महाकवि सूरदास ने जन-जन को भगवान श्री कृष्ण के बाल लीलाओं से संबंध संलग्न किया। कौन जन-जन में वात्सल्य का विश्व या। नंदलाल व यशोमति मैया के लाड़ले को बाल गोपाल बनाया। कृष्ण भक्ति की धारा में सूरदास का नाम सर्वोपरि लिया जाता है। सूरदास ने उन्हें बताया तो जन्मांध है लेकिन जो उन्होंने देखा वो कोई न देखा। गुरु वल्भाचार्य के पुष्टिमार्ग पर सूरदास ऐसे चले गए कि वे इस मार्ग के जहाज तक कहलाये। अपने गुरु की कृपा से भगवान श्री कृष्ण की जो लीला सूरदास ने उन्हें देखा है उनके शब्दों में चित्रित होते हुए हम देखते हैं।
सूरदास का संपूर्ण जीवन कृष्ण भक्ति में बीता है। उन्होंने कृष्ण की लीलाओं पर लेख लिखे व गाये। यह जिम्मेदारी उन्हें उनके गुरु ने सौंपी थी। सूरदास एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्में थे। इनके पिता रामदास जी भी गायक थे। उनकी हर स्थिति में जो सजीवता है जो चित्र खिचते हैं जीवन के अलग-अलग पत्थरों की जो जुड़ाव है, अच्छी भली नजर वाले भी बया न कर कर ऐसे कारण से अँधेरे को लेकर शंकाये डूब जाती है।
मान्यता है कि उन्हें अपने शरीरसन का आभास पहले से ही हो गया था। उनकी मृत्यु का स्थान पारसौली माना जाता है। मान्यता है कि इसी पर भगवान श्री कृष्ण ने रासलीला की थी। श्री नाथ जी की आरती के समय जब सूरदास मौजूद नहीं थे तो वल्लभाचार्य को आभास हो गया था कि सूरदास का अंतिम समय निकट है। उन्होंने अपने शिष्यों को सम्बाधित करते हुए इसी समय कहा था कि जाग्रत का जहाज जा रहा है जिसे ले सकते हैं। आरती के बाद सूरदास जी के निकट आए तो सभी अचेत पदे बूझ गए थे। कहते हैं कि जब उनसे ज्ञान ग्रहण कर रहे थे तो चतुर्भजदास जो कि सभी वल्लभाचार्य के ही शिष्य थे ने शंका प्रकट की कि सूरदास ने सदैव भगवद्भक्ति के पद गाये हैं गुरूभक्ति में कोई पद नहीं कहा। तब उन्होंने कहा कि उनके लिथे परमेश्वर यहोवा के लिथे कोई समय नहीं है।
सूरदास के कुछ दोहे-
मैया मोहि मैं नहीं माखना खायौ—-
मैया मोहि मैं नहीं माखन खायौ।
भोर भयो गैयन के पाछे, मबन मोहि पथयो।
चार पहर बंसीबट फट्यो, साँझ परे घर आयो।।
मैं बालक बहियां को छोटो, छीको किहि बिधि पायो।
ग्वाल बाल सब बैर पड़ै है, बरबस मुख लपटायो।।
तू जननल मन की अति भोरी इन्हें पतिआयो कहते हैं।
जीय तेरे संबंध शूटिंग है, जानि परायो जायो।।
यह अपनी लकुटी कमरिया, बहुतहिं नाच नचायों।
सूरदास बिहंसि जसोदा लै उस काठयो।।
मौया मोहि कबहुँ बढ़ी चोटी—
मैया मोहि कबहुँ विशेष चोटी, किती बेर मोहि
दूध पीती भाई यह अजू है छोटी।।
तू तो कहति बल की बेनी ज्यों है लांबी मोटी।
काढ़त गुहत नवाववत जैहै नागिन सी भुई लोटी।
काचो दूध पियावति पच्ची पची देति न माखन रोटी।
सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की चोटी।।
सूरदास के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से मनुष्य को सदगति मिल सकती है। अटल भक्ति कर्मभेद, जातिभेद, ज्ञान, योग से श्रेष्ठ है। सूरदास जी ने वात्सल्य, वक्र और शांत रसों को मुख्य रूप में अपनाया है। सूरदास जी ने अपनी कल्पना और प्रतिभा की गणना कृष्ण के बाल्य रूप का अति सुंदर, सरस, सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। बालकों की चपलता, प्रतियोगिता, अभिलाषा, आकांक्षा का वर्णन करने में विश्वव्यापी बाल संदर्भ का चित्रण किया गया है। बाल कृष्ण की एक चेष्टा के चित्रण में कवि ने चमत्कार की सूचना एवं सूक्ष्य निरीक्षण का परिचय दिया है।
सूरदास कृष्ण प्रेम और माधुर्य के प्रतिप्रतिरूप हैं। जिसकी अभिव्यक्ति बड़ी ही स्वाभाविक और सजीव रूप में हुई है। जो कोमलकांत पदावली, भावानुकुल शब्द चयन, सार्थक अलंकार योजना, धारावाही प्रवाह, संगीतात्मकता एवं सजीवता सूर्य की भाषा में है, उसे देखकर तो यह कहना है कि वे ही सर्व प्रथम ब्रजभाषा को शास्त्री रूप दिया है। भक्ति के साथ वक्र को जोड़कर उसका संयोग वियोग पक्षो का वर्णन वैसा ही है, जैसा अन्य दुर्लभ है। विनय के पद को भी रचा गया है, जिसमें उनकी दास्य भावना कहीं भी तुलसीदास से आगे बढ़ी है। प्रेम के स्वच्छ और मार्जित रूप का चित्रण भारतीय साहित्य में किसी और कवि ने नहीं किया है, यह सूरदास की अपनी विशेषता है। वियोग के समय राधिका का जो चित्र उन्होंने चित्रित किया है, वह प्रेम के योग्य है। सूरदास जी का भ्रमरगीत वियोग श्रृंगार का ही उत्कृष्ट ग्रंथ नहीं है, इसमें सगुण और निर्गुण का भी विवेचन हुआ है। इसमें विशेष रूप से गोपी संवादों में हास्य व्यंग के अच्छे चित्र भी मिलते हैं। सूरदास की काव्य में प्रकृति सौन्दर्य का सूक्ष्म और सजीवन वर्णन मिलता है। सूर की कविता में पुराने आख्यानों और कथनों का उल्लेख बहुत स्थानों में मिलता है। उनके गे पडो में हृदयस्थ भावों की बड़ी सुंदर व्यंजना हुई है। उनके श्रीकृष्ण लीला सहयोगी पदो में सूर के भक्त और कवि हृदय की सुंदर झाँकी मिलती है।
सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सूरदास हिन्दी साहित्य के महाकवि है, क्योंकि उन्होंने न केवल भाव और भाषा की दृष्टि से साहित्य को आकर्षित किया वरन् कृष्ण काव्य की विशिष्ट परंपरा को भी जन्म दिया।
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