उन्होंने उठकर नारद जी को प्रणाम किया, उन्हें बैठने के लिए आसन प्रदान किया। नारद जी ने आसन पर स्थिर वेदव्यास की ओर देखा और देखते ही दृष्टि प्रश्न किया- '' वेदव्यास जी! आपके मुख-मण्डल पर यह क्यों निराश है? आप अत्यधिक चिंतित हैं। वेदव्यास जी ने निःश्वास कहा कहा- ''हाँ महर्षि, मैं उदास हूँ, बहुत ही चिन्तित हूँ।'' नारद जी ने रहस्यमयी दृष्टि से वेदव्यास की ओर देखते हुए फिर कहा- उदास और चिंता का कारण? वेदव्यास जी ने चिंताग्रस्त क्षेत्र स्वर में उत्तर दिया कारण तो मुझे भी समझ में नहीं आता महर्षि! कारण जानने का मैंने प्रयास किया जान न पाया। नारद ने वेदव्यास की ओर देखते हुए फिर से कहा आश्चर्य है? महाभारत सदृश्य पुनीत महाकाव्य की रचना करने वाले वेदव्यास के मुख पर उदास! वेदव्यास जी, आपके द्वारा रचित महाभारत कोटि-कोटि मनुष्य चितानो से मुक्त हो जाएँगे, आप अपनी स्वयं की चिंताग्रस्त हो गए हैं, यह किस प्रकार की विस्मय की बात है। वेदव्यास जी ने लगता है उत्तर दिया- हाँ महर्षि! मैंने महाभारत महाकाव्य की रचना की है। मैंने मूल सदाचरण किया है, पर पिफर भी मैं चिन्ताग्रस्त हूँ मेरी समझ में नहीं आ रहा है क्या कारण से मैं अलौकिक हूँ, नारद ने कहा आपका महाभारत महाकाव्य हिंसा-प्रतिहिंसा से भरा हुआ है। हो सकता है, वही हिंसा-प्रतिहिंसा के कारण आपका मन खिन्न हो गया। वेदव्यास जी बोले- हो सकता है मेरी खिन्नता का कारण वही हो।
मैं उसके लिए जप करूँगा नारद जी। नारद ने कहा कि माता सरस्वती ने आपको ग्रन्थ की रचना के लिए भेजा है, जप के लिए नहीं, तप के लिए केवल आपका ही कल्याण होगा ग्रन्थ से कोटि-कोटि शिक्षा का कल्याण होगा। नारद जी की बात सुनकर वेदव्यास जी के विचार में उलझा हुआ था कि वे नारदजी की ओर देखते हुए यूं ग्रन्थ रचना करते हैं तो मैं चुका हूं महाभारत से बढ़ा कर ग्रन्थ मे अब नहीं लिख सकता, नारद ने कहा वेदव्यास जी, आपकी ग्रन्थ रचना अभी अधूरी है। आपने महाभारत की रचना तो की, पर अभी तक महाभारत के सूत्रधार के चरित्र का गान नहीं किया जब तक कि आप उनके चरित्र का गान नहीं करेंगे, आपकी ग्रंथ रचना हमेशा के लिए बनी रहेगी। तुमने उनके चरित्र का गान नहीं किया, यही तुम्हारे उदास होने का कारण भी हैं। यह सुनकर वेदव्यास जी उद्धरण की गहराई में डूब गए। नारद ने वेदव्यास जी के मन को झकझोरते पुनः कहा वेदव्यास जी, महाभारत में आदि से लेकर अंत तक जिस लीला पुरुष का चरित्र बोल रहा है, प्रत्येक घटना में जिसकी प्रेरणा समाई हुई है और जो महाभारत के पर्दों को उद्घाटित किया है, उस लीला-पुरूष श्री कृष्ण के चरित्र का गान जाइए, उनके चरित्र-गान से ही आपकी खिन्नता दूर होगी, आपको नया जीवन प्राप्त होगा।' यह विषात्न नारद वेदव्यासजी के मन को झकझोर वीणा बजाते चले गए और वेदव्यास श्रीकृष्ण के चरित्र का गान क्रिएट करें। वे श्रीमद्भागवत पुराण की रचना की, सही अर्थों में आज वेदव्यास जी के द्वारा संबद्ध ग्रंथ से कोटि-कोटि प्राचीन का कल्याण हो रहा है। नादियां विचार, पर्वत अपने स्थानों को छोड़ देंगे, पर वेदव्यास जी की वाणी गूंजती ही रहेगी।
एक तो सागर है, लहरें आती हैं और चली जाती हैं और सागर बना रहता है। लहरें सागर से जरा भी अलग नहीं है, फिर भी लहरें सागर नहीं है। लहरें सीफऱ् सागर से उठा हुआ स्वरूप हैं आकार दे रहे हैं, बनेंगे, मिटेंगे। जो लहर बनी है, उसकी लहर कहती है कि यह बहुत खराब है। लहर का मतलब यह है कि यह गीत और लिपि है। लहर शब्द का भी यही मतलब है, उठी भी नहीं कि जा चुकी है। जो उठती है वह सदा है, जो उठती है वह सदा नहीं है। तो सदा की छाती पर लाइव का नृत्य है। सागर तो अजन्मा है, लहर का जन्म होता है। सागर की कोई मृत्यु नहीं होती, लहर की मृत्यु होती है। लेकिन लहर भी अगर यह जान ले कि मैं सागर हूं तो जन्म और मरने के बाहर हो गई। जब तक समझ लहरती है कि लहर हूँ, तभी तक जन्मने और मरने के अंदर है। जो भी है, वह अजन्मा है, उसकी कोई मृत्यु नहीं है। क्योंकि जन्म कहां से होगा ? शून्य से कुछ पैदा नहीं होता। मृत्यु कहाँ होगी? शून्य में कुछ खोता नहीं। तो जो भी है-अस्तित्व वह तो सदा हैं समय कुछ भी अंतर नहीं कर पाता। क्योंकि इंद्रियों की पकड़ में सिर्फ आकार आता है। नाम के रूप में अतिरिक्त हमारी इंद्रिया कुछ भी पकड़ नहीं पातीं।
सब सिर्फ हमारी आंखों में फर्क है। अगर समय अनंत है, न उसका कोई विवरण है और न कोई अंत है, तो सटर साल और सात पलों में कौन सा अंतर होगा? हाँ, समय अगर सीमित हो, सौ ही साल का हो, तो फिर अगले साल और सात पलों में फर्क होगा। सात क्षण बहुत छोटे होंगे, सत्तर वर्ष बहुत बड़े होंगे। लेकिन अगर दोनों तरफ कोई सीमा नहीं है, न इस तरफ कोई प्रारभ है, न उस तरफ कोई अंत है, तो सात क्षणों में और सत्तर साल में क्या अंतर है? हमें फिर भी भ्रम हो सकता है कि सात क्षणों में और सत्तर वर्षों में कोई अंतर नहीं है। लेकिन अगर हम समय की पूरी धारा को देखें तो क्या फर्क है? अनंत की तुलना में सात क्षण भी उतने ही हैं, सत्तर वर्ष भी उतने ही हैं, कितनी देर में फूटता है बुलबुल, यह बड़ा सवाल नहीं है। बनता है उसी से फूटना शुरू हो जाता है।
इसलिए मैंने कहा कि शरीर को देखकर कहते हैं। शरीर से मेरा मतलब है, नाम-रूप से निर्मित जो दिखाई दे रहा है और आत्मा से मेरा मतलब है सागर और शरीर से मेरा मतलब है लहरें और ये दोनों ही बात एक साथ समझनी जरूरी है। नहीं तो इन दोनों के बीच अगर भ्रम पैदा हो जाए तो जगत की सारी कमाई हो जाती है। हमारे भीतर तो वह है जो कभी मर नहीं सकता। इसलिए गहरे में हम सदा ही ऐसा लगता है, मैं कभी नहीं मरूंगा। लाखों लोगों को हम मरते हुए देख सकते हैं, फिर भी यह घटना नहीं होती है कि मैं मरूंगा इसकी गहराई में कोई आवाज पैदा नहीं होगी कि मैं मरूंगा। सामने ही लोग मरते रहें और फिर भी हमारे भीतर न मरने का भाव ही सावधानी बरतें। किसी गहरे तल में, 'मैं नहीं मरूंगा' यह बात हमें जाहिर ही करती है। माना कि बाहर के तथ्य झुठलाते हैं और बाहर की घटनाएं कहती हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं नहीं मरूंगा। तर्क कहता है कि जब सब मरेंगे तो तुम भी मरोगे। लेकिन किसी भी स्वर में सारे तर्कों को काट कर भी कहा जाता है कि मैं मरूंगा नहीं।
इस जगत में कोई भी व्यक्ति कभी गारंटी नहीं देता कि वह मरेगा। इसलिये कि हम इतनी मौत के बीच जी भर के देखते हैं, न कि इतनी मौत के बीच जी भर जायें। जहां सब मर रहा है, वहां प्रतिपल हर चीज मर रही है, वहां हम किस भरोसे जीते हैं? आस्था क्या है वनवासी की? ट्रस्ट कहां है वन्य जीवन? किसी परमात्मा में नहीं है। आस्था इस आधार पर खरी है कि हम कितना ही मरते हैं कहते हैं कि मरते है, कहते हैं कोई ही चला जाता है कि मर कैसे सकता है? कोई भी व्यक्ति अपनी मृत्यु को कांसीव नहीं कर सकता। उसका धारणा नहीं बना सकता कि मैं मरूंगा। जैसा ही धारणा बनाएं, वह मिलेगा कि तो वह बच गया। अगर वह अपनी मरा हुई कल्पना करे और देखे तो भी मिलेगा कि मैं देख रहा हूँ, मैं बाहर खड़ा हूँ। मौत के अंदर हम अपनी स्थिति को कभी नहीं देखते, सदा ही बाहर खड़े हो जाते हैं। मृत्यु की कल्पना में भी असंभव है। सत्य में रखना तो बहुत कठिन है, हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं जिसमें मैं मर गया। क्योंकि उस कल्पना में भी मैं बाहर खड़ा देखता हूं। वह कल्पना करने वाला बाहर ही रह जाएगा, वह मरेगा नहीं।
बहुत ही अद्भूत बात है कि जीवन की जो भ्रांतियां हैं वे हमारे जानने वाली मिटने वाली भ्रांतियां नहीं हैं। जानने से सिर्फ हमारी पीड़ा मिटती है। जैसे शंकर ने लगातार उदाहरण लिया है कि सांप फंस गया है और रास्ता बंध गया है और अंधेरा दिखाई दे रहा है। लेकिन वह उदाहरण बहुत ठीक नहीं है। क्योंकि उसके पास आ जाने से पता चल जाता है कि रस्सी है और एक दफा पता चल गया तो आप विवरण ही दूर चले जाएं, फिर आपको सांप दिखाई नहीं दे सकता। लेकिन जीवन का भ्रम इस तरह का नहीं है। जीवन का भ्रम ऐसा है जैसे आप सीधे लकड़ी को पानी में डाल देते हैं, वह तिरछी नजर आती है। आप निकाल कर फिर देख लें कि सीधा है, फिर पानी में डाल दें, वह फिर तिरछी दिखाई देता है। हाथ डाल कर पानी में टटोल लें, तो पाएंगे कि सीधा है, लेकिन फिर भी तिरछी दिखाई देती है। आपके ज्ञान से उसका तिरछे होने का रूप नहीं मिटता हां, लेकिन तिरछी है, इसका भ्रम मिट जाता है।
अब आप मान कर चलेंगे कि लकड़ी सीधी है और देखते हैं कि लकड़ी तिरछी है। यह दो तल पर बंटी बातें-जानने के तल पर लकडी सीधी होगी, देखने के तल पर लकड़ी तिरछी होगी। इन दोनों में कोई भी भ्रांति नहीं है। जीवित के तल पर शरीर होगा, बाहर के तल पर शरीर होगा, अस्तित्व पर तल पर आत्मा होगी। खो नहीं जाएगा_ऐसा नहीं कि ज्ञानी को संसार खो जाता है। ज्ञानी को संसार ठीक वैसा ही होता है जैसा आपको होता है। शायद और प्रगाढ़ होकर स्पष्ट होता है और स्पष्ट होता है। रोआं-रोआं की दृष्टि उनकी दृष्टि में होती है। खोया नहीं। लेकिन अब वह भ्रम में नहीं है। अब वह अनजान है कि उसकी इंद्रियों से उभरती हुई लकड़ी जैसे पानी के तिरछी में दिखाई देती है, क्योंकि जीभ का रूपान्तरण हो जाता है। पानी में प्रभाव की यात्रा बदल जाती है। किरणें थोड़ी झुक जाती हैं, उनके चढ़ाई की वजह से लकड़ी तिरछी दिखाई देती है। हवा में किरणें एक तरह से चलती हैं, झुकती नहीं हैं, क्योंकि लकड़ी तिरछी दिखाई नहीं देती। लकड़ी तिरछी नहीं होती है, लकडियां जिस पर किरणें दिखाई देती हैं, वह तिरछी हो जाती है। लेकिन वह पीछे नहीं दिखाई देता। किरण तिरछी हो जाती है, तो किरण के तिरछे होने के कारण काठ तिरछी दिखाई देती है। अस्तित्व तो जैसा है वैसा ही है, लेकिन इंद्रियों से गुजर कर जो ज्ञान की किरणें हैं, वह थोड़ी तिरछी हो जाती हैं। जानने का जो तरीका है, वह माध्यम की वजह से बदल जाता है। जैसे कि मैंने एक नीला चश्मा लिया, अब कुछ चीजें नीली दिखने लगीं। मैं चश्मा उतर कर नीचे देखता हूं, मैं चीजें सफेद है। फिर धब्बे दिखाई देते हैं, वे फिर नीले दिखाई देते हैं। अब मैं जानता हूं कि चीजें सफेद हैं लेकिन फिर भी पहचानने से नीला दिखाई देता है। अब मैं यह भी हूं कि यह पहचानने की वजह से नीला दिखाई दे रहा है, बात खतम हो गई। चीजें नीली दिखती हैं, और मैं जानूंगी भली चीजें कि चीजें सफेद हैं।
एक मूर्ख राजा के राज्य में तीन पैसे में एक किलो मिठाई और एक किलो का जू मिलता था। एक गुरु और शिष्य अलग-अलग राज्यों में शिक्षा ग्रहण करते हुए राजा के राज्य में पहुंच गए। शिष्य हमेशा गुरुजी के साथ रहते थे, उनकी सेवा करते थे और उनके लिए खाना लाते थे। जब शिष्य उस राज्य में पहुंचकर गुरूजी के लिए खाना लेकर आया तब उसने खाने की जगह पर बहुत सारी मिठाइयां लीं। मिठाई खाने के बाद गुरूजी ने शिष्य से प्रश्न पूछा, 'आज भोजन में मिठाइयां कैसे लायें, इतने पैसे कहां से आयें?' शिष्य ने बताया, 'ज्यादा पैसे तो जमा नहीं रहे मगर इस राज्य में तीन पैसे में एक किलो मीठा मिलता है और दाल का मांस मिलता है। आपके द्वारा खरीदा हुआ सस्ता मिल रहा है तो मीठा मीठा खायेंगे क्योंकि मिठाई लेकर आया हूं।
शिष्य की बातों से गुरुजी गया कि यह राज्य अंधेर नगरी है। उन्होंने तुरंत शिष्य से कहा, 'अब हम यहां एक पल भी नहीं रहेंगे, यहां से तुरंत आगे की यात्रा के लिए निकलेंगे' मगर शिष्य ने गुरुजी से कहा, मुझे यह जगह बहुत पसंद आई है, मैं तो यही चाहता हूं क्योंकि हम अभी नहीं बल्कि कुछ दिनों के बाद यहां से आगे आएंगे। गुरुजी ने शिष्य को योजना, 'मूर्ख यह राजा का राज्य है, यहां ज्यादा दिन रहना ठीक नहीं है' लेकिन शिष्य ने गुरुजी की एक न सुनी, उसने जिद की कि मैं तो देखूंगा। अपने जिद पर अटल रहते हैं शिष्य शिष्य उसी राज्य में रहते हैं और गुरुजी वहां से आगे की यात्रा के लिए चलते हैंडें।
कुछ दिनों बाद उस राज्य में एक घटना हुई। राज्य का एक व्यक्ति बन रहा था। उसी पर एक दीवार गिरकर मर गई। मरने वाले इंसान का भाई राजा के पास गया और उसने कहा, 'मेरे भाई पर पफलां-फला घर की दीवार गिरने की वजह से वह मर गया क्योंकि उस घर के मालिक को सजा दी गई।' यह सुनकर अपने सिपाहियों को आदेश दिया कि जिस घर की दीवार गिरने से इस इंसान का भाई मर गया उस घर के मालिक को पकड़कर हमारे सामने पेश किया। सिपाहियों ने तुरंत राजा के आदेश का पालन किया और उस मकान मालिक को पकड़कर राजा के सामने देखा। राजा ने मकान मालिक से कहा, तुम्हारे घर की दीवार एक इंसान पर गिरने की वजह से वह मर गया क्योंकि उसके ऊपर चढ़ाया जाएगा। घर के मालिक ने अपनी सफाई में कहा महाराज इसमें मेरी कोई गलती नहीं है। इसमें मिस्त्री की गलती है। मिस्त्री ने दीवार बनाई क्योंकि वह गिर गया।
राजा ने कहा 'ठीक है, उस मिस्त्री को पकड़कर लू, साथी फिर दौड़कर गया और मिस्त्री को पकड़कर लाये। राजा ने उससे कहा, तुम्हारी गलती से एक व्यक्ति की मूर्ति की मृत्यु हो गई क्योंकि वह व्यक्ति द्वारा दी गई सजा विचारों को पूरा कर रहा था। मिस्त्री ने भी अपनी सफाई देते हुए कहा, इसमें मेरी गलती नहीं है। इसमें उस इंसान की गलती है, जो सिमेंट में पानी मिला था। सिमेंट में अधिक पानी मिलाने के कारण दीवार घातक हो गई क्योंकि वह व्यक्ति गिर गया और उसकी मृत्यु हो गई।'
राजा ने अपने सिपाहियों को फिर से आदेश दिया कि जाओं, उस इंसान को पकड़कर लू, जिसने लोगों में ज्यादा पानी भेजा।' उसे भी किंग के सामने लाया गया। उसने दुहेला दी कि महाराज! इसमें मेरी कोई गलती नहीं है। मैं जब कपड़ों में पानी मिला रहा था तब वहां से एक और गुजर रही थी। वह और एक नया अर्थ धारण कर रही थी। मेरा पूरा ध्यान वहां गया था क्योंकि कारणों में ज्यादा पानी डाल दिया। उसकी बात सुनकर राजा को लगता है कि वह सही कह रहा है।
बादशाह ने उस औरत को दरबार में हाजिर होने का हुकूम दिया। उस और को दरबार में लाया गया और उससे कहा गया, जिससे वह नई अधिकारपूर्ण पोशाक बना रही थी, जिससे इस व्यक्ति का पूरा ध्यान आपकी ओर गया, और उसने ठिकाने में ज्यादा पानी वाली संदेश और मिस्त्री ने दीवार बनाई, एक इंसान की ऊपर की तस्वीर और वह इंसान मर गया। अब दी गई सजा के विचार।' उस औरत ने अपनी सफाई पेशी की कि 'इसमें मेरी कोई गलती नहीं है, मेरी सहेली ने मुझे नई अधिकार दी थी क्योंकि मैंने पहनी थी।' राजा को लगा कि वह ठीक कह रहा है। राजा ने फिर सिपाहियों से कहा, 'इस औरत की सहेली को पकड़कर ब्लू।' सिपाहीं ने उस औरत की सहेली को पकड़कर। राजा ने कहा, ईश्वर फांसी पर चढ़ाया जाएगा क्योंकि अपना अधिकार अपनी सहेली को दिया जाएगा। दूसरा राइटिक पहनावा उसने बाजार से निकली, उसे देखने की धुन में ट्वीटर में ज्यादा पानी मिला दिया। जिस वजह से मिस्त्री ने दीवार बना ली और वह दीवार एक इंसान पर गिर गई और उसकी मौत हो गई क्योंकि ईश्वर फाँसी की सजा पाएगा।' सहेली ने कहा, 'नहीं, इसमें मेरी कोई गलती नहीं है। यह अधिकारिक मेर पति ने मुझे तोहफे में दी थी, जो मैंने अपनी सहेली को धारण के लिए दी थी।' राजा ने अपने पति को पकड़कर आने का आदेश दिया। पति को भी बताई पूरी कहानी। उस पति के पास और कुछ कारण नहीं था। छत ने कहा, मुझे माफ कर दो। मैंने यह गलती नहीं दिखाई।' राजा ने कहा, 'तुमसे गलती हो गई है, अब वर फाँसी की सजा दी गई है।'
जब उस इंसान को फाँसी पर चढ़ाया जा रहा था तब राजा भी वह फाँसी देखने के लिए आया। राजा को देखना था कि उसने जो फैसला किया है, उसका अंजाम क्या होता है। उस वक्त ने देखा कि जो फाँसी का फंदा बनाया गया था, वह बड़े आकार का था और जिसे फाँसी दी जा रही थी, वह इंसान बहुत हड़बड़ा गया था। उसकी गर्दन इतनी पतली थी कि फंदा उसके गले में ठीक से नहीं बैठ रहा था। सिपाहियों को लगा कि उसके लिए नया फंदा बनवाना पड़ेगा। जब उन्होंने नया फंदा बनवाने के लिए राजा से आज्ञा ली तब राजा ने कहा, 'नया फंडा बनाने की जरूरत नहीं है। एक ऐसा इंसान पकड़कर लाओ, जिसकी गर्दन मोटी हो।'
आप समझ सकते हैं कि एक मूर्ख राजा के दरबार में निर्दोष लोग भी कलाबाजियां खाते रहते हैं! फिर सिपाही ऐसे इंसान को जानने के लिए निकले, जिसकी गर्दन मोटी हो। सिपाहियों को जो सबसे ज्यादा मिठाइयाँ खा रहा था, उनकी गर्दन सबसे मोटी मिली। उन्हें वही शिष्य मिला और उन्होंने उसे पकड़कर राजा के पास लाया। राजा ने शिष्य से कहा, 'तुम्हें फाँसी दी विचार।' उसने पूछा, 'क्योंकि मुझे फाँसी दी आईडियाज़? तब जवाब में उसे पूरी कहानी बताई गई कि 'एक इंसान की मौत दीवार के गिरने की वजह से हुई क्योंकि मिस्त्री ने दीवार बनाई थी। कपड़े में ज्यादा पानी मिला था क्योंकि वह मजदूर को देख रहा था, जिसकी नई सार्थक पोशाक थी। वह प्रासंगिक औरत को उसकी सहेली ने दी थी। सहेली को उसके पति ने अधिकार दी थी। उसके पति का गरदन बहुत पतला है, जिससे फाँसी को फंदा ठीक से चित्र नहीं है, तुम्हारे गरदन मोटे हैं क्योंकि ईश्वर फाँसी के विचार हैं।' यह सब सुनकर शिष्य ने कहा, 'यह कैसा तर्क है? उनका गरदन पतला है और मेरा गरदन मोटा है।' उस शिष्य ने अपने निरापराध होने का प्रमाण राजा को देने के लिए अपनी बुद्धि का पूरा उपयोग किया।
फिर भी नहीं माना उस तब शिष्य को पहली बार पता चला कि बुद्धि से कुछ राजा नहीं होता। इसी बात का एहसास होने के कारण गुरुजी उन्हें छोड़कर चले गए थे। असल में वे छोड़े नहीं गए थे, वे उस शिष्य के आस-पास ही थे और वे सब देख रहे थे। जब शिष्य ने बुद्धि से पूरा काम लिया तब उसे गुरूजी की याद आई। गुरुजी की याद आना भी बड़ी कृपा है। शिष्य को याद आया कि गुरुजी ने ठीक ही कहा था कि मुर्ख राजा के राज्य में रहना खतरनाक है। जिस राज्य में किंग सस्ता और दाल महंगी बेचता है, वह कुछ सब्सक्राइबर है। कोई शुभ कार्य नहीं हो सकता। जब उसने अपने गुरुजी को याद किया तो वह वहां पहुंचा।
उसने गुरुजी से अनुरोध किया कि 'आपने कहा था कि यहां मत भरें लेकिन मैंने प्रविष्टि जिद की। अब मुझे समझ में आया कि आपने ऐसा क्यों कहा था। उस समय मैंने आपकी बात मानी तो आज मेरी ऐसी स्थिति नहीं हुई। आज मैं फाँसी पर नहीं चढ़ता।' गुरूजी ने शिष्य से कहा, 'जो हो गया वह ठीक है लेकिन इसके बाद तुम मेरी आज्ञा प्राप्त करने के लिए तैयार हो? तब शिष्य ने अपनी गलती मानते हुए गुरुजी से कहा, 'अब आप जो कहेंगे, वही मैं देखता हूं। फिर चाहे वह बात तारिक लगे या अतार्किके, अब आपके पूर्वाधिकारी की मेरी पूरी तैयारी है।' तब गुरुजी ने उससे कहा, 'तुम राजा के सामने मुझसे कहो कि मुझे आज फाँसी पर चढ़ना है, मैं ही फाँसी पर चढ़ूँगा और कोई नहीं।' यह सुनकर शिष्य ने सोचा, 'मैं तो लड़के के कारण याद कर रहा था कि गुरूजी आयेंगे और मुझे फाँसी से बचायेंगे मगर गुरूजी तो अकेले कह रहे हैं। इस विचार के बावजूद शिष्य गुरुजी की बात के लिए तैयार हुए। उसने सोचा, 'गुरूजी ऐसा कह रहे हैं तो जरूर कोई वजह होगी।' उनके मन में ऐसा भी विचार आया कि 'कम से कम आखिरी घड़ी में सूक् तो होगा कि अंतिम समय में मैंने गुरुजी का कहा माना, सत्य की बात सुनो।
जराजा ब के सामने उस शिष्य को लाया गया तब गुरुजी ने राजा से कहा, 'मैं आज ही फाँसी पर चढूंगा।' गुरुजी की बात सुनकर शिष्य को आश्चर्य हुआ कि गुरुजी क्या कह रहे हैं। शिष्य ने कहा, 'मैने वचन दिया है तो मैं ही फाँसी पर चढूंगा। गुरूजी ने कहा, 'मुझे ही फाँसी पर चढ़ाओ।' शिष्य ने फिर से जवाब दिया, 'नहीं, मुझे फाँसी पर चढ़ो।' इस तरह गुरूजी और शिष्य दोनों फाँसी पर बातों के लिए साम करने लगे। उनके साम देखकर राजा ने पूछा, 'आप दोनों फाँसी पर बातें के लिए शामक क्यों कर रहे हैं? तब गुरुजी ने राजा को बताया, 'इस घड़ी जो भी फाँसी पर चढेगा, वह स्वर्ग में ही होगा।' राजा को स्वर्ग की कल्पना भी बताई गई। राजा ने जब सुना कि इस शुभ मुहूर्त में जो फांसी पर चढ़ेगा, वह स्वर्ग में जाएगा तो उसने कहा, 'कोई फाँसी पर नहीं चढ़ेगा, मुझे फाँसी पर चढ़ना है। कहानी के अंत में गुरुजी ने उस राजा (तोलू मन) को ही फाँसी पर लटकाने के लिए उकसाया क्योंकि गुरुजी थे कि मुर्ख राजा मरेगा तो राज्य में सभी लोग खुश होंगे। फिर भी दाल सस्ती हो जाए, मिठाई महंगी हो जाए लेकिन यह सही है। अंत में राजा को फाँसी दी गई, राजा की मृत्यु हो गई और गुरु-शिष्य वहाँ से चले गए। उस राज्य के सिपाही, जो भाग-दौड़ कर रहे थे वे भी खुश हो गए, उनके दुखों का भी अंत हो गया।
हमारी हालत ऐसी है कि अंधेरे में डूबा हुआ आदमी अंधेरे से ही रोशनी का अनुमान लगाये उसके पास और कोई उपाय नहीं है। हालांकि अंधेरा भी प्रकाश का ही धीमा रूप है, अंधेरा भी प्रकाश के बहुत कम होने की स्थिति है। कोई अंधेरा ऐसा नहीं है जहां प्रकाश न हो। क्षीण होगा। और क्षीण भी कहना ठीक नहीं है, केवल हमारी इंद्रियों की पकड़ के लिए क्षीण है। हमारी इंद्रियां नहीं पकड़ पातीं अन्यथा हमारे पास से इतने बड़े प्रकाश के बवंडर निकल रहे हैं जिसका कोई होश नहीं, हम देख ले तो हम अंधे हो जाएं। लेकिन इंद्रियां उन्हें पकड़ नहीं पाती हैं। अँधेरा हो जाता है। जब तक एक्स-रे नहीं था, हम सोच भी नहीं सकते थे कि आदमी के भीतर भी किरणें आर-पार हो रही हैं। हम सोच भी नहीं सकते थे कि किसी दिन किसी व्यक्ति के शरीर के अंदर की तस्वीर बाहर आ जाए। आज नहीं कल और दीप किरणें खोजती हैं विचार और हम एक बच्चे के, मां के पेट में जो पहला अणु है, उसकी आर-पार किरणों को अपलोड करें किसी दिन तो हम उसका पूरा जीवन देख लेंगे कि वह क्या-क्या हो जाएगा। इसकी पूरी संभावना है।
हमारे पास से बहुत तरह का प्रकाश गुजर रहा है, हमारी आंख नहीं पकड़ती। नहीं पकड़ती हमारे लिए अँधेरा है। जिसे हम अँधेरा कहते हैं, उसका कुल मतलब इतना ही है कि ऐसा प्रकाश जिसे हम पकड़ नहीं रहे हैं, इससे ज्यादा नहीं। लेकिन फिर भी अंधेरा छाने लगेगा कोई आदमी प्रकाश के बाबत जो भी अनुमान लगाएगा वे गलत होंगे। माना कि अंधेरा प्रकाश का एक ही रूप है, फिर भी अंधेरे से प्रकाश के बाबत जो भी अनुमान लगाएंगे वे गलत होंगे। माना कि मृत्यु भी अमृत का एक रूप है, फिर भी मृत्यु से अमृत के बाबत जो भी अनुमान लगाएंगे वे गलत होंगे। हम अमृत को जान ले तो ही कुछ होता है, अन्यथा कुछ भी नहीं होता।
अवेकन के रूप से हम ग्रहण नहीं करते कि हम जन्म ल अनाकन रूप से केवल एक ही अवसर ग्रहण करता है, वह तब आता है जब पूरी तरह से स्वयं को व्यक्ति जान लेता है। वह घटना घटित होती है जिससे आगे कुछ नहीं होता। ऐसा क्षण आ जाता है जब वह व्यक्ति कह सकता है कि अब मेरे लिए कोई भविष्य नहीं है, क्योंकि मेरे लिए कोई वासना नहीं है। ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं न पाऊं तो मेरी कोई पीड़ा है। यह बहुत ही शिखर का क्षण है-पीक। इस शिखर पर ही पहली स्वतंत्रता मिलती है।
यह बडे़ मजे की बात है और जीवन के रूप में एक ऐसा है जो स्वतंत्र हो सकता है वे स्वतंत्र नहीं हो सकते हैं और जिनकी कोई इच्छा नहीं है वे स्वतंत्र हो जाते हैं। जो चाहते हैं कि यहां जन्म ले लें उनके लिए कोई उपाय नहीं है और जो अब इस स्थिति में है कि कहीं जन्म लेने का कोई प्रश्न नहीं हो रहा है और वह इस सुविधा में है कि वह चाहे तो कहीं ले जाएं। लेकिन यह भी एक ही जन्म के कारण संभव हो सकता है। इसलिए नहीं कि एक जन्म के बाद स्वतंत्रता नहीं रहेगी, क्योंकि यह नहीं कि जन्म के बाद स्वतंत्रता का उपयोग करने का भाव भी खो जाएगा। वह अभी रहेगा। स्वतंत्रता इसी जन्म में मिलती है यदि आपको घटना घटित हुई परम अनुभव की, तो स्वतंत्रता तो मिल गई लेकिन जैसा कि सदा होता है, स्वतंत्रता मिलने के साथ ही स्वतंत्रता का उपयोग करने की जो भाव-दशा है वह सटीक नहीं खोई हुई सोच है। उसका अभी उपयोग किया जा सकता है। जो बहुत गहरे जानते हैं वे कहते हैं, यह भी एक बंधन है।
परमात्मा तो चौबीस कार्य चारों ओर तरपफ़ मौजूद है। लेकिन पर्स न होने से उन्हें कोई काशी मिलेगा, कोई कैलाश स्मारक बनेंगे। पृष्ठ न होने से हम कहीं और विवरण छोड़ चुके हैं। पत्ते हो तो श्वास-श्वास में, हवा के कण-कण में, वृक्ष के पत्ते-पत्ते में वह मौजूद है। वही मौजूद है तो कोई भी नहीं है। उसका अतिरिक्त और किसी का कोई अस्तित्व नहीं है। लेकिन उसका कोई पता नहीं चलता। उसका हमें कोई पता नहीं चलेगा। ऐसा नहीं होता क्योंकि यह बाहर चल रहा है, ऐसा ही उपद्रव हम सबके भीतर भी चल रहा है। विचार का झंझावात अंदर है, वह जोर से चल रहा है। हम शामिल हैं। खाली जगह का पता नहीं चलता। खाली जगह का प्रवाह ही नहीं होता। हम भी रौशनी चाहते हैं, लेकिन अमावस्या की काली रात कौन चाहेगा? हम भी खाते चाहते हैं, लेकिन विरह कौन भोगेगा? हम भी परमात्मा के आनंद में डूबना चाहते हैं, लेकिन उसका दर्द? हमने किसी मां को बच्चा होते हुए देखा है और जब बच्चा पैदा होता है और मां की आंख पहली बार अपने बच्चे को उठाती है, तो उसकी आंखों में आनंद का सुप्रीम भाव आता है। लेकिन जन्मदिन की पीड़ा कौन भोगेगा? वह जन्मतिथि की पीड़ा के बाद मुस्कुराती है।
शबरी का जीवन भगवत् प्रेम से ओत-प्रोत रहा। वह मतंग ऋषि के सानिध्य में अपने अजायबघर के नजदीक ही एक कुटिया में रहता है। ऋषि के अज्ञान पर उनकी सेवा करना ही उनका मार्ग था। उसने मतंग ऋषि को ही अपना गुरु मान रखा था, इसलिए गुरु के आदेश का पालन करने के लिए वह तत्परता से करती थी, शबरी एक सदाचारवान भक्ति परायण महिला थी। उनकी सेवा से ऋषि प्रसन्न हुए थे।
एक दिन मतंग ऋषि ने शबरी से कहा अब मैं यह देह त्याग करूंगा। तुम इसी अजनबी पर रहना भक्त वत्सल प्रभु श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण सहित इस अजनबी पर आयेंगे भगवान श्रीराम का दर्शन ही तुम्हारी सेवा का श्रेष्ठ फल होगा। राम अपनी पत्नी सीता की खोज करते हुए यहां आएंगे, तुम उन्हें सुग्रीव का पता बताओ कि प्रभु राम तुम पर कृपा करेंगे। इसके बाद मतंग ऋषि ने योग-विधि से अपना देह त्याग दिया। शबरी को अपने गुरु के शब्दो पर पूर्ण विश्वास था, वह प्रभु श्रीराम के आगमन की बाठ जोहने लगे, शबरी का मन रामाकार हो गया उसका मार्ग में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया। वह प्रतिदिन कुटिया तथा मार्ग की सफाई करता है। मौसम के अनुसार पुष्पों और सावन को डलिया में जुनून। पूरे समय वह राम के आने की बात करते रहे। उनका एक ही विचार मन में समाया था कि राम आयेंगे। राम जब आए, यही काम वह दिन-रात अवमान रहता था।
शबरी के तन- मन की स्थिति ऐसी हो गई थी कि तनिक-सी आहट होने पर या वृक्षों के पत्तों के खड़-खड़ाने पर भी वह कुटिया के बाहर निकलकर दूर तक कहते हैं कि कहीं भी प्रभु श्रीराम के आने की यह आवाज हो। उसने श्रद्धा-विश्वास और प्रीति के साथ अपने मन की डोर श्रीराम से बांध रखी थी। भगवान श्रीराम के आगमन का इन्तजार करते-करते वह वृद्धा हो गई। भगवान राम के आतिथ्य-सत्कार की तैयारी ही शबरी की जीवनचर्या थी। यही योग-साधना थी, राम का नाम ही उसके अंतःकरण में था और राम का नाम ही उसका मंत्र-जप था। वह सहज योग से भक्तिमार्ग पर रचनाएं हो जाती हैं। शबरी की ऐसी मार्ग देखकर वन के अन्य ऋषि-मुनि कहते हैं कि बुराई तत्त्व वेत्ता, तपस्वी एवं सिद्ध पुरुषों के अज्ञानों को छोड़ प्रभु श्रीराम उनके कुटिया पर क्यों आयेंगे? लेकिन शबरी को इस प्रकार की बातों का मलाल नहीं होता क्योंकि वह दिव्य योग की स्थिति में पहुंच चुकी थी। उनकी निंदा-स्तुति, लाभ-हानि तथा जीवन-मृत्यु से कोई वास्ता नहीं रहा वह प्रति पल श्रीराम के आने की बात जोहती रहती थी। एक दिन शबरी ने देखा कि वनवासी वस्त्र धारण करते हुए धनुर्धारी श्रीरामजी अपने अनुज लक्ष्मण सहित अपने अज्ञान पर आ गए। राम को देखते ही व आत्म विभोर उनके स्टैग पर गिर गए। वह पूजा-आराधना, विनती तथा स्वागत-सत्कार करना बिल्कुल नहीं दी गई थी, प्रभु राम ने उन्हें उठाया था।
शबरी ने कुछ संभलकर राम और लक्ष्मण को आसन पर बैठाया और फल उनके सामने रखने की मांग की। प्रभु राम शबरी के द्वारा दिए गए पफल प्रसन्नता से खा रहे थे, शबरी की प्रभु और भगवत् प्रेम अतुलनीय था। शबरी ने हाथ जोड़कर कहा प्रभु-पूजा-पाठ, मंत्र जप और योग-विधि कुछ भी मैं नहीं कहता हूं मेरे गुरु जी मतंग ऋषि ने अपना शरीर का त्याग करते समय मुझसे कहा था कि इसी अज पर तुम्हारे पास राम अनुज लक्ष्मण सहितेंगे आय, मैं उसी दिन से आपके आने की राह देख रहा था। आज आप आ गए मैं आपके दर्शन करके धन्य हो गया! श्रीराम ने कहा हे भामिनी! मैं केवल भक्ति का नाता बना रहा हूँ आपके भीतर तो भक्त के सभी गुण हैं।
भगवान श्रीराम ने शबरी को नव भक्ति का उपदेश देते हुए कहा कि 'पहली भक्ति सन्तों के पास निवास करना अर्थात् सतसंग करना है। गुरु कथा प्रसंगों में प्रेम होना प्रकार की भक्ति है। सावधान अनुपयोगी के चरण कमलों की सेवा करना तीसरी भक्ति है। कपट त्याग करके गुरु गुणगान करना चौथे प्रकार की भक्ति है। गुरु नाम का जप करना तथा गुरुमय में दृक् विश्वास रखना पांचवीं भक्ति है। इन्द्रियों का निग्रह, शील-स्वभाव, बहुत से कार्यो से वैराग्य तथा निरन्तर सन्त-पुरूषों के धर्माचरण में लगे रहें छठे प्रकार की भक्ति है। जगत् को समानता से गुरुमय संदर्भ में ओट-प्रोत दृश्य तथा सन्तों को गुरुमय से भी अधिक अनुभव सातवीं भक्ति है जो कुछ प्राप्त होए, उसी पर सन्तोषना तथा स्वप्न में भी दूसरों के दोष नहीं देखें आठवीं भक्ति है। भक्ति का नवां प्रकार सरलता है, सब के साथ कपट अनुपयोगी व्यवहार करना, हृदय में गुरु की गारंटी तथा किसी भी स्थिति में हर्ष और विषाद का नहीं होना चाहिए।'
श्रीरामचरितमानस में श्री राम द्वारा नवधा भक्ति का उपदेश बहुत ही सुन्दर शास्त्रों में इस प्रकार वर्णित है- नवधा भी गति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुन धरू मन माहीं, प्रथम भगति संत संह कर संगा।। दूसरी रति मम कथा प्रसंग, गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।। चौथि भगति मम गुन गन करि कपट तजि गान, मंत्र जप मम दृक् विस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा।। छठ दम सील बिरति बहु कर्मा, निरत निरंतर सदृश धर्म, सातवँ सम मोहि मय जग देखा।। मोतें संत अधिक करित लेख, आठवँ जथलाभ संतोषा, सपनेहूँ नहीं देखइ परदोषा।। नवम सरल सब सन छलहीना, मम भरोसियँ हरष न दीना।।
भगवन श्रीराम ने शबरी को समना कि हे भामिनी! जिस स्त्री-पुरूष या जड़-चेतन में इन नौ प्रकार की भक्तियों में से एक भी प्रकार की भक्ति होती है, वह मुझे प्रिय होता है। फिर आप में तो सभी प्रकार की दृक् भक्ति है। मेरे दर्शन का यह अनुपम फल प्राप्त होता है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। इसलिए ऐसा भाव योगियों को भी दुर्लभ है, वहीं दिव्य भाव आज आपके लिए सुलभ हो गया है। भगवान के घेरे पर शबरी ने उन्हें सुग्रीव का पता बताते हैं उनसे मित्रता करने की सलाह दी, जिससे सीता की खोज हो सके। भक्तिमती शबरी ने राम का दर्शन कर उनके चरण कमलों को हृदय में धारण किया और प्रभु श्रीराम के विशेष ही उन्होंने योगाग्नि से देह त्याग दिया। उसने पद प्राप्त किया, जहाँ से वह संसार में वापस नहीं आता है। शबरी कि भक्तिमयी जीवनचर्या प्रभु-भक्तों को प्रेरणा प्रदान करती है। ईशावतार राम ने शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश प्रदान कर भक्ति पथ पर गिने-चुने लोगों का कल्याण किया है।
हमने भगवान श्रीराम जी की मुस्कान वाली तस्वीर को ही ख्याल में रखा है और हम देखते हैं कि जब वह मौका आए कि हम भी ऐसे ही आनंद से भर जायें। लेकिन मैं वह तस्वीर छोड़ देता हूं जो रोती हुई है, जब प्राण आंसू-आसूं हो गए हैं, जब कि हृदय क्षार-क्षार है, जब कि वह आंसुओं के और कुछ भी नहीं हैं जब कि कॉल करने के लिए और कुछ भी नहीं हैं। वह हमारी सोच में नहीं है। परमात्मा के रूप में सद्गुरू को आधा नहीं चुना जा सकता है, उसे पूरा ही शेयर पडेगा, उसका पहला हिस्सा पूरा करना पडेगा, तब दूसरा हिस्सा पूरा होता है। फूल तो कोई भी पसंद कर लेता है, लेकिन बीज की हड्डी की मेहनत भी है और पफूल को तो कोई भी मुस्कान प्राप्त कर लेता है, साथ में जो काँटे होते हैं। उन्हें कोई ग्रहण नहीं करता।
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलास चन्द्र श्रीमाली जी
प्राप्त करना अनिवार्य है गुरु दीक्षा किसी भी साधना को करने या किसी अन्य दीक्षा लेने से पहले पूज्य गुरुदेव से। कृपया संपर्क करें कैलाश सिद्धाश्रम, जोधपुर पूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन से संपन्न कर सकते हैं - ईमेल , Whatsapp, फ़ोन or सन्देश भेजे अभिषेक-ऊर्जावान और मंत्र-पवित्र साधना सामग्री और आगे मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए,