भगवान विष्णु ने 'कूर्म' अर्थात् 'कच्छप' का अवतार विश्व कल्याण के लिए लिया था। दरअसल समुद्र मंथन के दौरान देव गणों और दैत्यों की सहायता करने के लिए मंदिराचल पर्वत का भार अपनी पीठ पर उठाने के उद्देश्य से लिया गया था। इसी समुद्र मंथन से करोड़पति रत्न प्राप्त हुए थे। जिससे विश्व का कल्याण हुआ।
भगवान विष्णु द्वारा कूर्म अवतार लेने का वर्णन कई पुराणों एवं ग्रंथों में है। कई पुराणों में इस संदर्भ में पाया गया है कि एक बार ऋषि दुर्वासा इंद्र से मिले तब वे अप्सराओं के नृत्य व आमोद-प्रमोद क्रिया में इतने मग्न थे कि उन्होंने ऋषि दुर्वासा के स्वर्गलोक में स्वागत नहीं किया और जो वैजयंती फूलों की रचना में उन्होंने इंद्रदेव उसे उपहार में दी गई माला ऐरावत को पहनाई गई, लेकिन उन फूलों की महक उसे पसंद नहीं आई और उसने माला को पैरो के साथ राज किया।
यह सब देखकर ऋषि दुर्वासा अत्यंत क्रोधित हो उठे और उन्होंने इन्द्रदेव को श्रीहीन होने का श्राप दे दिया। परिणामतः समस्त देवतागण निर्बल हो गए इसी बीच असुरों ने विश्व पर आक्रमण कर दिया और उन्हें दैत्यराज बलि को हराकर सागर पर कब्जा कर लिया। तीनों लोकों में राजा बलि का राज स्थापित हो गया। व्यस्थित होकर इन्द्रदेव व अन्य सभी देवता भगवान ब्रह्मा के रूप में गए व अपना विपदा सुना। ब्रह्मा जी ने जगद्गुरू भगवान विष्णु की स्तुति कर उन्हें प्रसन्न करने का सुझाव दिया। दुनिया में भगवान विष्णु की शरण में जाकर प्रार्थना की, जिससे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें समुद्र मंथन कर अमृत प्राप्त करने और उनका पान कर पुनः अपनी खोई शक्तियां उचित करने का सुझाव दिया। यह इतना कार्य सरल नहीं था क्योंकि देवता परम निर्बल हो गए थे कि अकेले समुद्र मंथन कर पाना उनकी सामर्थ्य में नहीं था। इस समस्या का समाधान बताते हुए भगवान विष्णु ने उन्हें असुरों को अमृत एवं उसे प्राप्त करने वाले अमरत्व के बारे में बताया और समुद्र मंथन में किसी का साथ देने के लिए मना करने को कहा। जब दुनिया ने यह बात असुरो को बताई तो उन्होंने मना कर दिया और वे अकेले ही समुद्र मंथन करने के बारे में सोचने लगे लेकिन अकेले समुद्र मंथन कर पाने असुरों के लिए भी मुमकिन नहीं था और इसलिए अमृत पा लेने के लालच में असुर भी के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने के लिए सहमति बनी।
इसका पंजीकृत वासुकि नाग को रस्सी और मंदराचल पर्वत को मथनी रहने वाला समुद्र मंथन शुरू किया गया लेकिन पर्वत का आधार नहीं होने के कारण वह समुद्र में डूबने लगा। परेशान देवता वापस सहायता हेतु भगवान विष्णु का स्मरण करें। यह देखकर भगवान विष्णु ने बहुत बड़े कर्म का रूप लेकर समुद्र में मंदिराचल पर्वत को अपनी पीठ पर रखा। इससे पर्वत से घूमते हुए और समुद्र मंथन आराभ हो पाया। मथते-मथते बहुत देर हो जाने पर भी अमृत जब न तब प्राप्त हुआ भगवान ने सहस्त्रबाहु वन ही दोनो ओर से मथना लाया। इसके बाद उसी समय हलाहल विष निकला जिसे पीकर भगवान शिव नीलकंठ कहलाये। इसी प्रकार समुद्र मंथन से कामनु, उच्चैश्रवा, ऐरावत, कौस्तुभ मणि, पारिजात वृक्ष, कल्पवृक्ष, आगंतुक (वारूणी), माँ भगवती लक्ष्मी, वारूणी धनेश्वर, अपसरायें, चन्द्रमा, पाँचजन्य शंख, धनवन्तरि और अंत में।
अब अमृत को प्राप्त करने के लिए भगवान और असुरों ने आपस में शुरुआत कर दी। तब भी श्री विष्णु ने अपनी लीला रचकर कहीं अमृत को प्राप्त विवरण। अमृत पीकर देवता अमर हो गए और असुरों को युद्ध में परास्त कर देते हैं और इस प्रकृति इंद्रदेव को अपना शासन प्राप्त हो जाता है। इन्द्रदेव व देवतागण कृतज्ञ होकर सभी बार-बार कूर्म भगवान की स्तुति करने लगे।
भगवान ने आभार व उन सभी को अभिमान का त्याग कर, सकुर्म करने का ज्ञान दिया। भगवान विष्णु के कूर्म अवतार की नित्य पूजा होती है- अर्जन करने से सुख समृद्धि व सुबुद्धि की प्राप्ति होती है।
धन श्रीमाली
प्राप्त करना अनिवार्य है गुरु दीक्षा किसी भी साधना को करने या किसी अन्य दीक्षा लेने से पहले पूज्य गुरुदेव से। कृपया संपर्क करें कैलाश सिद्धाश्रम, जोधपुर पूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन से संपन्न कर सकते हैं - ईमेल , Whatsapp, फ़ोन or सन्देश भेजे अभिषेक-ऊर्जावान और मंत्र-पवित्र साधना सामग्री और आगे मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए,