इस श्लोक में याज्ञवल्क्य ने बहुत सुन्दर तथ्य सामने रखे हैं,, उन्होंने चार बातों पर विशेष ध्यान दिया है। उन्होंने कहा- जीवन का तात्पर्य यह नहीं है, कि हम जीवित रहें, क्योंकि मात्र इसी को जीवन नहीं कहते, जीवित रहना तो हमारी मजबूरी है, मृत्यु हमारे पास आई नहीं, इसलिए हम जीवित हैं। यह अपने आप में कोई श्रेष्ठतम कार्य नहीं है, श्रेष्ठतम कार्य तो यह है, कि हम दरिद्रता को, गरीबी को, दीनता को, हजारों मील दूर धकेल दें, जिससे कि हमारी आने वाली पीढि़यों के पास प्रत्येक कार्य में अक्षय हो अक्षय जो कभी क्षय ना हो।
केवल भाग्य के भरोसे बैठें रहने से भी जीवन गतिशील होना सम्भव नहीं है, भाग्य भी उसी का साथ देता है जो जीवन में क्रियाशील होता है, जब तक मनुष्य जीवित है, वह कर्म और क्रिया से बच नहीं सकता, उसे निरन्तर कार्य करते ही रहना पड़ता है लेकिन कार्य में सफलता प्राप्त हो और कार्य से जीवन की इच्छाएं पूर्ण हों, प्रसन्नता प्राप्त हो। परमात्मा ने मनुष्य को जीवन में मन, बुद्धि और मस्तिष्क के साथ देह इसलिए प्रदान की है कि वह इन चारों के सहयोग से निरन्तर क्रियाशील होकर कार्य करता ही रहें, कर्मशील व्यक्ति ही जीवन की अस्थिरता को स्थिरता में परिवर्तित कर अपने भाग्य को संवार सकता है, भाग्यलेखन को बदल सकता है और जो उसके भाग्य में है उसका पूरी तरह से उपभोग भी कर सकता है, कर्म करने के पश्चात् जो फल प्राप्त होता है उससे उपभोग का आनन्द सौ गुणा बढ़ जाता है।
योग्यता पूर्ण तरीके से किये गये कार्य से सफलता प्राप्त होती ही है। इस प्रकार प्रेम के साथ किये हुए कार्य में लक्ष्य प्राप्ति, संतुष्टि का भाव प्राप्त होता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इस प्रकार का निश्चित आनन्द क्रिया की पूर्णता, क्रिया के बाद अथवा भविष्य में नहीं अपितु क्रिया के समय ही प्राप्त होता है। यही सिद्धान्त गीता में ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन—-’ के माध्यम से कहा गया है कि पहले प्रेरणा भाव से कार्य करो और निरन्तर मन बुद्धि से युक्त होकर क्रियाशील बनो, फल तो प्राप्त होना ही है, उसकी आशा निराशा में हर समय मत पडे़ रहो।
हममें से प्रत्येक परिश्रम करता है, मेहनत करता है लेकिन बहुत कम व्यक्ति ही जीवन में सफल हो पाते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि क्रिया का प्रधान पक्ष तो मन-मस्तिष्क है और शरीर तो केवल एक औजार है, दोनों को अलग करें अर्थात् बे-मन से की गई क्रिया निष्फल हो जाती है। मन को वहां लगाइये जहां हाथ कार्य कर रहे हैं और जीवन में सफलता भी उच्च स्तर की प्राप्त होगी। इस प्रकार की सेवा व्यक्ति को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से उन्नत करती है, साथ ही जीवन भी धन्य होता है।
जब कर्म और भाग्य का संयोग होता है तो मनुष्य को अपने जीवन में इच्छित कामनाओं की पूर्ति होती है। कर्म के साथ आशा और निराशा निरन्तर चलते रहते है हर मनुष्य आशावादी होता है, लेकिन बार-बार असफलता उसे निराशावादी बना देती है। आशा वान व्यक्ति का सबसे बड़ा संबल उसका गुरू होता है, जो उसे हाथ पकड़कर निराशा के अंधेरे से बाहर निकालकर आशा के प्रकाश की ओर ले जाता है। बार बार उचित ज्ञान देता है।
अक्षय वर्चस्व कार्य सिद्धि दीक्षा तो जीवन का अक्षय तत्व है। वह सौभाग्यशाली ही साधक होते है जिन्हें यह तत्व आत्मसात करने का श्रेष्ठ अवसर प्राप्त होता है। साधक के भाग्य में निरन्तर गति से वृद्धि होने से ही आर्थिक, सामाजिक, आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होता है।
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