मौन न तो अंग्रेजी होता है, न हिन्दी, न उर्दू, बल्कि यह हृदय की भाषा है। हृदय, प्रेम एवं आत्मा का निवास स्थान है, क्योंकि यह प्रेम एवं आत्मा की भाषा है। इसे सीखें नहीं, यह प्रकृति एवं परमात्मा की वाणी है। अंतरात्मा की कहानी है।
मौन का अर्थ केवल वाणी, बोली या भाषा का नहीं होना या उंगली नहीं है, बल्कि मौन का अर्थ है मन का नहीं होना। शोरगुल, वाणी का प्रभाव या आवाज बंद हो जाना मात्र मौन नहीं है, बल्कि मौन है अस्तित्व में आ जाना। मौन अस्तित्व की भाषा है मौन आत्मान का स्वररहित संगीत है, जो मन के विसर्जन से ही उपलब्ध होता है। मौन आत्मा का सुवास है, यह रोयें-रोयें को तृप्त कर दिग-दिगन्त तक उठाती है।
बाहर का मौन इनसाइड रिदम, हार्मोनी संगीत से जोड़ने में सहयोगी है। अन्तर्मन ही हमारा सिद्धांत का स्वभाव है। मौन आत्मा की अनुपयोगी ऐसा अनन्त, आनंदमयी, अलौकिक, धरता, सनातन, अलौकिक, अपूर्व एवं नित्य नूतन आलोक है, जिसे अंतः चक्षु से ही निखरा जा सकता है।
मौन अर्थात मन का विसर्जन अर्थात् मन ही नहीं हो रहा, मिट गया, शून्यवत् हो गया, भीतर तक की भाषा, कोलाहल समाप्त हो गया, फिर जो घटना घटती है, वह मौन की घटना है। यह घटना मनुष्य के अन्तरात्मा को रूपान्तरित कर देती है। जीवन को समग्रता प्रदान करता है। इस घटना के बाद मनुष्य नहीं रह जाता, जो शान्त मन से पहले की स्थिति में होता है। उसका विचार, उसका चिन्तन, उसकी शक्ति धारण में एक अलग तरह की चमक आ जाती है। वह मनुष्य से मुनि बनने की क्रिया की ओर गिने-चुने होने लगता है।
जब मन नहीं होता है तो अमन शांति का भाव होता है। मानव सही अर्थों में अपनी दिव्यता प्राप्त कर लेता है। मन के शून्य होने से ही मनुष्य घबराना सीखता है, अन्यथा अहंकार का विचार माना जाता है। इसलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने शास्त्रों में कहा है कि एक साधक को सप्ताह में एक दिन मौन रहने की क्रिया भी करें जिससे हमारे अंदर की अशान्ति, विश्वास, द्वेष, प्रतिस्पर्धा, तनाव, दर्द, क्रोध, हिंसा और इन सभी मौन में विनाशना ही होता है। जहाँ मन की समन्वयियाँ जल जाती हैं। सोना कुंदन बन जाता है।
तन, मन अर्थात तलों पर बोली का मिट जाना, वाणी का मूल हो जाना अर्थात समस्त छाप को शून्य बना लेने की कला मौन है, और जो फिर बचता है, वह है, आध्यात्मिक अर्थ में वही सही साधक, ऋषि-मुनि है। सकारण जब हम मौन होते हैं, तब वाणी हमारी तो मौन होती है, परन्तु हम शरीर से बोलते हैं। अनुसूची और अन्य भाव-भंगिमाओं से बातचीत शुरू करते हैं। यह मौन नहीं है। जब शांत होते हैं उस समय भी हम कई सगे-सम्बन्धियों, मित्र-शत्रु आदि कई वर्णों को मन से निर्मित कर लेते हैं। प्रत्यक्ष में कोई नहीं है, परंतु कल्पनाओं में बातचीत व चर्चायें छिड़ जाती हैं। यह मौन नहीं होता मौन की तत्परता है आपके गिरने की क्रिया जिसके माध्यम से हम आपके विचारों में दृष्टिकोण का भाव ला पर्याप्त हैं।
ध्यान, स्वास्थ्य एवं समग्रता की भाषा है-मौन। बैठें, सोयें, शरीर की प्रत्येक गतिविधि के प्रति होश लायें। शरीर का हिलना-डुलना, करवाना यानी शरीर के विभिन्न प्रकार शरीर के वाचाल होने के लक्षण हैं। शरीर की इस भाषा यानी हर गतिविधि के प्रति अलग होश स्थिति, शरीर वैसे ही मौन में उतेरगा, श्वास सेतु है, शरीर, मन तथा चेतन के मध्य। श्वास सेतु के दुर्घटना में आत्मा में गिरने पर पहले शरीर, फिर मन के पार मौन जिससे हमारी आत्मा की यात्रा शुरू होती है। जिसे पूर्व आनंद कहा जाता है, यह प्राणों का अनहद नाद, अजपा जप की मधुर ध्वानि होती है जिसका केवल अनुभव किया जा सकता है, उस संगीत की विहीता शरीर पर इस कदर छा जाती है, जिसका संचार मौन साधक ही कर सकता है।
जब हम मौन धारण करते हैं, तो एक पूर्व आनंद की अनुभूति होती है, जिससे हमारे शरीर में एक नया ऊर्जा का आणविक विस्फोट होता है, जो काफी मात्रा में ऊर्जा संबंद्धित होता है। इसी ऊर्जा का उपयोग हमारे वैदिक ऋषि-मुनि वरदान के रूप में शापित के रूप में करते हैं। इसलिए शास्त्रों में मौन को सर्व श्रेष्ठ माना जाता है।
क्योंकि मौन के माध्यम से हमें जो शक्ति प्राप्त होती है। वह अपने में ही अनूठा है, जिसके माध्यम से हमारे भीतर भी क्षत-विक्षत होने की क्षमता और क्षमता है। दृष्टि, आकाश, स्वास्थ्य, प्रार्थना, मौन एक-दूसरे के पर्याय हैं। जैसे की छुट्टी का अर्थ भली-भाँति न समझ पाने के कारण उस दिन सबसे अधिक तनाव, बोश तथा जन्म से तन तथा मन को भरते हैं। छुट्टी के दिन इस भाग-दौड़ भरी जिंदगी की पूरी तस्वीर से आपको कुछ मुक्त करने का प्रयास करें। स्वयं की अन्तर आत्मा को भी कुछ समय दे, यह फिर दैनिक कार्य में से कुछ समय स्वयं के लिए निकाल कर अपने ईष्ट व गुरु के चित्र के सामने कुछ क्षण मौन धारण कर उनकी तस्वीर की ओर देखने का प्रयास करें।
कुछ दिन के प्रयास के बाद आपको आभास होगा कि एक नई शक्ति, अपने अंदर प्रवेश करने की कोशिश करें। आप अनुभव करने कि सही अर्थों में आपके जीवन में कुछ परिवर्तन आने लागा है, यदि आप निरन्तर प्रयास करेंगे तो निश्चित रूप से कुछ नया अपके जीवन में अटकेगा ही, मौन में बहुत शक्ति है आप माने वैसे ही जप, योग, हवन मंत्र, आदि की क्रिया कर लें पर जब तक कुछ क्षण का मौन नहीं रहेगा तब तक आपको कुछ अनुभव नहीं होगा, और अधिकतर साधक यही क्रिया नहीं करते हैं।
वे मंत्र जप करते हैं, पर वह जयों ही जप समाप्त होता है, कुछ ना कुछ छप में लग जाते हैं, जिससे क्या होता है कि हमने जितना अधिक मंत्र जप पूजा पाठ किया है, वह सब हमारी प्रतिबद्धताओं में नष्ट हो जाते हैं जाता है। इसलिये हमारे ऋषियों ने कहा है-
अर्थ- जब भी आप जप, पूजा आदि करें एकाग्र मन से करें, किसी साधना पूजा से पहले मौन कर लें, और किसी से कोई बात न करें, और जब पूजा, साधना समाप्त हो तो कुछ देर मौन ही रह कर अपने ईष्ट व गुरु के चित्र की ओर शांति को ध्यान से देखें कि यदि आप इस तरह की क्रिया को साधना के समय करें तो अनुभव अवश्य करें कि आपके शरीर में ऊर्जा की वृद्धि हो रही है।
इसीलिये तो नौकरी में रविवार को छुट्टी दी जाती है। जिससे आप उस दिन मौन रहकर अपने शरीर को ऊर्जा से युक्त कर सकते हैं, छुट्टी का भावार्थ ही अंग्रेजी में होली-डे कहा जाता है, यानी पवित्रतम दिन, यानी स्वास्थ्य दिवस स्वयं में स्थित होने का दिन।
मौन का स्वास्थ्य एवं आध्यात्मिक पक्ष सबल एवं सामर्थ्यवान तो है ही, बल्कि परिवार सामाजिक, जड़काल, सौन्दर्य एवं नैतिक संबंधों में संतुलन रखते हुए सभी प्रकार के समाधान करने में भी मौन सर्वाधिक सक्षम है।
महात्मा गांधी जी का अमोघ अहिंसात्मक अस्त्र मौन तथा उपवास था, जिसके बल पर राष्ट्र स्वतन्त्र हुआ। हम धार्मिक जीवन शैली ही मौन हैं। मौन होने से मन की दुविधा समाप्त हो जाती है, सभी इन्द्रियों और वृत्तियों की उद्दण्डता नष्ट हो जाती है, आत्मा का शासन होता है, आत्मा के अनुसार इन्द्रियाँ तथा वृत्तियाँ संचालित होती हैं। आत्म-अनुशासन की साधना ही मौन है।
मौन की रचना द्वारा ऊर्जा बढ़ाने के साथ ही मौन साधना में सफलता का साधन है-
जहाँ संभव हो, मौन रहें।
जितना ही कहते हैं, विवरण विवरण हो जाता है।
सुबह-शाम एक निश्चित समय निर्धारित करें, और उस समय मौन रहें।
अब तक आपने बहुत शोरगुल किया है, बड़ी-बड़ी बातें हैं, बहुत बातें हैं, अब देखें, अनमोल हो जाएं।
कभी पेड़, फूल, झरने, झरने, नदी, समुद्र या झील के किनारे उनकी आवाज, उनका संगीत सुनते हैं। मात्र सुन, कोई प्रतिक्रिया न करें, मौन का स्वर अनुपयोगी संगीत सुनने में आप रमण कर सकते हैं।
किसी फूल के संयंत्र के पास बैठ जायें, उसे मात्र देखें, अच्छा या बुरा विश्लेषण नहीं करें, मात्र निहारें, सत्य के अंतर्जगत में, जोकिसी मोने का आनंदमय साम्राज्य है, वहां प्रवेश कर सकेंगे। जैसे उसी के संदर्भ में बिना किसी चुनाव के अवलोकन मात्र से मौनता है।
सच को नहीं कहा जा सकता। सत्य को लिखा नहीं जा सकता है, सत्य को मात्र अनुभव एवं एहसास किया जा सकता है, हम स्वभाव का स्वभाव है मौन, जो अंत में है। मौन और भीतर के अतीत एवं भविष्य के विचार के कोलाहल की भीड़ में सो गया है। सामान्य प्रयोग द्वारा मुक्त रोगि एवं स्वास्थ्य के प्रति अमोघ अस्त्र है मौन।
मौन एक आंतरिक यात्रा है। इस यात्रा में कोई संगी-साथी संबंध नहीं है। अकेले ही यह लंबी यात्रा तय कर चुका है। अकेले होने का मौन की यात्रा में बाधक बन जाता है। जब तक हम किसी का साथ खोजेंगे, तब तक परमात्मा का साथ नहीं हो सकता। मौन परमात्मा के साथ होने की यात्रा है।
मौन में शरीर तथा मन की वाणी खो जाती है, हम शून्य हो जाते हैं, नितांत स्वयं के साथ मन का भी विसर्जन हो जाता है, तभी ध्यान एवं समाधि के सुमन जिलते हैं, जिससे जीवन में प्रेम माधुर्य रस की प्राप्ति संभव हो जाती है ।
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