जीवन में कब किस मोड़ पर शत्रु मिल जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता। यह कोई जरूरी नहीं, कि जो आज मित्र है, वह कल भी मित्र ही हो, क्योंकि जो आज तुम्हारा गहरा मित्र है, उसका कल भी मित्र होना अनिश्चित है। यह सब तो समय का कुचक्र ही कहा जा सकता है, जहां एक पल में सुख है, तो दूसरे ही पल में दुःख भी है।
जीवन पग-पग पर परिवर्तनशील है, न जाने कब, कौन सी विकट परिस्थिति से गुजरना पड़ जाये? शत्रु तो हर मोड़ पर तैनात सैनिको की तरह खड़े रहते है हमला करने के लिये । उस अचानक प्रहार से व्यक्ति संकट में फंस जाता है और उस प्रहार को झेल नहीं पाता और ऐसी स्थिति में व्यक्ति निर्णय नहीं कर पाता कि अब वह क्या करे……. क्या नहीं करे?
मनुष्य के शत्रु एक नहीं, हजारों होते है, जब तक वह एक को परास्त करता है, तब तक दूसरा उस पर वार कर देता है, और इस सामाजिक संग्राम में युद्ध करते-करते उसकी शक्ति क्षीण होने लगती है, क्योंकि व्यक्ति इस जीवन रूपी संग्राम को अपनी शक्ति के बल पर नहीं जीत सकता, इसके लिये उसके पास दैविक बल होना आवश्यक है, मंत्रसिद्धि होना आवश्यक है।
महाभारत काल में श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ में यही कहा है, कि ‘हे अर्जुन! तुम युद्ध को शस्त्रों के माध्यम से नहीं जीत सकते, जब तक कि तुम्हारे पीछे दैविक बल नहीं होगा, जब तक कि तुम्हें मंत्रसिद्धि नहीं होगी, तब तक विजय नहीं हो सकती। इसलिये तुमने जो द्रोणाचार्य से मंत्रसिद्धि प्राप्त की है, उस मंत्रसिद्धि को स्मरण करते हुए गांडीव उठाओ, तभी तुम महाभारत-युद्ध को जीत सकोगे, केवल धनुष और तीर चलाने से ये दुर्याधन, दुःशासन जैसे पापी समाप्त नहीं हो सकते, उसके लिए द्रोणाचार्य ने तुम्हें तीर चलाना ही नहीं सिखाया, अपितु मंत्रशक्ति भी दी है।’
आये दिन के क्लेश यथा पति-पत्नी के आपसी झगड़े, रिश्तेदारों, भाई-बंधुओं में आपसी मतभेद ईर्ष्या, वैमनस्य, प्रतिस्पर्धा और द्वेष के कारण ही होते है, व्यक्ति का जीना दुष्कर हो जाता है, भाई-भाई का दुश्मन हो जाता है। इन आपसी मदभेदों के कारण ही शत्रु, व्यक्ति की उन्नति के रास्ते में बाधा उत्पन्न करने लगते है, जिनसे संघर्ष करता-करता व्यक्ति थक जाता है, इनसे मुक्त नहीं हो पाता। फलस्वरूप वह शारीरिक रूप से तो दुर्बल हो जाता है, साथ ही उसकी मानसिक शक्ति भी क्षीण हो जाती है और तब उसे एक ही मार्ग सूझता है, तरह-तरह के पंडे, ओझाओं के पास जाकर टोने-टोटके करवाना और इसमें वह हजारों रूपये भी बर्बाद कर डालता है, किन्तु उसे कोई लाभ प्राप्त नहीं हो पाता। दर-दर की ठोकरें खाने के बाद वह हताश-निराश होकर हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता है और अपने भाग्य को कोसने लगता है।
ऐसी स्थिति में ‘साधना’ एक एकमात्र ऐसा प्रबलतम शस्त्र है जिसके माध्यम से जीवन में समस्त शत्रुओं को परास्त कर जीवन के महासंग्राम में विजय प्राप्त की जा सकती है, और वह भी पूर्णता के साथ।
साधना, शक्ति का स्त्रोत है, जिससे व्यक्ति शारीरिक रूप से तो स्वस्थ और बलवान होता ही है, साथ ही मानसिक रूप से भी वह पूर्ण स्वस्थ और बलवान हो जाता है, क्योंकि उसे साधना का बल, ओज और तेजस्विता जो प्राप्त हो जाती है, जो उसे जीवन के हर क्षेत्र में विजयी बनाने में सहायक सिद्ध होती है।
यदि व्यक्ति के पास साधना का तेज, मंत्र-बल हो, तो वह पराजित हो ही नहीं सकता, और यदि उसे उस अद्भुत एवं गोपनीय ‘दुर्गा रहस्य’ का भली प्रकार ज्ञान हो, तो कोई दूसरी शक्ति ऐसी है ही नहीं, जो उसे परास्त कर सके। ‘दुर्गा रहस्य’ से अपने जीवन में आने वाले हर शत्रु को, हर बाधा को, हर अड़चन को हमेशा-हमेशा के लिए दूर किया जा सकता है, फिर किसी टोने-टोटके की या तांत्रिक प्रयोग की आवश्यकता शेष नहीं रह जाती, फिर उसे हर प्रकार के डर, भय से छुटकारा मिल जाता है, क्योंकि इस दुर्गा रहस्य को जानने के बाद उसे ऐसा महसूस होने लगता है, मानो कोई शक्ति हर क्षण उसके साथ है और उसकी सहायता कर रही है। वह अपने आप को सुरक्षित और निर्भय अनुभव करने लगता है और उस शक्ति के माध्यम से ही उसमें दृढ़ता और विश्वास का जागरण होता है, जिसके फलस्वरूप उसमें शत्रुओं को परास्त करने की क्षमता स्वतः ही आने लगती है…. लेकिन यह तभी संभव हो सकता है जब उसे हर रहस्य का पूर्ण ज्ञान हो और इसके प्रति पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो।
10. जप के बाद उस यंत्र को खोलकर दोनों हाथों में रख लें और ‘उस यंत्र में निहित शक्ति मेरे अन्दर समाहित हो रहीं है, ऐसा भाव हृदय में लाकर दो मिनट तक यंत्र पर त्राटक करें।
इसके बाद निम्न मंत्र का 11 बार उच्चारण करें-
शक्ति की आराधना प्रागैतिहासिक काल अर्थात् ऋग्वेद के समय उपादेय रही है, आज भी अविच्छिन्न इसकी उपयोगिता सिद्ध है। शक्ति के बिना व्यक्ति को शव माना जाता है। इस साधना से साधक शक्तिपुंज बने, शक्ति का अजस्र प्रवाह उसके रोम-रोम में समाये, अद्वितीय व्यक्तित्व का वह स्वामी बने, तभी वह शत्रुओं पर वज्र की तरह प्रहार करने में सक्षम हो सकता है।
इसके बाद निम्न मंत्र का 11 बार उच्चारण करें-
इसके बाद निम्न मंत्र का 11 बार उच्चारण करें-
अर्थात् ‘हे भगवती दुर्गे!आप मंगल स्वरूपा है, समस्त भक्तों का कल्याण करने वाली है, मैं आपकी शरण में हूं आप मेरी रक्षा करें।’
यह दुर्गा रहस्य निश्चित ही साधक के सौभाग्य को जाग्रत करने वाला और शत्रु विनाश के लिये पूर्णतया लाभदायक माना जाता है। यह अद्वितीय एवं नवीन प्रयोग है, जो बाण की तरह अचूक है और लक्ष्य सिद्धि के लिये प्रसिद्ध माना गया है।
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