पहला दुःख स्वास्थ्य का बिगड़ना है। जब तक स्वास्थ्य ठीक रहेगा तभी तक मनुष्य क्रियाशील रह सकता है, रोग पीडि़त शरीर से उपकरण में सफलता प्राप्त करना सुरक्षित रखना संभव है, क्योंकि सोना, उठना, काम करना व भोजन-पीने आदि के ऐसे नियम रखना आवश्यक हो कि शरीर का स्वस्थ रहना संभव हो , शुद्ध सात्विक प्राकृतिक भोजन, दैनिक प्राणायाम, व्यायाम और विशेष आसनों से स्वास्थ्य में विशेष लाभ प्राप्त होता है।
दूसरा विधान आहार की डिसिली भी है। इससे स्वास्थ्य तो बिगड़ता ही है, लेकिन इससे मानसिक रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं। क्योंकि हमारे शास्त्रों में आहार शुद्धि पर बहुत जोर दिया है, एक प्रसिद्ध कथन है, जैसा कि अन्य कथन मनुष्य जिस प्रकार का अन्न ग्रहण करता है विचार उसकी बुद्धि, कार्य कलाप भी इसी तरह के हो जाते हैं, आहार को भी तीन घटक ग्रहण करते हैं है एक तो अधिक टकसाली, तिखे काली मिर्च वाले अधिक कडवे गरमा गरमा व अधिक रूखे राजसी आहार व दूसरा बासी सीरा हुआ, जूठा, अपवित्र व अंधेरा दुर्गा युक्त, मांस आदि तामसिक आहार। इसलिए तीसरा न्याय और धर्म से निर्मित अन्न तथा सत कमाई से उपाजित सात्विक आहार ही ग्रहण करना चाहिए। तामसिक व राजसिक पदार्थों के सेवन से काम, क्रोध, लोभ, मोह अभिमान व रोगमय स्थिति होती है। इससे साधक अपने साधना पथ से गिर जाता है, यथा संभव अल्प ही करना अच्छा होता है।
साधक की साधना में तीसरा सबसे बड़ा विघ्न शंका है, जब एक बार साधक गुरू के कहने पर एक साधना में लग जाता है तो उसे मैक्सिम तो सिद्धि नहीं मिलता। उदाहरणतः एक विशेष 11 दिन का अनुष्ठान है, और जब पांच छः दिन होते हैं, तो जाने पर उसे किसी प्रकार की कमीशन नहीं होती है तो साधक अपनी साधना में शंका करता है, धारण करता है कि लक्ष्मी अनुष्ठान में साधक के व्यय में वृद्धि होती है है और अनुष्ठान की सफलता पूरी तरह सम्पन्न होने पर लक्ष्मी जी की अपार कृपा से सभी प्रकार से उन्नति करता है। अनुष्ठान के मंदिर में जब प्राकृतिक रोष से व्यय बढ़ता है तो यह शंका अच्छे-अच्छे साधकों को छोड़ दिया जाता है। और उनकी बुद्धि में समय-समय पर यह नहीं है, तो मुझे दर्शन होगा या नहीं। मैं जो साधना कर रहा हूं वह ठीक है या नहीं जो यंत्र या चित्र मैंने रखा है, वह मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठित है या नहीं, ठीक है तो अब तक कुछ न कुछ विवेक या लाभ अनिवार्य होता है, हो न हो संसाधना में कोई पहचान है और मुझे गुरूजी ने ठीक से नहीं बताया, जिससे उनके मन में शंका पक्ष और बड़ा प्रभुत्व हो जाता है, ऐसा कई साधक तो अनुष्ठान पूरा करने से पहले ही छोड़ देते हैं। और पूरा करते भी हैं तो पूर्ण श्रद्धा विश्वास के साथ पूर्ण नहीं करते हैं, जिससे उन्हें किसी प्रकार की सफलता प्राप्त नहीं होती है।
अश्रद्धिया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत।
हे अर्जुन, ऐसा कहा जाता है कि इसका अस्तित्व नहीं है, और यह मृत्यु के बाद हमारे लिए यहां नहीं है।
अश्रद्धा से किया गया हवन, दान, तप या कोई भी कर्म असत् है, उससे कोई लाभ नहीं होता है और कोई सिद्धि पूर्ण पूर्णता की प्राप्ति नहीं होती है। श्रद्धा ही साधक का मुख्य बल है। श्रद्धा के प्रति, गुरू के प्रति, श्रद्धा मंत्र, यंत्र या उस देवी -देवता के प्रति बहुत अधिक से बनाते हुए करना चाहिए। यथार्थ साधक को तो बुद्ध देव की तरह वास्तविक भाव से साधना को सम्पन्न करना चाहिए।
इहासनेशशिशयतु में स्थिर रहो
अप्राप्य बोधां बहुकल्प दुर्लभं नवासनात कायनश्चलिष्यते।।
इस आसन पर मेरा शरीर सूख जाएगा, चमड़ी, हड्डी नाश हो जाएंगे, लेकिन बहुकल्पना दुर्लभ बोध प्राप्त किए बिना इस आसन से कभी नहीं उठेंगे। ऐसा ही चिन्तन महात्मा बुद्ध ने किया था उसी बोधित्व की संभावना संभव हो पायी। ठीक उसी तरह से चिन्तन होने पर साधक अपनी विधि में आगे बढ़ते हुए विशेष रूप से आगे बढ़ते ही उसे संपूर्णता की संभावना प्राप्त हो जाएगी।
सदगुरु का अर्थ कोई विशेष मनुष्य से नहीं, अपितु जो भी ज्ञान दे सकता है, शिष्य के जीवन को ऊंचा उठा सकता है, और उसके जीवन को पूर्णता दे सकता है, उसे सही मार्गदर्शन दे सकता है, वही सद्गुरु कहलाने योग्य है। यह विषय बहुत ही विचारीय है, क्योंकि वर्तमान काल में मिलापयोगी, अनुभवी सद्गुरूओं की बहुत कमी हो गई है,
शिष्य को एक अच्छे सद्गुरु का मिल जाना भी एक स्वर की बात है, शिष्य को साधना काल में आने वाली बाधाओं से उचित मार्ग दिखने से व साधक के भीतर शक्ति का संचार करने के लिए सदगुरू की सख्त आवश्यकता है। तंत्र पारंगत योगियों का कहना है कि सदगुरू से दीक्षा प्राप्त करने से साधक में दिव्यता आती है। तथा उसके पापों का नाश हो जाता है।
नित्य नए गुरू से भी बड़ी गड़बडी मच जाती है, क्योंकि साधना लक्ष्य एक होने पर भी मार्ग अनेक होते हैं, आज एक के कहने पर प्राणायाम शुरू किया, कल दूसरे की बात सुनकर हठयोग द्वारा साधना करने लगे, परसों तीसरे के उपदेश से नाम जप कर दिया, चौथे दिन लेक्चर के प्रभाव से वेदान्त का विचार करने लगे। इस तरह जगह भटकने और बात-बात में गुरू आने से कोई भी साधना सिद्ध नहीं होगा।
भगवान कृष्ण ने स्वयं गीता में कहा है।
उसे झुककर, पूछताछ करके और सेवा करके जानो।
वे बुद्धिमानों और सत्य के देखने वालों को ज्ञान सिखाएँगे।
उस ज्ञान को तू तत्व ज्ञे ज्ञानियों के पास गया समझ, उन भ्ली भांति प्रमाणवत् प्रणाम करने से उनकी सेवा करने से और कपट छोड़ता पूर्वक प्रश्न करने से परमात्मा तत्व को भली भांति जानने वाले ज्ञानी महात्मा उस तत्व का उपदेश देंगे। यह केवल सदगुरू द्वारा ही सम्भव है।
साधक के मार्ग में एक बड़ा उपद्रव, घटना की भी जब लोगों को पता चलता है। कि अमुक साधक यह साधना करता है तो स्वाभाविक ही है कि उनके मन में साधक के लिए श्रद्धा हो जाती है, वे समय समय पर मन, वाणी, शरीर से उसके आदर, मान करने लग जाते हैं। साधक भी है वह आदर, मान-प्रतिष्ठा प्रिय होते हैं, ज्यों-ज्यों उन्हें प्राप्त होती है, त्यों-त्यों उनके लालसा अधिक मनुष्य से अधिक लोगों से मिल कर सम्मान प्राप्त करने की प्रतीति होती है। परिणाम वह संदर्भ ईश्वरी साधना से हट कर अपने सम्मान में वृद्धि में लग जाता है, त्यों-त्यों उसकी साधना में न्यून क्रियायें शुरू हो जाती हैं, वह साधना पथ से भटक जाता है। जिसमें से होता है ओज, तेज, निस्पृहता, सरलता, सौम्यता और ईश्वरीय श्रद्धा में भी नईता आने लगती है, साधक का सत्व मुखी हृदय तमसाच्छादित क्रोध, मोह, माया, घृणा और दम्भ में भर जाता है, इसलिए साधक की खिंचती में यही है, वह उतना ही बड़ा है जितना कि दुनिया उसे सदा उसे कम ही जाने। बाहर से नीचे के भीतर से उच्चता की सीमाएं ही साधक जीवन के लिए कल्याणप्रद हैं।
साधना में एक विघ्न ब्रह्मचर्यता का पूरा पालन न करना भी है, साधक के शरीर में तेज और ओज हुए बिना साधना में पूर्ण सफलता नहीं मिलती, शरीर, मन, इंद्रियों और बुद्धि के बल साधक के लिए आवश्यक है। इसलिए साधक को कहे कि न तो ऐसी कोई क्रिया करें न ऐसा संग ही करें तथा न ऐसे पदार्थों का सेवन ही करें कि जिससे उसका ब्रह्मचर्य का नाश हो। विवाहित साधकों को स्त्री या पुरुष को भी परमार्थ साधना के लिए यथा साध्य शीलव्रत पालन करना चाहिए।
हनुमान जी ने आधार ब्रह्मचर्य का पालन किया, जिसके प्रभाव से वे बड़े ही वीर, तेजस्वी, ज्ञानी, धीर, विद्वान व भगवान के भक्त बने। वे योग के सिद्धियों के ज्ञाता थे। जिसके प्रभाव से वे विशालतम और सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप धारण कर चुके थे।
जिस साधक का मन विषय कामनाओं से मुक्त हो जाता है। उसका भी साधना मार्ग में बड़ा विघ्न आता है, क्योंकि कामना से ही तो क्रोध, मोह, लोभ उत्पन्न होते हैं और जिसके अनुरूप बुद्धि साधनाओं का नाश कर देता है, अतएव इच्छाओं से चित्त को सदा दूर लगना चाहिए।
साधक को दूसरों में दोष दृश्य नहीं लगते साधक को इस बात से कोई संबंध नहीं होने लगते कि दूसरे क्या करते हैं। साधक को तो अपनी साधना में निरन्तरता बनायें रहें, जिससे अन्य लोगों में दोष देखने का समय ही न मिले। और जिन्हें दोष की आदत पड़ सकती है, वे अपने साधना मार्ग पर स्थिर होकर आगे नहीं बढ़ सकते।
दोष तो अपने में दिखना चाहिए और किसी को दूर करने का पूरा प्रयास करना चाहिए। ठीक ठीक अर्थ में हम साधक और शिष्य बन सकते हैं। साधना कल में हमें साधना से सम्बधित सभी बातों का विशेष ध्यान रखना ही चाहिए।
शोभा श्रीमाली
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