जीवन की सार्थकता के लिये एक और गुण है, प्रमाणिकता। जो दूसरे का द्रव्य हो, दूसरे की वस्तु हो या दूसरों की कृति या उपलब्धि हो, उसका स्वयं ही स्वामी बन बैठना अप्रमाणिकता है। अतः अपने कर्त्तव्य का सही ढंग से पालन करना ही प्रमाणिकता है।
मानव जीवन बहुमूल्य है। अतः इसे सार्थक बनाने का प्रयत्न सभी को करना चाहिये। जीवन की सार्थकता आध्यात्मिकता, नम्रता एवं प्रमाणिकता से सिद्ध होती है। धर्म वह है जो सबको धारण करता है। लोक सुधारना या परलोक या दोनों ही तो धर्म का अनुपालन आवश्यक है। यही सच्चा साथी है। मृत्यु होती है तो सगे-संबंधी, धन-संपत्ति, मकान-दुकान सब कुछ यहीं छूट जाता है। कुछ भी साथ नहीं जाता, जाता है तो केवल धर्म ही साथ जाता है। संसार दुखः रूप है। भौतिकता हमें भुलाये रखती है। संसार अंधकार से भरे हुये अंधकूप की तरह है। शरीर भी नाना प्रकार के रोगो-दोषों से भरा हुआ और नश्वर है। अतः संसार में न फंसकर अपने आत्म-कल्याण का साधन कर लेना चाहिये।
हमारा शरीर पंचतत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) से निर्मित है। जीवन भी इसी से चलता है और इन पंचतत्त्वों के बिना जगत की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती। अतः जगत और जीवन एक दूसरे के पूरक हैं। हमें परमात्मा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहिये, जिन्होंने हमें एक स्वस्थ शरीर देकर दुर्लभ प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण इस जगत में हमें भेजा। प्रभु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का सबसे सरल उपाय है कि हम पर्यावरण को मानव जीवन के लिये उपयोगी बनाये रखे।
प्रकृति परमात्मा की बनाई हुई है और मानव भी प्रभु की अनुपम कृति है। प्रकृति और मानव की सेवा को ही यदि हम पूजा मानकर आचरण में लाय तो हम अधिकांश लोगों के प्रिय बनने के साथ ही प्रभु के निकट भी होंगे, क्योंकि परमात्मा को भी अपने द्वारा रचित प्रकृति और अपनी अनुपम कृति मानव सर्वप्रिय है। यह सिद्धांत की बात है कि जो हमारी सबसे प्रिय वस्तु से प्रेम करता है वह हमारा सबसे प्रिय होता है। जगत और प्रकृति मानव इन दोनों से पोषित है। मानव जीवन का अस्तित्व भी इन्हीं पर निर्भर है।
मानव के बिना जगत की कोई उपयोगिता नहीं और जगत के बिना मानव का कोई अर्थ नहीं। अन्योन्याश्रित संबंध है जीवन और जगत का। अखिल ब्रह्माण्ड के स्वामी, जगन्नियंता प्रभु के निकट हम तभी होंगे जब इन दोनों की सेवा और रक्षा करेंगे। केवल अपने लिये ही जीने में कोई विशेष बात नहीं, महत्त्वपूर्ण यह है कि हमारे शरीर और संसाधनों में कितनों को सहायता मिली और लाभ हुआ। यह बात यदि हम ईमानदारी से अमल में लाये तो निश्चित रूप से हमारा समाज और राष्ट्र सुखी एवं समृद्धिशाली होगा। संपूर्ण समाज को यदि हम अपना परिवार मानेंगे और आत्मीयता का व्यवहार करेंगे तो अपनत्व का विस्तार होगा। लोगों के दुःख-दर्द बांटने में हमारी भागीदारी होगी। परस्पर प्रेम और सहयोग की भावना बढ़ेगी। सर्वत्र सुख का वातावरण होगा।
वास्तव में धर्म ही है, जिसके आधार पर मानव और पशु में भेद किया जा सकता है। आहार, निद्रा, भय आदि मनुष्यों और पशुओं दोनों में ही सक्रिय रहते हैं, पर मानव में धर्म की विषेशता है, जबकि पशुओं के लिये धर्माचरण असंभव है। अतः मानव धर्माचरण करे तो कल्याण अवश्य होगा। धर्म-पालन जीवन की सार्थकता है। मनुष्य का एक और बड़ा उत्तम गुण है नम्रता। इसका विपरीत है- अहंकार जो बहुत बड़ा दोष है। बुद्धिमान व्यक्ति धनी और विद्वान बन जाने पर विनम्र बन जाता है। यदि कोई व्यक्ति गुण और विद्या में कुछ कम भी हो पर यदि वह विनम्र हो तो लोग उसे अधिक मान देते हैं। नम्रता का व्यवहार सभी को प्रिय लगता है। जीवन की सार्थकता के लिये एक और गुण है, प्रामाणिकता। जो दूसरे का द्रव्य हो, दूसरे की वस्तु हो या दूसरों की कृति या उपलब्धि हो, उसका स्वयं ही स्वामी बन बैठना अप्रमाणिकता है। अतः अपने कर्त्तव्य का सही ढंग से पालन करना ही प्रमाणिकता है।
जीवन की सार्थकता प्रमाणिकता में है। कुछ लोग मिथ्यावादी होते हैं, लोगों को उलटा समझा देते हैं, अपने ऊपर झूठा विश्वास दिला देते हैं, दूसरे के धन को हर लेते हैं, वस्तुओं को जिस किसी तरह से ले लेते हैं इस प्रकार अनैतिक और शास्त्र विरुद्ध कार्य करते हैं। यह सब अप्रमाणिक है। इसी तरह यह भी अस्वाभाविक है कि जिन मूल्यों और सिद्धांतों का प्रचार किया जाये उनका पालन स्वयं न किया जाये। जिन मूल्यों को औरों के लिये उपयोगी बताया जाये उन्हें सबसे पहले अपने द्वारा अपनाया जाना चाहिये। प्रभु को प्रमाणिकता पसंद है। प्रमाणिक मनुष्य से वे प्रसन्न रहते हैं। लोग भी प्रमाणिक मनुष्यों पर विश्वास करते हैं। उन्हें आदर देते हैं, उन पर प्रेम रखते हैं। अतः जीवन को सार्थक रूप देने के लिये धर्माचरण, विनम्रता को अपने अंदर समाविष्ट एवं प्रतिष्ठित करने का प्रयास करना चाहिये।
हम परमात्मा से तो अपने लिये सुख-शांति की प्रार्थना और अपेक्षा करते हैं किंतु खुद पीछे हट जाते है। जबकि प्रभु भी यही चाहते हैं कि मानव, मानव के द्वारा ही सुखी रहे। इस जगत के संसाधनों को प्रभु ने हमें अपने भरण-पोषण के लिये तो सौंपा ही है, साथ ही इसके समुचित रखरखाव का दायित्व भी सौंपा है। यह भी प्रभु का ही कार्य है। वैसे देखा जाये तो मानव शरीर का सीधा संबंध इस जगत से है अतः मनुष्य का नैतिक दायित्व भी हो जाता है कि परमात्मा द्वारा प्रदत्त इस जगत और सृष्टि एवं इसमें रहने वाले लोगों के लिये सदैव अनुकूलता बनी रहे। सेवा ही पूजा है, इस भावना को जब हम आत्मसात करेंगे तो निश्चित रूप से प्रेम का विस्तार होगा और राग-द्वेष नष्ट होंगे। जगतवासियों से प्रभु यही चाहते हैं।
मनुष्य-जीवन को गंवाने वालों के लिये अनुताप के सिवाय शेष कुछ भी नहीं बचता। व्यक्ति का हित और विवेक इसी में सुरक्षित है कि वह मनुष्य-जीवन की दुर्लभता और विशिष्टता को समझकर उसके एक-एक क्षण को सफल बनाये। मनुष्य-जीवन की सार्थकता के लिये यह अत्यंत आवश्यक है कि व्यक्ति में हेय और उपादेय का विवेक जागे। मनुष्य-जीवन वह सुदृढ़ आधार है
जिस पर आत्मा अपने चरम लक्ष्य परमात्मा को प्राप्त कर सकती है। वह अपना सर्वोच्च अभ्युदय कर सकती है। विवेक के जाग्रत होने पर व्यक्ति अच्छाइयों का संग्रह करता चला जाता है और बुराइयों का विसर्जन। इसलिये यह अत्यंत अपेक्षित है कि व्यक्ति अपनी हंस-मनीषा को जगाये।
इस संसार में एक से बढ़कर एक आश्चर्यजनक एवं दुर्लभ वस्तुये हैं। लेकिन मानव-जीवन के समान आश्चर्यजनक और दुर्लभ वस्तु कोई भी नहीं है। ऐसा इसलिये है कि मनुष्य संसार के समस्त आश्चर्यों का केंद्र और जनक है। वह विभिन्न वस्तुओं का निर्माण अपनी प्रतिभा से कर सकता है।
मनुष्य-जीवन की विशेषता उसकी स्वतंत्रता है। शेष भोग योनियां हैं, यहां तक कि देव योनि भी। मनुष्य योनि भोग योनि के साथ ही कर्म योनि भी है। इसी अर्थ में मनुष्य कर्म करने में पूर्णतया स्वतंत्र है। वह चाहे तो स्वयं को संपूर्ण जगत के अस्तित्व के रूप में विकसित कर सकता है। दूसरी तरफ उसकी गति रसातल की ओर भी संभव है। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह इस सुअवसर का लाभ उठाये। जो कार्य वह किसी अन्य योनि में नही कर सकता; उसे सिर्फ मनुष्य योनि में ही कर सकता है। यही उसके जीवन की सार्थकता है।