एक राजहंस उड़ता हुआ आकर एक कुएं की मेंड़ पर बैठा। कुएं में एक मेंढक रहता था। उसने राजहंस को देखकर पूछा, हे सुंदर पक्षी, तुम कहां से आये हो?
मैं मानसरोवर से आ रहा हूं, हंस ने जवाब दिया।
यह मानसरोवर क्या है? क्या वहां तुम्हारा निवास है? मेंढक ने फिर पूछा। राजहंस ने बताया कि हां, वहीं मेरा निवास है। मेंढक को कौतुहल हुआ, कितना बड़ा है तुम्हारा मानसरोवर? क्या मेरे इस घर (कुएं) से बड़ा है?
हां, इससे तो बहुत बड़ा है। ऐसे हजारों कुएं उसमें समा जाये, इतना बड़ा है। मेंढक नाराज हो गया। बोला, तुम झूठ बोल रहे हो। भला इस कुएं से बड़ा किसी का घर कैसे हो सकता है। मेरे घर से बड़ा तुम्हारा घर हो ही नहीं सकता। राजहंस ने समझाया, हे मेंढक! तू सदा कुएं में ही रहा। इससे बाहर कभी आया नहीं। इसलिए नहीं जानता कि यह संसार कितना बड़ा है। इस संसार में कितने बड़े-बड़े जलाशय है, नदियां है, समुद्र है। तूने वह सब देखा ही नहीं है।
कुएं में बैठा मेंढक यदि ऐसी गर्वोक्ति करे तो कोई आश्चर्य नहीं होता। जो नीचे रहने वाला है, छोटे में रहने वाला है, वह बहुत थोड़े में अंहकारी बन जाता है। अपने से ज्यादा बड़ा उसने कभी देखा ही नहीं, इसलिये उसमें अहंकार आ जाता है। जो बहुत बड़ी-बड़ी चीजें देख रहा है, इस दुनिया की विशालता का अनुभव कर रहा है, उसमें अहंकार नहीं आ पाता। एक कवि ने लिखा है, ऐसा कौन सा व्यक्ति है, जो अपने से छोटे जनों को देखकर अहंकार से नहीं भर जाये और ऐसा कौन सा व्यक्ति है, जो अपने से बड़ों को देखकर अपनी लघुता को नहीं महसूस करे।
अहंकार या अंधकार-दोनों मिलते-जुलते शब्द है। अहंकार से अधिक दुनिया में कोई अंधकार नहीं। जिस व्यक्ति में अहंकार होता है, समझिये वह सदा अंधकार में ही रहता है। उसके लिये कभी सूर्योदय होता ही नहीं। कभी दीपक जलता ही नहीं। अंधकारी आदमी की आँखें कभी नहीं खुलतीं। जिस व्यक्ति की आँखें ही नहीं खुलती, वह सूर्योदय हो जाये या दीया-बाती जल जाये- वह देख नहीं पाता।
पर हमेशा दो आंखों से देखना ही क्या देखना होता है? जब तक व्यक्ति की तीसरी आंख नहीं खुल जाती, विवेक के चक्षु नहीं खुल जाते, तब तब उसका देखना भी क्या देखना हुआ? दो आँखों से कोई सबकुछ तो नहीं देख पाता। दुनिया में दो तरह के अहंकार सबसे बड़े होते है। एक अहंकार है- ‘‘मै’’ और दूसरा अहंकार है-‘मेरा’। ‘मैं सबसे बड़ा अहंकार है। सब धर्म इस बात को स्वीकार करते है कि अहंकार से बड़ा कोई अंधकार है। सब धर्म इस बात को स्वीकार करते है कि अहंकार से बड़ा कोई अंधकार दुनिया में नहीं है। इसीलिये सब कहते है कि हम अंधकार से प्रकाश की ओर जायें। लेकिन यह भावना तब तक पूरी नहीं हो सकती, जब तक उसकी प्राप्ति का साधन ठीक नहीं हो, उसका उपाय ठीक न हो। भावना होना एक बात है और उपाय होना अलग बात है। कुछ लोग भावना रखते है, पर उपाय ठीक नहीं करते। इसलिये भावना सफल नहीं हो पाती।
तुम्हारे अंदर का ‘मैं’ या ‘अहं’ एक छोटा सा अणु है। यदि यह अणु शरीर या जड़-तत्व से जुड़ जाये तो अपनी पहचान कराता है। यदि यह अणु अपनी पहचान आत्मा से कर ले तो परम-आत्मा से भी उसकी पहचान हो जाती है। जब ‘अहं’ रूपी अणु भौतिक संसार से जुड़ता है तो सांसारिक हो जाता है। शरीर से जुड़ने पर यह दुःखी हो जाता है परंतु आत्मा से जुड़ने पर दिव्य हो जाता है। सत्ता या आत्मा से जुड़ जाने पर यह अणु शक्ति अर्थात् ऊर्जा बन जाता है। यही नही, एक विशाल अणु संधान केंद्र में एक छोटे से अणु द्वारा ही विस्फोट किया जाता है।
इस प्रकार हमारे संपूर्ण शरीर में ‘मैं’ का केवल एक छोटा सा अणु है। जब इसका विस्फोट होता है तब आत्मा स्वयं प्रकाशमान हो जाती है। हम प्रायः कहते है- मैं दुःखी हूं या मैं प्रसन्न हूं। इसलिये इस अणु की पहचान शरीर के धारणात्मक संसार से हटाकर असली संसार के साथ करो। जब तुम अपने को अच्छा समझते हो और सूक्ष्म स्तर पर दूसरों को बुरा समझते हो तब क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष तथा घृणा आदि मनोभाव आते है। जब तुम अपने को बुरा समझते हो तो तुम्हारा मन क्षुब्ध हो जाता है। ऐसी स्थिति में वही मनोभाव सबके प्रति क्रोध और द्वेष का कारण बनता है।
यदि तुम अपने को अच्छा समझते हो तो यह एक समस्या है। लेकिन जब तुम अपने को बुरा समझते हो तो यह तुम्हारे लिये एक बड़ी समस्या है। इसलिये स्वयं के प्रति धारणायें छोड़ दो। ‘अहं’ तन-मन में भारीपन और बेचैनी लाता है। यह प्रेम को उभरने नहीं देता है। सत्य का ज्ञान होने पर हम अहं से ऊपर उठ सकते है-यह प्रश्न करके कि मैं कौन हूँ?
अहंकारी व्यक्ति के लिये तुम प्रायः तिरस्कार तथा ईर्ष्या भाव रखते हो। लेकिन इसके बजाय तुम्हारे दिल में उसके प्रति गहरी सहानुभूति होनी चाहिये। अहंकार का एक सकारात्मक पहलू भी है जो तुम्हें काम करने के लिये सदैव प्रेरित करता है। प्रत्येक व्यक्ति किसी भी कार्य को प्रसन्नता, दया या अहंकार के साथ कर सकता है। समाज में अधिकतर काम अहंकार द्वारा होते है परन्तु सत्संग में प्रेम द्वारा कार्य सम्पन्न होते हैं।
अहं का दूरी है-अलगाव की भावना है। अहंकार कुछ सिद्ध करना चाहता है और अधिकार जताना चाहता है। जब तुम जाग्रत होकर यह कहते हो कि न तो कुछ सिद्ध करना है और न ही कुछ पाना है, तब अहंकार मिट जाता है। जब तुम लोगों से मिलते हो तो अपने दिमाग के स्तर पर उनसे संपर्क करते हो। जब तुम प्रकृति के साथ होते हो तो तुम गाने लगते हो अर्थात् प्रकृति के साथ तुम दिल से संपर्क करते हो। जब तुम गुरू के साथ होते हो तो खाली हो जाते हो। तब मौन में आत्मा के द्वारा संपर्क होता है।
जब तक कोई कार्यक्रम आयोजित न हो, शायद ही तुम लोगों के साथ गाते हो। तुम्हारा अहं तुम्हें गाने से रोकता है। जब तुम लोगों के साथ गाते हो, तब दिल या भावना के स्तर पर उतर आते हो। कुछ व्यक्ति संगीत सुनने में सहजता अनुभव करते है। कुछ मनुष्य एकांत में गाना पसंद करते है। कुछ व्यक्ति दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने या दूसरों को लुभाने के लिये गाते है। कुछ व्यक्ति तभी साथ गाना चाहते है जब अन्य लोग भी गा रहे हों। ये सभी गायन अहं से जुडे हुये है।
एक लोक कहानी है। सास ने बहू से कहा, ‘बहू रानी, आज मैं कहीं जा रही हूँ। तुम नई-नई आई हो। अपने घर का यह नियम है कि रात को अंधेरा नहीं रहना चाहिये। तुम ध्यान रखना, घर में अंधेरा न हो।’ बहू नई-नई और भोली थी। सास बाहर चली गई। संध्या हुई, अंधेरा होने लगा। बहू ने सारे दरवाजे और खिड़कियां बंद कर दीं। अंधेरा घना हो गया। वह हाथ में लाठी लेकर अंधेर को पीटने लगी। हाथ लहूलुहान हो गये, पर अंधेरा बना रहा।
जब सास आई तो बहू ने सिसकते हुये अपने घायल हाथ आगे कर दिये, मैंने तो अंधेर को बहुत रोका, सारी खिड़कियां और दरवाजे बंद कर दिये, फिर भी पता नहीं वह भीतर कैसे आ गया। उसके बाद उसे भगाने की भी बहुत कोशिश की, उसे लाठियों से भी पीटा, लेकिन वह गया ही नहीं। सास ने दियासिलाई ली और दो चार दिए जला दिए। एकदम प्रकाश हो गया। सास बोली ‘लाठी पीटने पर अंधकार नही जाता, अंधकार जाता है दीया जलाने से’
मुझे लगता है, हम लोग भी केवल लाठियां बजा-बजाकर अंधेरे को मिटाना चाहते हैं।
विराट की अनुभूति में ‘मैं’ की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है लेकिन इस अनुभव में मेरा-तेरा का भान नहीं होता। इसमें द्वैत सदा-सदा के लिये निरस्त हो जाता है। जिस अहंकार को हटाने के लिये कहा जाता है, उसमें अहं का अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। वहां मेरा और मैं परस्पर इतने मिले-जुले होते हैं कि दोनों का अस्तित्व एक हो जाता है। तभी तो जैसे ही ‘मेरा’ को कुछ होता है, ‘मैं’ बेचैन हो उठता है। ऐसा इसलिये होता है कि अहं तुच्छ है। इसका निर्माण संसार की विषय-वस्तुओं से मिलकर हुआ है।
सस्नेह
शोभा श्रीमाली
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