उदासी आती है, स्वाभाविक है। क्योंकि हम एक ढंग से जी रहे है। उसी ढंग से हमने अपना अब तक का जीवन बिताया, अपना समय लगाया, अपनी ऊर्जा लगाई। जीवन बहुमूल्य है, उसे हमने एक दांव पर लगाया। आज अचानक पता लगे कि वह दांव व्यर्थ था, वहां हारने के सिवाय जीतने की कोई सुविधा नहीं थी, हम धोखे में थे, तो उदासी आनी स्वाभाविक है। लेकिन जितनी जल्दी यह उदासी आ जाये, उतना शुभ। सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाये तो भूला नहीं कहा जाता। मरने के एक क्षण पहले भी अगर यह दिखाई पड़ जाये कि जो जीवन हमने जीया वह व्यर्थ था, तो उस शेष एक क्षण में भी परमात्मा उपलब्ध हो सकता है। परमात्मा को पाने के लिये समय की थोड़े ही जरूरत है, दृष्टि के बदलाहट की जरूरत है। जो दृष्टि बाहर देख रही थी, वह भीतर देख ले, बस।
बाहर का व्यर्थ होगा तभी तो तुम भीतर देखोगे। जब तक बाहर तुम्हें सार्थक मालूम हो रहा है, तब तक भीतर तुम जाओंगे क्यो? कंकड़-पत्थरों में हीरे मालूम हो रहे है तो तुम कंकड़-पत्थर बीनोगे। अगर बाहर सब कंकड़-पत्थर है, फिर क्या करोगे? फिर भीतर जाना ही होगा! और जब जाना ही होता है, तभी लोग जाते है। जब सब तरफ से हार जाते है, तभी लोग जाते है। पराजय पूरी होनी चाहिये। उदासी समग्र होनी चाहिये। इसी उदासी से आनंद का जन्म होता है।
यहां सब व्यर्थ हो जाता है। तुमने धन कमाया, वह भी एक दिन व्यर्थ हो जायेगा। जितनी जल्दी समझ में आ जाये, उतना अच्छा। तुमने यहां प्रेम किया, वह भी उखड़ जायेगा। वह भी टूट जायेगा। जिनसे तुमने प्रेम किया वे भी मरणधर्मा हैं। तुम भी मरणधर्मा हो। यहां के नाते नदी-नाव संयोग है। क्षणभंगुर के है। थोड़ी देर टिकते है, पानी के बबूले। पानी केरा बुदबुदा! कितनी देर टिकेगा? जब तक है तब तक हो सकता है सूरज की रोशनी में चमके, इंद्रधनुष दिखाई पड़े पानी के बुलबुले में, लेकिन कितनी देर? टूटने को हो ही है। टूटना सुनिश्चित है। उसके होने में टूटना छिपा है। यहां सपने तुमने देखे है- प्रेम के, पद के प्रतिष्ठा के-वे सब उखड़ जायेंगे।
मेरी बाते सुन कर उदासी आये, यह शुभ लक्षण है। इसके बाद दूसरी घटना भी घटेगी-अगर पहली घटना घट जाने दी तो दूसरी घटना भी घटेगी-आनंद का आविर्भाव भी होगा।
दूर-दूर से मुस्कराते फूलों को देखते रहोगे तो धोखा खाते रहोगे। पास से, निकट से देख लेना। इसलिये मैं जीवन में भाग जाने को नहीं कहता हूँ। क्योंकि भाग जाओगे तो जागोगे कैसे? हिमालय की गुफाओं में बैठ जाओगे तो जागोगे कैसे? यह जीवन इतना दुःखपूर्ण है, इतना व्यर्थ है, इतना असार है कि अगर इसके बीच में रहे, तो आज नही कल जागोगे ही। सोओगे कैसे? बीच बाजार में सो रहे हो, नींद टूट ही जायेगी। हां। गुफा में बैठ गये हिमालय की तो शायद नींद लगी भी रह जाये।
इसलिये मैं कहता हूँ छोड़ कर मत जाना। जहां हो, वहीं रहो। जैसे हो, वैसे ही रहो-दुकान में, बाजार में, परिवार में। क्योंकि यह जो शोरगुल है चारो तरफ, यही तुम्हें जगायेगा। इसकी व्यर्थता तुम्हें जगाऐगी। इससे दूर हट गये तो इसकी व्यर्थता का कांटा चुभेगा नहीं। फिर तुम सपनों में खो जा सकते हो। हिमालय की गुफाओं में बैठे लोग अक्सर भ्रांतियों में पड़ जाते है। मन की कल्पनाओं में खो जाते है। मन की कल्पनायें-फिर तुम जो चाहो कर लो। कृष्ण को बांसुरी बजाता हुआ देखना हो तो कृष्ण को बांसुरी बजाते देखो। और राम को धनुषबाण लिये देखना हो तो राम को धनुषबाण लिये देखो। फिर तुम मुक्त हो। तुम्हारी कल्पना मुक्त है। तुम जो लड्डू खाना चाहो कल्पना के, खा लो।
लेकिन असली सत्य यहां घटता है, जगत में घटता है। चोट यहां है, व्यर्थ यहां है, तो सार्थक भी यहीं छिपेगा, यही मिलेगा, यही खोजना होगा। इस उदासी से घबरा मत जातना। इस उदासी को मिटाने की चेष्टा में मत लग जाना। यह उदासी मंदिर है। इसी में परमात्मा का आरोपण होगा। यह उदासी ही तो वैराग्य का सूत्र है। इसी से तो परमात्मा का राग जागेगा। संसार में राग टूटे, तो परमात्मा से राग जुड़ें।
जब तक संसार से राग है, परमात्मा से विराग है। जब तक संसार में रस है, तब तक परमात्मा से तुम विरस रहोगे। जब तक आंखे संसार पर लगी है, तुम संसार को सन्मुख किये हो, परमात्मा से विमुख रहोगे। जैसे ही मुड़े संसार से, फिर और कोई बचता नहीं, यहां दो ही तो है-एक बाहर है और एक भीतर है, एक चैतन्य है और एक पदार्थ है। एक व्यर्थ है और एक सार है। व्यर्थ से मुड़े कि सार से जुड़े। संसार से विमुख हुये कि परमात्मा के सन्मुख हुये।
अभी सब अंधेरा हो गया है, घबराओं मत, इसी अंधेरे से आदमी रोशनी की तरफ पहुंचता है। झूठे दीये बुझ गये तो अंधेरा हो जाता है। लेकिन इसी अंधेर में अगर तुम बैठे रहे, बैठे रहे, तो सच्चे दीये जलेंगे। निश्चित जलते है। सच्चे दीये जल ही रहे है, लेकिन तुम्हारी आँखो की आदत झूठे दीयों को पहचानने की हो गई है, इसलिये थोडी देर लगती है। तुमने देखा नहीं, बाहर रोशनी में से आते हो घर लौट कर तो घर में अंधेरा मालूम होता है। थोड़ी देर बैठे कि फिर अंधेरा नहीं मालूम होता। बाहर की रोशनी के आदी हो गये, घर लौटे तो आँखो को नया समायोजन करना पड़ता है। आँखों को बदलाहट करनी पड़ती है। थोड़ा समय लगता है। बैठ गये, थोड़े सुस्ता लिये, आराम किये, फिर घर में रोशनी दिखाई पड़ने लगती है।
ऐसे ही तुम जन्मों-जन्मों तक बाहर रहे हो, अपने घर के बाहर रहे हो, आंखे बाहर के लिये बिलकुल ही राजी हो गई है, परिचित हो गई है, भीतर तुम गये नहीं जन्मों-जन्मों से, घर तुम लौटे नहीं जन्मों-जन्मों से, जब पहली दफा लौटोगे, सब अंधेरा हो जायेगा। घबराना मत। इस अंधरे में ही गुरू की सहायता की जरूरत ही है कि वह तुम्हें सम्भाले रखे। तुम्हारा तो मन कहेगा, बाहर चलो, वहां रोशनी तो थी कम से कम। कुछ आशा थी, कुछ भविष्य था, कुछ रस था, जीने का कोई बहाना और उपाय था। यहां तो कोई जीने का बहाना भी नहीं और उपाय भी नहीं। यहां करना क्या है? उठों, बाहर चलो। मन तो कहेगा, दौड़ो, फिर जगा लो अपने पुराने सपने, फिर फैला दो सपनों का विस्तार।
संसार से उदास हो जाओंगे, इतना ही मत देखो, यह आधी कहानी है। इसी के पीछे उठ रहा है दूसरा हिस्सा कहानी का कि परमात्मा की आशा जागेगी, संसार की आशा गिरेगी, परमात्मा की आशा जगेगी और एक बार संसार की याद दिल से चली गई तो फिर परमात्मा को भुलाने का उपाय नहीं। फिर कैसे भूलोगे? फिर उसके सिवाय कुछ बचता नहीं- जागो तो उसमें जागोगे, सोओ तो उसमें सोओगे, उठो तो उसमें उठोगे, बैठो तो उसमें बैठोगे, जीओ तो उसमें जीओगे, मरो तो उसमें मरोगे, फिर सब तरफ से वही है।
तुम नये-नये आये होंगे, तुम मुझे सुन कर उदास हो गये हो। तुम यहां और लोगों को भी देखते हो जो सुन कर मुझे आनंदित हो रहे है? जब वे भी पहली-पहली बार आये थे, तो वे भी उदास हुये थे। जब पहली-पहली बार वे भी आये थे, तो वे भी नाराज हुये थे। जब पहली-पहली बार वे भी आये थे, तो उनको भी चोटे लगी थी, जख्म हुये थे। अब वे ही जख्म फूल बन गये है। अब वे ही चोटें जागरण बन गई है। अब उदासी नहीं है, अब चित्त उनका मगन है। वह बड़े आनंद में है।
लोग ठीक ही कहते है। तुम पागल हो गये हो। प्रेम पागलपन है। पर जिसने प्रेम जाना, उसके लिये सिर्फ प्रेम ही समझदारी रह जाती है। जिन्होंने प्रेम नहीं जाना, उनके लिये प्रेम पागलपन है। उन्होंने स्वाद ही नहीं चखा उस बात का। उन्हें धन पागलपन नहीं है, पद पागलपन नहीं है, प्रेम पागलपन है। जिन्होंने प्रेम चखा, उनके लिये धन पागलपन है, पद पागलपन है, उन्हें सब पागलपन है, सिर्फ प्रेम ही एकमात्र बुद्धिमानी है।
लेकिन लोग भी ठीक ही कहते है। लोग अपने ही हिसाब से तो कहेंगे न! लोग तुम्हारे हिसाब से कैसे कहे? लोगों को लगता है कि तुम कुछ डगमगा गये। क्योंकि लोगों को लगता है, जैसे वे चल रहे है, तुम अब वैसे नही चल रहे। तुमने लोगों से अपना ढंग अलग कर लिया। तुम्हें आनंद आ रहा है। तुम मगन हो रहे हो। मगर लोगों को लग रहा है कि तुम बेढंग पर जा रहे हो।
भीड़ चाहती है कि सदा तुम भीड़ के साथ राजी रहो। भीड़ तुम्हें स्वतंत्रता नहीं देना चाहती। भीड़ व्यक्ति को बर्दाश्त नहीं करती। भीड़ व्यक्ति की हत्या करती है, व्यक्ति को बिल्कुल मिटा देना चाहती है। भीड़ की एक ही कला है कि तुम्हें पोंछ दे, मिटा दे। तुम तुम्हारी तरह न रहो, तुम्हारे भीतर भीड़ प्रवेश कर जाये। तुम भीड़ की भाषा बोलो, भीड़ के सिद्धांत मानो, भीड़ का शास्त्र दोहराओं, भीड़ जो कहे वैसा करो, भीड़ जैसा चलाये वैसा चलो। भीड़ जो करे वही करो।
लोग भीड़ में सम्मिलित हो जाने के लिये उत्सुक भी होते है। कारण है कई। एक तो जितना तुम भीड़ के साथ हो जाते हो, उतनी ही तुम्हारी चिंता कम हो जाती है। तुम्हारा जिम्मेदारी का भाव, तुम्हारा उत्तरदायित्व का भाव कम हो जाता है।
भीड़ में तुम परमात्मा से दूर हो जाते हो और पशु के करीब हो जाते हो। अकेले में जितने तुम व्यक्ति होते हो उतने ही तुम परमात्मा के करीब होते हो। क्योंकि उतना ही अंतःकरण उतना ही विचार, उतना ही ध्यान सजग होता है। तुम एक-एक कदम सोच कर उठाते हो कि मैं जिम्मेवार हूँ, यह मंदिर जलाऊं? इस दूध पीते बच्चे को मारू? इसने क्या बिगाड़ा है? इसे कुछ पता भी नहीं है। यह हिंदू है कि मुसलमान है, इसका भी पता नहीं है, इसे मैं मारू? अकेले तुम पाप पुण्य करने चलोगे, कुछ सोचना ही पड़ेगा। बड़े से बड़ा पापी भी विचार करता है। लेकिन भीड़ के साथ पाप पुण्य हो जाता है। मजे से कर सकते हो और रात आकर निश्चिंत सो सकते हो। उत्तरदायित्व से मुक्ति मिल जाती है भीड़ में।
भीड़ में जब कोई बात होती है तो कोई जिम्मेवार नहीं होता। हर आदमी अपनी जिम्मेवारी दूसरे पर टाल देता है। जिम्मेवारी के लिये कोई राजी नहीं होता है कि मैं जिम्मेवार हूँ। जिन्होंने एटमबम बनाया, उन्होंने भी जिम्मेवारी अनुभव नहीं की। उन्होंने कहा, हम तो सिर्फ विज्ञान की खोज कर रहे है। हमने इसलिये थोड़े ही बनाया था कि तुम लोगों को मारो। हमने तो बड़ी भारी खोज की है। उन्होंने अनुभव नहीं किया कि हमारी कोई जिम्मेवारी है।
भीड़ में लोग सम्मिलित होना चाहते है, क्योंकि आत्मा को खोने का सबसे सुगम उपाय है। और भीड़ भी चाहती है कि तुम भीड़ में रहो, क्योंकि भीड़ का बल उसकी संख्या में है। जब तुम अकेले-अकेले चलने लगोगे, जब तुम व्यक्ति बनोगे-और वही संन्यास का अर्थ है, कि तुम अब अपने अंतःकरण से जीओगे, अब तुम्हें जो ठीक लगता है वह तुम करोगे, नहीं कि भीड़ कहती है कि ठीक है, अब तुम अपना निर्णय स्वयं लोगे, अपने पाप-पुण्य के लिये स्वयं जिम्मेवार होओगे, अब तुम किसी पर टालोगे नहीं- तो निश्चित ही लोग कहेंगे कि तुम पागल हो रहे हो।
तो भीड़ तुमसे कहेगी कि तुम पागल हो गये हो। तुम्हारा रंग-ढंग समझ में न आयेगा। भीड़ ठीक ही कहती है। मगर यह पागलपन इस जगत में सबसे बुद्धिमता है। बुद्ध को भी भीड़ ने कहा था, पागल हो गये! कबीर को भी भीड़ ने कहा था, पागल हो गये। तुम सौभाग्यशाली हो कि भीड़ तुमको भी पागल कह रही है। इस पागलपन को कष्ट मत समझना। इसे भीड़ की तरफ से तुम्हारे व्यक्तित्व का सम्मान समझना।
तुम भी ठीक हो और लोग भी ठीक है। अपनी-अपनी दृष्टि! अपने-अपने ढंग! उन्हें तो कैसे पता चले कि तुम कुछ पा गये हो? उन्हें तो तुम्हारे अंतस्तल में प्रवेश का कोई उपाय नहीं है। वे तो कैसे तुम्हारे भीतर झांके? वहां तो अकेले तुम हो। वहां तो तुम देख सकते हो, या मैं देख सकता हूँ तुम्हारे भीतर। तुम ठीक कह रहे हो। संपति तुम्हें मिलनी शुरू हो गई है। तुम संपदा के मार्ग पर हो। तुम्हें अंतर का राज्य धीरे-धीरे उपलब्ध हुआ जा रहा है। पहले कदम उठ चुके है, बीज बो दिये गये है, फसल भी समय पर आ जायेगी। तुम ठीक दिशा में यात्रा कर रहे हो। लेकिन भीड़ से तुम दूर जा रहे हो। भीड़ पागल कहेगी। इससे तुम चिंता मत लेना। अन्यथा चिंता के कारण तुम्हारी अंतर्यात्रा में बाधा पड़ जायेगी। इसे तुम निंदा भी न समझना। भीड़ को कहने देना। तुम इसका उत्तर देने में भी मत पड़ना। तुम हंसना। जब भीड़ पागल ही मानती है तो अब तुम काहे को फिकर कर रहे थे? भीड़ कुछ कहे, तुम हंसना। तुम धन्यवाद देना। अब जब पालग ही हो गये हो तो पूरे ही पागल हो जाना उचित है। अब तुम समझदारी सिद्ध करने की कोशिश मत करना। क्योंकि उससे भीड़ तो राजी नहीं होगी, तुम्हारी अंतर्यात्रा में अड़चने आ जायेंगी। तुम अब बुद्धिमानी छोड़ो। तुम्हें बुद्धिमानी से ज्यादा बड़ी बुद्धिमानी हाथ लग गई है। तुम्हें प्रेम का रास्ता पकड़ में आ गया है।
तुम्हें खयाल है, इस देश के पास एक शब्द है परमात्मा के लिये जो दुनिया की किसी भाषा में नहीं है-हरि। हरि का अर्थ होता हैः चोर। हर ले जो, चुरा ले जाये जो। परमात्मा सबसे बड़ा चोर है।
अब तुम नाराज मत हो जाना कि मैंने परमात्मा को चोर कह दिया! अब तुम सोचने मत लगना कि इस आदमी के झांसे में नही आना है! यह तो हद हो गई, परमात्मा और चोर!
लेकिन परमात्मा चोर है, मैं क्या करूं? सच को तो कहना ही होगा। तुम झांसे में आओ कि न आओ, मगर सच को तो सच जैसा है वैसा कहना होगा। परमात्मा चुराता है इस ढंग से जिस ढंग से कोई अंधेरी रात में, कब परमात्मा तुम्हारे द्वार-दरवाजे को तोड़ कर भीतर आ जाता है, कुछ कहा नहीं जा सकता। तुम सोए ही रहते हो चोर चले जाते है।
रेगिस्तान में, जहां सब तरफ मरूस्थल होता है, कहीं छोटे-मोटे मरूद्यान होते है। सारा मरूस्थल मरूद्यान को पागल समझता होगा। क्योंकि भीड़ तो मरूस्थल की है, विस्तार तो मरूस्थल का है, उसमें कहीं एक छोटा सा पानी का चश्मा है, दो-चार वृक्ष ऊग आये है, थोड़ी हरी घास भी लगती है, मरूस्थल कहता होगा कि यह स्थान पागल हो गया। स्वाभाविक है मरूस्थल का यह कहना। यह मरूस्थल को कहना ही पड़ेगा, नहीं तो मरूस्थल को बड़ी आत्मगलानी होगी। अगर मरूस्थल यह माने कि यही सही होने का ढंग है-हरा होना, फूल से भरा होना, नाचते हुये होना, मस्त होना, प्रभु के प्रेम में डूबा हुआ होना-अगर यही होने का ठीक-ठीक ढंग है, तो फिर मैं क्या कर रहा हूं? तो मेरा होने का ढंग गलत है।
अगर तुम अंधों की दुनिया में पहुँच जाओं तो अपनी आंखो की घोषणा मत करना, अन्यथा वे तुम्हारी आँखे निकाल लेंगे। क्योंकि अंधे बर्दाश्त न कर सकेंगे कि तुम आँख वाले हो। तुम्हारी आँखे उनको उनके अंधेपन की याद दिलाएंगी।
यह जो जीवन का वंसत है, यह जो परमात्मा का वसंत है, यह एक साथ नहीं आता-किसी के हृदय में आ जाता है, और बाकी सबके हृदय पतझड़ में होते है। किसी का फूल खिल जाता है, और सब तरफ कांटे ही कांटे होते है। कांटे नाराज हो जाते है। कांटे बदला लेते है। कांटे ईर्ष्या से भर जाते है।
लोग पागल कहते है, वे अपनी आत्मरक्षा में कहते है। उनकी तुम चिंता मत करना। वे यह कह रहे है कि हम पागल नहीं है। जब वे तुमसे कहते है कि तुम पागल हो, तो वे इतना ही कहना चाह रहे है कि हम पागल नहीं है। इतने लोग पागल नहीं हो सकते।
दूसरे लोगों और तुम्हारे बीच खाई पड़ जायेगी। तुम न तो नाराज होना, न चिंता करना। न जवाब देने जाना। तुम अपनी मस्ती में रहना। यह समय खराब करना ही मत। उत्तर देने की भी कोई जरूरत नहीं है, तर्क करने की भी कोई जरूरत नहीं है।
तब तक जिंदगी रूखी-सुखी है, तब तक जिंदगी मरूस्थल है, जब तक प्रेम का झरना न फूटे। इन रूखे-सुखे लोगो के बीच जब तुम्हारे पल्लव फूटेंगे, तुम हरे होओगे, तो इनकी नाराजगी समझ लेना। कबीर ने तो इसीलियिे कहा है कि अपने पत्तों को छिपा लेना। हीरा मिल्यो गांठ गठियायो, वाको बार-बार क्यों खोले? बताना ही मत किसी को, नहीं तो लोग एकदम नाराज हो जायेंगे। किसी को कहना ही मत कि मुझे मिल गया है।
सब कल्पनायें चली जाती है, सब स्वप्न चले जाते है, सब विचार चले जाते है, बस एक धुन गूंजती रह जाती है। उस धुन का नाम भजन है। उस धुन के अतिरिक्त जो भी किया जाता है, सब यजंन है उसका कोई मूल्य नहीं है।
ऐसा था कि न तो बुलबुल बोलती थी, न कोयल गीत गाती थी, न पपीहा पुकारता था। फूल ही नहीं थे, तितलियां नहीं उड़ती थी, न कोई सुगंध थी, न कोई शीतलता थी। सब उदास था, सब जड़ और मुर्दा था। लेकिन अब बात बदल गई है।
इस भरे हुये हृदय में, इस आनंद से भरे हुये प्याले को देख कर वह नशीली आँख याद आनी शुरू हो गई है। जब तुम्हारे भीतर प्रेम का प्याला भरेगा, तो उस प्रेम के प्याले में ही परमात्मा की आँखे पहली दफा झलकेंगी। यह भी होगा। अभी तुम उदास हुये हो, घबराओं मत। जल्दी यह घड़ी भी आयेगी जब तुम भी यह प्रशन पूछ सकोगे कि मुझे क्या हो गया है? क्या मैं पागल हो गया हूँ? लोग कहते है मैं पागल हो गया हूँ। हालांकि मुझे लगता है कि मुझे सब मिल गया है।
जैसा प्रेम में घटता है, साधारण लौकिक प्रेम में घटता है, उससे अनंत गुना, अनंत-अनंत गुना पारलौकिक प्रेम में घटता है।
अभी उदास हुये हो, यह पहली बात हुई। चमन उदास-उदास, बुलबुले खामोश-खामोश सब ठहरा हुआ। एक दुनिया उजड़ गई जो तुमने बसाई थी। वे नावें जो तुमने चलाई थी, कागज की है। ऐसा मैंने कहा, ऐसा तुम्हें दिखाई पड़ गया, तुम धन्यभागी हो! जो मकान तुमने बनाये थे वे मकान नहीं थे, केवल ताश के पत्तो के घर थे। मैंने कहा और तुम्हारी समझ में आ गया, तुम धन्यभागी हो! तुम्हें मेरी भाषा पकड़ में आ गई। इसीलिये तुम उदास हुये हो। अगर भाषा समझ में न आती तो तुम नाराज होते, उदास नहीं।
फर्क समझ लेना। दो ही तरह के लोग है यहां मेरे पास आने वाले। या तो वे जो उदास हो जाते है, या वे जो नाराज हो जाते है। जो नाराज हो गये वे चूक गये। फिर दुबारा उनके आने का कोई कारण न रहा न केवल वे दुबारा नहीं आयेंगे और कोई आता होगा तो उसको भी रोकेंगे। जो उदास हो गया वह तो आयेगा। उसे तो आना ही पड़ेगा। अब उसकी उदासी कहीं और न मिट सकेगी। अब तो वह मेरा बीमार हो गया। अब तो मेरे पास ही उसका उपचार है। अब तो वह तलाशेगा। जैसे भी बन सकेगा, वैसे करीब आयेगा और तब दूसरी घटना निश्चित घटती है।
अब लड़खड़ाओं! अब डगमगाओं! अब पीओ! और बेखुदी हो तो ही पीओगे। इसलिये मैं तुमसे कहता हूँ कि यहा अगर मेरे निकट तुम्हें होना है, अगर सच में ही सत्संग करना है, तो अपने को पोंछो। जब आओ तो सब छोड़ कर आना। सब बाहर रख आओ। यहां खाली होकर आओ, बेखुद होकर आओ। थोड़े निर-अहंकार भाव से आओ। तो वह जादू हो सकता है।
वह दूसरी घटना भी सुनिश्चित घटती है। औरों को घटी है, तुमको भी घटेगी।
सुख-दुःख का अर्थ क्या होता है? इतना ही अर्थ होता है-सुख का अर्थ होता है-तुम्हारे स्वभाव के अनूकूल पड़ रहा है। और क्या अर्थ होता है? दुःख का अर्थ होता है-स्वभाव के प्रतिकूल पड़ रहा है। जो स्वभाव के प्रतिकूल है, वह परमात्मा से कैसे जोड़ेगा? क्योंकि परमात्मा का अर्थ ही स्वभाव है।
इसलिये मेरी बात को खूब खयाल से समझ लेना।
तुम्हारे भीतर अपने को दुःख देने की वृति है। क्योंकि सदियों से तुम्हें यह सिखाया गया है कि उसको पाने के लिये तपश्चर्या करनी है। मैं कह रहा हूँ, उसे पाने के लिये आनंदमग्न होना है। तुम्हारी पुरानी धारणा इतनी गहरी बैठी है कि तुम मेरी बात भी सुन लोगे, फिर भी शायद ही समझ पाओ। तुम्हें कहा गया है कि अपने को कष्ट दो। यह किसने कहा है? यह जानने वालों ने नहीं कहा। जानने वाला यह कह ही नहीं सकता।
तुम यहां भी देख सकते हो चारों तरफ। कुछ लोग है जो थोड़ा सा भोजन लेते है, फिर भी चंगे है, मस्त है। कुछ जो कितना ही खाये चले जाते है, फिर भी रूखे-सुखे है। फिर भी जीवन में कोई जीवन-धारा नहीं मालूम पड़ती, कोई ऊर्जा नहीं मालूम पड़ती, कोई चमक नहीं मालूम पड़ती। जैसे भोजन काम ही नहीं आ रहा है। कुछ लोग जैसे रूखे-सुखे पर जी लेते है। और रूखे-सुखे से भी खूब हरे-भरे होते है।
उपवास और अनशन में भेद है। अनशन कष्टपूर्ण है, उपवास आनंदपूर्ण है। अनशन का मतलब होता है -मार रहे भूखा अपने को। जब कोई राजनैतिक नेता अनशन पर चला जाता है, वह अनशन है। उसको उपवास भूल कर मत कहना। वह भूखा अपने को मार रहा है। वह दबाव डाल रहा है। वह अपने को सता कर दबाव डाल रहा है लोगो पर कि मेरी बात मान लो, नहीं तो मैं मर जाऊंगा। वह धमकी दे रहा है आत्महत्या की, और कुछ नहीं है। उस पर असल में मुकदमा चलना चाहिये, वह आत्महत्या की धमकी दे रहा है। वह यह कह रहा है-मैं मर जाऊंगा, तुम मेरी बात मानो। फिर मैं गलत हो या सही, यह बात का मौका ही नहीं दे रहा है वह। विचार का मौका नहीं देता। वह तो ऐसे ही है जैसे एक आदमी छुरी लेकर अपनी छाती पर खड़ा हो जाये और कि मैं छुरी मार लूंगा, मेरी बात मानो। इसमें और उसमें कुछ भेद नहीं है। यह हिंसक वृत्ति है।
सचाई यह है कि दुःख में भूख लगती है, सुख में भूख खो जाती है। दुःख में शरीर की याद आती है, सुख में शरीर की याद खो जाती है। यह इतना सीधा सा सूत्र है। तुम जब सुखी होते हो, तुम्हें शरीर की याद नहीं आती। बिना सिरदर्द के कभी तुम्हें सिर की याद आई है? सिरदर्द होता है तो ही सिर की याद आती है। और पेट में दर्द होता है तो पेट की याद आती है। शरीर विस्मृत हो जाता है सुख में, दु:ख में याद आता है।
दुःख में शरीर की याद आयेगी, भूख की याद आयेगी, सुख में खो जायेगी याद। महावीर महासुख में थे। ध्यान के सुख में थे। भोजन की याद कभी-कभार आती थी। जब शरीर की बिल्कुल जरूरत हो जाती तब याद आती थी। तब वे चले जाते थे, गांव में भोजन मांग लेते थे।
मैं तुम्हें आनंद का मार्ग दे रहा हूँ। मैं तुमसे कह रहा हूं कि तुम जितने सुखी, जितने शांत, जितने आनंदित, उतने ही प्रभु के समरण से भरोगे। क्योंकि तभी तो अनुग्रह करने को कुछ परमात्मा के चरणों में झुक कर कह सको-धन्यवाद! अभी धन्यवाद उठे कहां से? अभी धन्यवाद का कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता, अभी शिकायत उठती है, धन्यवाद नही उठता और शिकायत से यजंन पैदा होता है और धन्यवाद से भजन पैदा होता है।
यही मूल्य है। सूखी होना होगा। अब तुम बड़े हैरान होओगे। तुम कहोगे, यह भी कोई मूल्य है? लेकिन मैं तुमसे कहता हूँ यही कठिन बात है। दुःखी होना बिल्कुल सरल बात है। सारी दुनिया दुःखी है। दुःखी होने के लिये कोई बुद्धिमता चाहिये? बुद्धू भी दुःखी है। दुःखी होने के लिये कोई कुशलता चाहिये? कोई गणित चाहिये? गंवार से गंवार आदमी भी दुःखी है। सुखी होने के लिये गुण चाहिये, कुशलता चाहिये, कला चाहिये।
तुम्हें मेरी बात बड़ी उलटी लगेगी। इसीलिये मैं कहता हूँ कि समझोगे तो समझ पाओगे। जरा सहानुभूति रखी तो शायद थोड़ी समझ में आ जाये। मैं तुमसे कहता हूँ सुखी होकर मूल्य चुका दो। नाच कर मूल्य चुका दो। गीत गाकर मूल्य चुका दो। आनंद भाव से मूल्य चुका दो। लेकिन तुम्हें लगता है कि दुःख हो तो मूल्य चुकाया। तुम दुःख से ऐसे जकड़ गये हो कि तुमने दुःख को सिक्के मान लिया है। तुमने क्या समझा है? परमात्मा कोई दुष्ट, कोई अनाचारी, कोई दुखवादी, कोई सैडिस्ट है? कि तुम दुःखी होओगे तो वह बड़ा प्रसन्न होगा, कि देखो बेटा कितना भूख-हड़ताल कर रहा है! अब आ जा, पास आ जा, पास आ जा! तूने काफी भूख-हड़ताल कर ली, ले, मौसंबी का रस पी! तुमने परमात्मा को समझा क्या है? कोई एडोल्फ हिटलर? कि तुम अपने को सताओगे तो वह बड़ा आनंदित होगा? तुम कांटो की सेज पर लेटोगे तो वह बड़ा प्रसन्न होगा कि अहा! कैसी तपश्चर्या कर रहे है ! परमात्मा दुश्मन तो नहीं है। तुम्हारा प्यारा है, तुम्हारा प्रीतम है। क्या तुम सोचते हो, छोटा बेटा धूप में खड़ा रहेगा तो मां बड़ी प्रसन्न होगी? कि छोटा बेटा कांटों में लेटा रहेगा तो मां बड़ी प्रसन्न होगी?
तुम फूल की शय्या बनाओं। कांटो की शय्या बना-बना कर तुमने सिर्फ अपने साथ मूढ़ता की है। तुम सुख का राग जन्मने दो। तुम सुख की वीणा बजाओं। तुम्हारी मस्ती तुम्हें उसके पास ले जायेगी। इसीलिये तो तुम्हारे साधु-संन्यासी नाचते हुये, प्रसन्न नहीं दिखाई पड़ते। लेकिन असली साधु-संन्यासी ऐसे नहीं थे। नानक को देखा? साथ ही लिये रहते थे एक शिष्य को कि जब उनको गीत गाने की मौज आ जाये तो वह वाद्य बजाने को मौजूद रहे। कबीर को देखा? वे मस्ती के गीत। मीरा को देखा? वह नृत्य! ये साधु है। साधु तो सुखी आदमी है। सुख की ही परम अवस्था साधुता है। दुःखी रूग्ण है, विक्षिप्त है। उसकी चिकित्सा होनी चाहिये।
परमात्मा चाहता है तुम अपने मूल रूप प्रकट होओ। तुम्हारा मूल रूप में प्रकट हो जाना ही तो परमात्मा को पा लेना है। और क्या है परमात्मा को पा लेना? सुख अर्थात् स्वभाव के अनुकूल जो हो, दुःख अर्थात् स्वभाव के प्रतिकूल जो हो। सुख से चुकाओं कीमत।
मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूँ। तुम धारणायें लेकर आते हो। तुम्हारी धारणायें बड़ी जड़बद्ध है। और तुम्हारी धारणाओं के पीछे तुम्हें काफी प्रमाण है, क्योंकि सौ में निन्यानवे साधु तो दुःखवादी है। वे साधु ही नही है। उन्हें साधुता का कुछ पता नहीं है। सौ में एकाध कभी सुखवादी होता है। लेकिन वह तो कभी कभार होता है। और जब भी होता है तभी तुम्हें अड़चन होती है।
मीरा को नाचते देख कर कितने लोगों को अड़चन नहीं हो गई थी, याद है? कितने लोग कष्ट में पड़ गये थे? मीरा के परिवार के लोग इतने कष्ट में पड़ गये थे कि मीरा मर जायें, इसके लिये जहर का प्याला भिजवाया था क्योंकि परिवार को बड़ी बेचैनी हो रही थी। मीरा तो पागल समझी ही जा रही थी, उसके साथ-साथ परिवार बदनाम हो रहा था। राजघराने की महिला थी और नाचने लगी सड़को पर ! और राजस्थान में, जहां घूंघट उठाना मुश्किल था। वहां कपड़े इत्यादि की भी फिकर छोड़ दी। अब नाचने में कहीं फिकर रखनी होती है कि पल्लू ठीक है कि नहीं! पल्लू की फिकर रखो तो परमात्मा छूटता है, परमात्मा की फिकर करो तो पल्लू गिरता है। मीरा ने सोचा कि पल्लू जाने दो। उसने कहा, लोकलाज खोई। नाचने लगी रास्तों पर। घर के लोग- राजघर के लोग परेशान हुये। उन्होनें कुछ दृष्टता के कारण जहर नहीं भेजा था, सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा बचाने को। जगह-जगह से मीरा को खदेड़ा गया।
परमात्मा को पाने में अगर कोई बाधा है तो सिर्फ अहंकार है। परमात्मा को पाने में अगर कोई बाधा है तो तुम्हारी दुःख की ग्रंथियां है। मीरा को बुलाओं, क्योंकि उससे ज्यादा नाचता हुआ परमात्मा और कहां मिलेगा?
मेरे लिये सिद्धांत दो कौड़ी के है। तुम्हारा मूल्य चरम है। प्रत्येक व्यक्ति का चरम है। कोई सिद्धांत इतना मूल्यवान नहीं है। सिद्धांत तुम्हारी सेवा करने को है। शास्त्र तुम्हारे सेवक है। तुम्हारे स्वभाव के जो अनूकूल मूल्यवान नहीं है। सिद्धांत तुम्हारी सेवा करने को है। शास्त्र तुम्हारे सेवक है। तुम्हारे स्वभाव के जो अनूकूल पड़ता हो, वही करना। अगर तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल नाच पड़ता हो तो नाचना। तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल बांसुरी बजाना पड़े तो बासुरी बजाना। तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल योग पड़े तो योग करना। तुम्हें जो अनुकूल पड़े! मगर अनुकूल की परीक्षा, अनुकूल की कसौटी एक ही है कि तुम्हें जिससे सुख मिले।
सुख से मूल्य चुकाओ। और ध्यान रखना, यह दुःखवादी भ्रांति में न रहे कि हमने दो-चार उपवास कर लिये, कि शरीर को थोड़ा सता लिया, कि थोड़ी आंच दे दी, कि थोड़े नंगे बैठ लिये, तो पहुंच जायेंगे। इतना सस्ता नहीं है मामला।
लेकिन यह कष्टकारी चित्त! इसने ध्यान में से ही तरकीब निकाल ली सताने की अपने को। अपने को औरों को भी।
इस बात को ख्याल में रखना। मैं तुम्हें जो भी कह रहा हूं न तो अपने को सताना उससे, न किसी और को सताना उससे। और उन लोगों से सावधान रहना जिन्होंने कुछ जाना नहीं है। अब यहां ऐसे बहुत से लोग है इस जमीन पर, जो ध्यान के संबंध में लिखते है, जिन्हें ध्यान का कुछ पता नहीं है।
तुम जरा सोच-समझ कर किसी से सलाह लेना। सलाह देने वाले लोग है बहुत, एक ढूंढो हजार मिलते है। सलाह देने वाले तैयार ही है। ढूंढ़ो भी मत तो भी मिल जाते है। खोजो भी मत तो तुम्हारे घर ही आ जाते है कि भाई, सलाह तो नहीं चाहिये? सलाह देने में लोग इतना रस लेते है। क्योंकि सलाह देने में ज्ञानी होने का मजा है। और दूसरे को अज्ञानी सिद्ध करने का मजा है। इसलिये सलाह देने का मौका कोई चूकता नहीं। लेकिन सलाह सोच-समझकर लेना। जिसके जीवन में ध्यान की कोई गरिमा हो, जिसके जीवन में प्रेम की कोई सुवास हो-बैठना, उठना, समझना, सोचना, पीना किसी व्यक्ति को, और जब तुम्हें लगे कि हां, कुछ अस्तित्वगत घटा है, तो ही ग्रहण करना, अन्यथा बचना।
दुःख को लोग पकड़े है। छाती से पकड़े बैठे हुये है। दुःख नहीं छोड़ना चाहते, दुःख उनकी संपदा है। तुम चौकोगे यह बात जान कर, बहुत मुश्किल से हिम्मतवर आदमी होता है जो दुःख छोड़ने को राजी होता है। दुःख छोड़ने को लोग राजी ही नहीं होते।
लोग दुःख की अपेक्षा करने लगते है। अपेक्षित दुःख न आये, तो मुश्किल हो जाती है। लोग दुःखों को भी सम्भाल कर रखते है। वह उनकी संपदा है।
मैं तुमसे कहता हूँ- दुःख छोड़ो। दुःख के साथ क्षण भी रहने की जरूरत नही है, दुःख छोड़ो। तुमने क्रोध से बहुत बार दुःख पाया है। और तुम्हारे ज्ञानियों ने तुमसे कहा हैः क्रोध मत करो, इससे दूसरे को दुःख होता है। मैं तुमसे कहता हूँ क्रोध मत करो, इससे तुमको दुःख होता है।
ज्ञानियों ने कहा हैः हिंसा मत करो, इससे दूसरे को चोट पहुंचती है। मैं कहता हूं दूसरे को तो बाद में पहुंचेगी, जो हिंसा करता है, पहले खुद को चोट पहुंचा लेता है। बुरा मत करो, ज्ञानियों ने कहा है कि इससे पाप लगेगा, अगले जन्म में नरक में पड़ोगे। मैं तुमसे कहता हूं, ये सब तो फिजूल की बाते है, तुम बुरा करने की सोचते हो, तभी नरक पैदा हो जाता है, तभी तुम दुःख भोग लेते हो।
तुम अगर एक ही बात कसौटी की तरह सम्भाल लो कि जिस चीज से दुःख मिलता है उसका त्याग कर देंगे, तुम अचानक पाओगे, तुम्हारी ऊर्जा धीरे-धीरे सुख की तरफ प्रवाहित होने लगी।
सुख बड़े महलों से नहीं मिलता। सुख बहुत सुस्वादु भोजन से नहीं मिलता। सुख जीवन को जीने की कला है। रूखे-सूखे से मिल सकता है। झोपड़े में भी मिल सकता है। गरीबी में भी मिल सकता है और प्रमाण के लिये इतना काफी है कि अमीरों को भी नहीं मिल रहा है, तो गरीब को भी मिल सकता है। जब अमीरों को नहीं मिल रहा है, तो अमीरी से मिलता है, यह कोई सवाल न रहा।
दुःख का त्याग करो, सुख का वरण करो। इतनी कीमत तुम चुका दो, परमात्मा नाचता हुआ तुम्हारी तरफ चला आयेगा। जल्दी ही वह घड़ी आ जायेगी।
संसार से सब रीति-रिवाजों को तोड़ दो! बहको! पीओ! वसंत को ऊगने दो तुम्हारे भीतर! और तुम परमात्मा को रोज-रोज करीब आते पाओगे। सुख परमात्मा से जोड़ता है, दुःख तोड़ता है।