अर्थात जो वृद्धजनों, गुरूजनों तथा माता-पिता को नित्य प्रणाम करता है, उनकी सेवा करता है-उसके आयु, विद्या, यश और बल की वृद्धि होती है। महाभारत में भी बताया गया है कि अभिवादन से दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है-
अपने से बड़े के आने पर उन्हें देखते ही खड़े होकर आगे बढ़कर प्रणाम करना चाहिये। यदि विशेष स्थिति न हो तो उनके समीप आने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिये। यह सर्वमान्य है कि मनुष्य शरीर में एक प्रकार की विद्युत्-शक्ति है। दुर्बल को बल विद्युत् अपनी ओर खींचती है। शास्त्रानुसार किसी अपने से बड़े के आने पर प्राण ऊपर उठते हैं। उस समय खड़े हो जाने से उन में विकृति नहीं आती। गुरूजनों को देखते ही अविलम्ब खड़े हो जाना चाहिये।
अभिवादन की श्रेष्ठतम पद्धति साष्टांग प्रणाम है। पेट के बल भूमि पर दोनों हाथ आगे फैलाकर लेट जाना साष्टांग प्रणाम है; इसमें मस्तक, भ्रूमध्य, नासिका, वक्ष, ऊरू, घुटने, करतल तथा पैरों की अँगुलियों का ऊपरी भाग-ये आठों अंग भूमि पर स्पर्श करते हैं। तत्पश्चात् दोनों हाथों से समान्य पुरूष का चरणस्पर्श कर के घुटनों के बल बैठकर उनके चरणों में अपने भाल का स्पर्श कराना, उनके पादांगुष्ठों का हाथों से स्पर्श कर के हाथ नेत्रों से लगाना-यह साष्टांग प्रणाम की पूर्ण विधि है।
घुटनों के बल बैठकर मस्तक को चरणों से स्पर्श कराना उसी का अर्धरूप है। दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाना प्रणाम का सांकेतिक रूप है। बिना हाथ जोड़े और बिना मस्तक झुकाये प्रणाम नहीं होता। एक हाथ से, हाथ की अँगुली से या टोपी से होने वाला प्रणाम प्रणाम नहीं, अपितु प्रकारान्तर से अवहेलना मात्र है। महर्षि व्याघ्रपाद बतलाते हैं कि एक हाथ से अभिवादन कभी नहीं करना चाहिये। जो ऐसा करता है उसका यावज्जीवन जो कुछ भी पुण्यार्जन किया रहता है, वह सब निष्फल हो जाता है-
अतः दोनों हाथों से अर्थात् दाहिने हाथ से दाहिने पैर को और बायें हाथ से बायें पैर को छूकर श्रद्धा-भक्ति के साथ प्रणाम करने की विधि है-
अभिवादनशीलता मानव का सर्वोच्च सात्त्विक संस्कार है। मूलतः प्रणाम स्थूल देह को नहीं, अपितु अन्तरात्मा में प्रतिष्ठित नारायण को ही किया जाता है। अतः स्वयं तो ऐसा करे ही अपने बच्चों में भी प्रणाम-निवेदन की प्रवृत्ति स्थिर करनी चाहिये। शास्त्रों में तो प्रातः काल उठकर सर्वप्रथम माता-पिता तथा अपने से बड़े गुरुजनों को प्रणाम करना नित्यविधि में अन्तर्हित किया गया है-
अतः प्रणाम निवेदन भारतीय संस्कृति का मौलिक संस्कार है। अभिवादन का संस्कार सदाचार, शिष्टाचार का मुख्य अंग है। इससे न केवल लौकिक लाभ होता है अपितु आध्यात्मिक लाभ भी होता है। अभिवादन के बल पर दिव्य लाभों को प्राप्त करने के अनेक वृत्तान्त प्राप्त होते हैं।
महर्षि मार्कण्डेय के नाम से कौन परिचित नहीं? जब वे पाँच वर्ष के थे, तब उनके पिता मृकण्डु को ज्ञात हुआ कि इनकी आयु तो केवल छः मास ही शेष है। पिता पहले तो चिन्तित हुये, किंतु उन्होंने झट से उनका यज्ञोपवीत कर डाला और यही उपदेश दिया कि वत्स! तुम किसी भी द्विजोत्तम को देखना, उसे विनयपूर्वक प्रणाम अवश्य करना-
फिर क्या था, बालक मार्कण्डेय आज्ञाकारी तो थे ही, उन्होंने पिता द्वारा प्रदत्त अभिवादन व्रत को अपना लिया। उनका अभिवादन-संस्कार दृढ़ हो गया। ऐसे ही एक दिन जब सप्तर्षि वहाँ से गुजर रहे थे तो बालक मार्किण्डेय ने नित्य की भाँति उन्हें विनम्र प्रणाम किया और ‘दीर्घायुभव, दीर्घायुभव’ का आशीर्वाद उन्हें प्राप्त हुआ और सचमुच बालक मार्किण्डेय दीर्घायु हो गये तथा कल्प-कल्पान्त की आयु उन्हें प्राप्त हो गयी। वे चिंरजीवी हो गये। ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं। तात्पर्य यह है कि अगर जीवन में प्रणाम-निवेदन का संस्कार प्रतिष्ठित हो गया तो समझना चाहिये कि अन्य कर्तव्य कर्म भी स्वयं सध गये।
देवविग्रह को, आचार्य को, साधु को और अन्य पूज्य गुरूजनों को अवश्य प्रणाम करना चाहिये। धर्मशास्त्र में बताया गया है कि जो व्यक्ति देवालय या देवप्रतिमा को, संन्यासी को देखकर प्रणाम नहीं करता, वह प्रायश्चित का भागी होता है-
अपना शरीर शुद्ध न हो, स्वयं स्नान न किये हुये हो तो प्रणाम करते समय गुरूजनों को स्पर्श नहीं करना चाहिये। स्नान करते समय प्रणाम करने की आवश्यकता नहीं। स्वयं इन स्थितियों में हो तो भी प्रणाम न करे। श्मशान में, कथास्थल में, देवविग्रह के सम्मुख केवल मानसिक प्रणाम ही करना चाहिये। स्त्री को किसी परपुरुष का चरण नहीं छूना चाहिये। पति के अतिरिक्त दूसरे सभी पुरुषों को बिना स्पर्श किये ही दूर से नमस्कार करना चाहिये।
यह वैज्ञानिक सत्य है कि हमारे हाथों-पैरों की अँगुलियों से निरन्तर विद्युत् किरणें निकलती रहती हैं। मस्तक के भालप्रदेश और हाथों की अँगुलियों को इस विद्युत् प्रभाव को ग्रहण करने की शक्ति प्राप्त है।
अपने से श्रेष्ठ के चरणों पर मस्तक तथा हाथ रख कर हम उनका प्रभाव ग्रहण करते हैं। प्राचीन समय में गुरुजनों को प्रणाम करते समय अपना गोत्र, पिता का नाम तथा अपना नाम लिया करते थे।
हमारी भारतीय संस्कृति में प्रणाम, अभिवादन या नमस्कार करने की पद्धति शिष्टाचार के अनुकूल तो है ही, साथ-साथ वैज्ञानिक भी है। श्रीमद्भागवत में भगवान शंकर ने श्री सतीजी को बताया है-
इसका भाव यह है कि सज्जन लोग परस्पर जो अभ्युत्थान, विनम्रता एवं प्रणाम करते हैं, वह चित्त में स्थित ज्ञान स्वरूप परम पुरुष के लिये ही करते हैं, शरीर और शरीर में अभिमान करने वाले अहंकार को नहीं करते। जिसे प्रणाम किया जाता है, उसे समझना चाहिये कि प्रणाम उसमें स्थित सर्वान्तर्यामी के लिये किया गया है।
यदि कोई भगवान नाम स्मरण से अभिवादन करता है तो हमें भी उसी नाम से उत्तर देना चाहिये। ‘जय रामजी’ करने वाले को ‘जय रामजी’ कहकर उत्तर देना शिष्ट ढंग है। इसी प्रकार दूसरे सम्प्रदाय के लोगों से व्यवहार करते समय प्रणामादि का ऐसा ही रूप होना चाहिये, जो उनकी मर्यादा के अनुरूप हो। अतः प्रणाम-संस्कार को अपने जीवन में उतारने की चेष्टा करनी चाहिये। यह परस्पर प्रेम, सौहार्द, आदर भाव एवं विनय का मूल है।