम, जोधपुर पूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन से संपन्न कर सकते हैं - ईमेल , Whatsapp, फ़ोन or सन्देश भेजे अभिषेक-ऊर्जावान और मंत्र-पवित्र साधना सामग्री और आगे मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए,