गणेश उपनिषद का यह एक श्लोक है। यह एक महत्वपूर्ण श्लोक है सभी साधकों के लिए, इस श्लोक में उन प्रश्नों को उठाया गया है जो प्रश्न आपके हृदय में उठते हैं। इस श्लोक में उन प्रश्नों के उत्तर दिए हैं जो अपके लिए जरूरी है।
हमारे जीवन में हम किन कारणों से तनावमय, दुखमय, चिंतामय रहते हैं? और यदि भारतवर्ष में देवी-देवता हैं, प्रत्यक्ष देवता हैं, यहां राम और कृष्ण ने जन्म लिया है तो फिर हम इतने परेशान और दुखी क्यों हैं? इंग्लैण्ड और अमेरिका में जहां देवताओं ने जन्म लिया ही नहीं तो वहां लोग सुखी क्यों हैं? क्या कारण है कि हम दुखी हैं और वे सुखी हैं, उनके पास धन है, यश है इसका मूल कारण क्या है? यह आप लोगों की एक शंका है, शंका है कि वे ज्यादा सुखी हैं और आप ज्यादा दुखी हैं और भारत वर्ष में हमने यह देखा है कि उनकी अपेक्षा हम कमजोर हैं, धन के मामले में भी और स्वास्थ्य के मामले में भी यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि हम इतने दरिद्री, हम इतने परेशान क्यों हैं यदि यहां गणपति हैं, यहां शिव हैं, लक्ष्मी हैं, साधना है, मंत्र जप है, गुरू है ये सब होते हुए भी क्यों हमारी दरिद्रता नहीं जाती है?
हमारी परेशानियां क्यों नहीं मिटती हैं, और हमारे जीवन में अभाव क्यों है, यह आप लोगों का ही सोचना है कि आप दुखी हैं इसलिए कि आपने वहां का जीवन देखा ही नहीं है। वे जब यहां आते हैं तो बहुत अच्छे कपड़े पहन कर आते हैं चाहे आपके भाई हों या मित्र हों यहां रहकर आप उनकी परेशानियों को नहीं समझ सकते हैं। 24 घण्टे वे काम में लगे रहते हैं चाहे पति हो, चाहे पत्नी हो, चाहे बेटा हो या चाहे बेटी हो सात दिनों में वे एक दूसरे से मिल ही नहीं पाते यहां जो पारिवारिक वातारवरण आपको मिलता है उनको नहीं मिलता, मैं उनके घर में रहा हूं और कई बार रहा हूं, एक बार नहीं बीस बार रहा हूं। मैंने देखा है उनको तनाव में, दुख में जितना दुख उनको है आपको नहीं, वहां पर आत्महत्या की दर 22 प्रतिशत है। हमारे यहां केवल 6 प्रतिशत है, ऐसा क्यों हो रहा है? इसलिए कि उनके जीवन में धर्म का और गुरू का कोई स्थान नहीं है और हमारे जीवन में धर्म का स्थान है और हम फिर भी ज्यादा संतुष्ट हैं। आपके जीवन में जितना धन है उतना ही वहां है। यह केवल आपकी कल्पना है कि वे वहां पर सुखी हैं। जब वे यहां आते हैं तो अच्छे कपड़े पहने होते हैं, अच्छी घड़ी होती है, अच्छा बैग होता है लेकिन उनके बैग से आप उनके जीवन को नहीं आंक सकते, उनके मूल्य को नहीं आंक सकते वे आपसे ज्यादा परेशान, दुखी और संतप्त हैं। सुबह उठते हैं तो पति अपनी चाय बनाकर पीता है, पत्नी अपनी चाय बनाकर दौड़ती है वे आपस में मिलते ही नहीं सात दिनों में एक बार मिलते हैं। रात को ग्यारह बजे आते हैं तो होटल में खाकर आते हैं और लेट जाते हैं। हमारी केवल कल्पना है कि वे सुखी हैं। जब हम अपने जीवन में ईश्वर को स्थान नहीं दे पाते तो हमारे जीवन में परेशानियां और बाधा आती हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि हम परेशान नहीं है मगर उसका समाधान है।
समाधान तब होगा जब आस्था हो, विश्वास हो, जब विश्वास डगमगा जाता है तब जीवन में धर्म नहीं रह पाता, आस्था नहीं रह पाती पुण्य नहीं रह पाता, जीवन में प्रगति नहीं हो पाती। और इस श्लोक में यही बताया गया है कि हम जीवन में पूर्ण रूप से समृद्धि हो सकते हैं, और कुछ ही समय में, ऐसा नहीं है कि मंत्र जप आज करें और बीस साल बाद फल मिले उस फल की कोई महत्ता नहीं है। दुखी आप आज हैं धन की परेशानी आज है और मैं तुम्हें मंत्र दूं और पांच साल बाद लाभ मिले तो उस मंत्र का कोई फायदा नहीं है।
आप ट्यूब लाईट या बल्ब लगाएं और स्विच दबाएं और दो साल बाद लाइट रोशनी दें तो उस लाइट की कोई उपयोगिता नहीं है। बटन दबाते ही लाइट होनी चाहिए तो वह लाइट सही है। मंत्र को करते ही आपको लाभ होना ही चाहिए। यदि ऐसा है तो गुरू सही है अन्यथा गुरू फ्राड है। फिर छल है, झूठ है, वह गुरू बनने के काबिल नहीं है मगर आवश्यक है कि ट्यूब लाइट सही होनी चाहिए। मैं यहां बटन दबाता रहूं और आपकी ट्यूब फ्यूज है तो मैं उसे जला नहीं सकता। यदि आपमें आस्था है ही नहीं, न गणपति में है, न गुरू में आस्था है, न देवताओं में आस्था है तो मैं कितने ही बटन दबाऊं आपको लाभ नहीं हो सकता तो फिर आप कहेंगे बिजली बेकार है, मैंने ट्यूब लाइट लगाई है पर लगती नहीं है तो लाइट लग ही नहीं सकती। आवश्यकता इस बात की है कि आप इस बात को समझें। और आपको अनुकूलता प्राप्त हो। हमारे मन में विश्वास नहीं रहा देवताओं के प्रति अपने आप पर भी विश्वास नहीं रहा। मेरे कहने के बावजूद भी विश्वास नहीं रहेगा। मैं कहता हूं तुम्हें मंत्र जप करना है, तुम्हें सफलता मिलेगी तो अनमने मन से आप मंत्र जप भले ही करेंगे परन्तु एक जो गहराई होनी चाहिए वह आप में नहीं है। ऊपर से आप मुझे गुरू गुरू भले ही कहेंगे मगर मन से जो अटैचमैंट बनना चाहिए वह नहीं बना पाता और अटैचमैंट नहीं बना पाता तो मैं ज्योंहि अपनी तपस्या का अंश, साधना और सिद्धि देना चाहूंगा, नहीं दे पाऊंगा और आप नहीं ले पाएंगे। लेने और देने में दोनों में एक स्वरूपता होनी चाहिए। जहां मैं खड़ा हूं वहां आपको खड़ा होना पड़ेगा, तब मैं दे पाऊंगा और आप ले पाएंगे। फिर मंत्र जप करने से कुछ नहीं हो पाएगा, मंत्र देने से भी कुछ नहीं हो पाएगा, आवश्यकता है कि मैं दूं और आप पूरे शरीर में उसे धारण कर सकें। मैं जो दूं उसे आप कानों से ही नहीं सुनें, बल्कि पूरे शरीर में वे मंत्र समा जाने चाहिए।
भोजन मैं आपको दूं और आप भोजन करें तो पूरा खून बनना चाहिए और पूरे शरीर में घूमना चाहिए। मैं भोजन दूं और आप उसे पचा नही पाएं उसका खून नहीं बन सकता। ताकत नहीं मिल सकती। ताकत मिलने के लिए जरूरी है कि इंतजार करें कि खून बनें। इधर आपने खाना खाया और उधर खून बन जाए यह संभव नहीं। एक मिनट में खून नहीं बन सकता। दो दिन तक आपको इंतजार करना ही पड़ेगा। इतना विश्वास करना ही पड़ेगा कि भोजन किया है तो उसका लाभ मिलेगा ही। मंत्र की स्थिति यही है। मैं आपको मंत्र दूं तो उसके प्रति आस्था बननी चाहिए आपकी, आध्यात्म चेतना बननी चाहिए, चाहे वह एक दिन में बने या दो दिन में। मंत्र जप किया है तो चेतना बनेगी ही बनेगी। यह हो ही नहीं सकता कि मैं मंत्र दूं और आपको सफलता नहीं मिले। यह हो सकता है कि मैं आपको कम मिल पाऊं, हो सकता है कि एक मिनट केवल मिलूं। इससे आपके विश्वास में अन्तर नहीं आना चाहिए। जिसको मैंने एक बार शिष्य कहा वह मेरा शिष्य है ही।
सैकड़ों शिष्य मेरे पास जोधपुर आए मुझसे मिले, मैं उनसे मिला हूं, उनके पास रहा हूं, उनका मेरे प्रति अटैचमेंट रहा है और मेरा भी उनके प्रति उतना ही स्नेह रहा है। मगर आवश्यकता इस बात की है कि शिष्य बुलाए और गुरू आए। बिना बुलाए तो न गुरू आ सकता है, न गुरू का चिंतन बन सकता है, न गुरू में आस्था बन सकती है और ऐसा हो ही नहीं सकता कि आप बुलाएं और मैं नही आऊं, और इसके बावजूद भी जीवन में तनाव है तो संसार में सभी लोगों के जीवन में तनाव है। दूसरों के जीवन में लगता है कि उसमें कम तनाव है, परन्तु यदि हम उसको अंदर से कुदेरेंगे तो पता लगेगा, उनकी जिन्दगी खोलकर देखें तो मालूम पड़ेगा कि वे हमसे ज्यादा परेशान हैं, दुखी हैं, संतप्त हैं। और श्लोक में यही बताया गया है कि पीड़ा है, बाधा है, अड़चन है, कठिनाईयां हैं तो सबसे पहले उस रास्ते पर चलना है जहां एक दूसरे पर विश्वास बनें। तुम्हारे पति पत्नी के बीच विश्वास नहीं होगा तो बीस साल आप एक छत के नीचे रहेंगे तो न आप पत्नी का लाभ उठा सकते हैं और न पत्नी आपका लाभ उठा सकती है। तनाव में जीवन कट जाएगा, पूरे बीस साल कट जाएंगे, यह नहीं कि आप मर जाएंगे मगर जो जीवन का आनंद होना चाहिए वह नहीं होगा।
आप बीस साल भी मेरे साथ रहें, तो अगर विश्वास नहीं होगा तो मैं जो मंत्र और साधना दूंगा उसका लाभ आप नहीं उठा पाएंगे। दीक्षा का अर्थ केवल यह नहीं है कि मंत्र आपको दे दिया। ऐसी दीक्षा मैं आपको देना भी नहीं चाहता और ऐसी दीक्षा से लाभ भी नहीं है। तुम्हारा पैसा भी मुझे नहीं चाहिए, नारियल हाथ में रखने से और तिलक करने से कुछ नहीं हो पाएगा। मैं चाहता हूं कि मैं दूं और आप पूरी तरह से ग्रहण कर सकें। आपने दो पैसे खर्च किए तो आपको लाभ होना ही चाहिए यदि मैं आपको दीक्षा दूं तो उनका मंत्र आपके हृदय में उतरना ही चाहिए उतरे और आप उसका लाभ उठा सकें। आप अनुभव कर सकें। आप अनुभव कर सकें कि आपको एक तृप्ति मिली है, सुख मिला है, मन में एक शांति मिली है और आपके हृदय में एक ऐसा विश्वास पैदा होना चाहिए कि मंत्र के बाद आपके चेहरे पर एक आभा, एक चमक, एक ज्योत्सना होनी चाहिए।
और ऐसा होगा तो जो मैंने मंत्र दिया है वह भी सार्थक होगा, वह चाहे गुरू का मंत्र हो, लक्ष्मी का मंत्र हो, चाहे गणपति का मंत्र हो। हरिद्वार में तो कम से कम डेढ़ लाख लोग रहते हैं। हम जाते हैं और गंगा में स्नान करते हैं तो बहुत शांति अनुभव करते हैं कि आज गंगा जी में स्नान किया, जीवन धन्य हो गया और हरिद्वार में रहने वाले गंगा में स्नान करते ही नहीं हैं। उनकी आस्था ही नहीं है हरिद्वार में। उनको गंगा में आस्था है ही नहीं। उनके लिए वह सिर्फ नदी है और हम जाते हैं तो पवित्रता अनुभव होती है। ऐसा क्यों है? इसलिए कि हमारे मन में गंगा के प्रति अटैचमैंट है, एक भावना है, उनके मन में भावना है ही नहीं। जो बहुत आसानी से प्राप्त हो जाता है उसके प्रति भावना रहती ही नहीं। यदि गुरू आसानी से मिल जाएंगे तो उनके प्रति वैसा भाव रहेगा ही नही। तुम्हारे, मेरे मन में भावना है गंगा के प्रति तो शीतलता अनुभव होगी ही होगी। यह तो आत्म विश्वास की बात है, आत्मचिन्तन की बात है। इसलिए जब आप स्नान करते हैं तो इतनी पवित्रता अनुभव करते हैं, और मिलती है पवित्रता। सिर्फ महसूस नहीं करते, मिलती ही है पवित्रता। आत्मा का आनंद मिलता है, जीवन की पूर्णता मिलती है, जीवन की चेतना मिलती है और जीवन में जो कुछ हम चाहते हैं वह मिल जाता है।
और जब मैं दीक्षा देता हूं आपको तो उस दीक्षा के माध्यम से अंदर उतनी ही चेतना पैदा होनी चाहिए, मंत्र को धारण करने की शत्तिफ़ पैदा होनी चाहिए। दीक्षा का तात्पर्य है कि मैं आपको गणपति मंत्र दूं और धारण हो जाए, दीक्षा का अर्थ है कि केवल कान आपके मंत्र को ग्रहण न करे, शरीर का प्रत्येक कण आंख बन जाए, कान बन जाए। एक-एक अंग आपका गणपति मंत्र को ग्रहण करें, और ग्रहण करेंगे तो आपके हृदय के अंदर गणपति की भावना बनती है और उसके माध्यम से आपके पापों का नाश होता है, आपका कर्ज समाप्त होता है, आपका रास्ता बन जाता है कि मैं जीवन में यह कर पाऊं, जो आपके शत्रु हैं, बाधाएं हैं वे आपके अनुकूल बन जाते हैं जो आपके शरीर में रोग हैं वे समाप्त होने की क्रिया आरम्भ हो जाती है और ऐसा होता ही है, अगर मैं उससे लाभ उठा सकता हूं तो आप भी उठा सकते हैं। गुरू ने अगर दिया है मंत्र तो लाभ होगा ही उससे गुरू ने अगर उपाय किया है तो ठीक होगा ही, दीक्षा दी तो आपके पूरे शरीर ने मंत्र को ग्रहण किया। आप केवल कान से मंत्र ग्रहण करते हैं, कान से मंत्र ग्रहण करना और पूरे शरीर से मंत्र ग्रहण करने में अंतर है, ऐसा हो कि एक-एक रोम कान बन जाए। और वह कान बन जाते हैं दीक्षा के माध्यम से। मैं आपके दीक्षा दूं और आप उसका लाभ उठा सकें, मैं आपको दीक्षा दूं और आप पूर्णता प्राप्त कर सकें।
इस श्लोक में एक अत्यंत तेजस्वी ऋषि विश्वामित्र ने उच्च कोटि की बात कही और विश्वामित्र जो ऋषि थे वे अपने जीवन में आपसे भी ज्यादा दरिद्री रहे। विश्वामित्र ने ही राम और लक्ष्मण को धनुर्विद्या की दीक्षा दी। वहीं विश्वामित्र जो रघुकुल के गुरू थे वही विश्वामित्र जो अस्त्र-शस्त्र में, धनुर्विद्या में, मंत्र में, तंत्र में इतने उच्चकोटि के थे कि अकेले राम ने रावण और करोड़ो की उसकी सेना को समाप्त करके पूर्ण विजय प्राप्त की।
जरूर उनके मंत्रों में और तंत्र में एक ताकत थी तो विश्वामित्र ने राम को दी, इस प्रकार की अद्भुत शक्तियां प्रदान कीं जिनके माध्यम से वे अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सके। यद्यपि रघुकुल के गुरू तो वशिष्ठ थे, मगर दशरथ ने राम लक्ष्मण को स्वयं विश्वामित्र के हाथों में सौंपते हुए कहा कि आप जैसा उच्च कोटि का तंत्र ज्ञाता कोई नहीं है। इस प्रकार अद्भुत तेजस्वी व्यक्तित्व पृथ्वी पर कोई नहीं है। इसीलिए मैं अपने दोनों पुत्रों को वशिष्ठ को नहीं सौंप करके आपको सौंप रहा हूं। इसलिए कि ये जीवन में अद्वितीय व्यक्तित्व प्राप्त कर सकें और उस समय भरी सभा में विश्वामित्र ने दशरथ को एक बात कही और वाल्मीकि रामायण में वाल्मीकि ने उस समय की अपनी आंखों से देखी घटना कही। तुलसी दास तो बहुत बाद में पैदा हुए, वाल्मीकि तो उसी समय थे ही क्योंकि जिस समय सीता का राम ने निष्कासन किया उस समय सीता वाल्मीकि के आश्रम में ही रही। वाल्मीकि रामायण में आता है कि दशरथ ने कहा मैं अपने दोनों पुत्रों को अद्वितीय बनाना चाहता हूं, ऐसा बनाना चाहता हूं कि फिर पृथ्वी पर उनके समान दूसरा हो ही नहीं मंत्र में, तंत्र में, योग में, साधना में, दर्शन में, शास्त्र में, राज्य में वैभव में और सम्मान में। तब विश्वामित्र एक ही पंक्ति मे उत्तर देते हैं कि दशरथ-
मैं तुम्हारे पुत्रों को अद्वितीय बना तो दूंगा अद्वितीय का मतलब कि उनके मुकाबले पृथ्वी पर कोई हो ही नहीं, ये राजा की संतान नहीं, कहलाएंगे, ये भगवान रत्न कहलाएंगे, रघुवंश में ऐसा कोई बालक नहीं हुआ ऐसा मैं इनको बालक बना दूंगा। मगर ये केवल मुझे ही गुरू माने तो इतना कि मेरे साथ संबंध जुट जाए इसका। यह मुझे अपने आप में पूर्णता के साथ ग्रहण कर ले तो मैं अपनी समस्त सिद्धियां इसे दे सकता हूं। मैं इनको सिद्धियां तभी दे सकूंगा जब यह पूर्ण रूप से मुझे गुरू स्वीकार कर सकेगा। मुझे पूर्ण रूप से स्वीकार करेगा तभी मै इनको ज्ञान दे पाउंगा। चौथाई मंत्र स्वीकार करेगा तो उसे चौथाई ही ज्ञान दे पाउंगा क्योंकि
मंत्र में, तीर्थ में, देवताओं में, ब्राह्मण में और गुरू में आपकी भावना जितनी जुड़ेगा उतना ही फल मिलेगा। गंगा के प्रति आपकी भावना जितनी ज्यादा होगी उतनी आप पवित्रता अनुभव करेंगे। गुरू के प्रति जितनी भावना होगी उतना ही आप लाभ उठा पाएंगे। यदि आप दूर से प्रणाम करेंगे और मन में कोई अटैचमैंट नहीं होगा तो गुरू देगा भी आशीर्वाद तो वह यों ही लौट जायेगा। दो स्थितियां बनती है जीवन में एक श्रद्धा होती है, एक बुद्धि होती है। आदमी दो तरीकों से जीवन व्यतीत करता है श्रद्धा के माध्यम से और बुद्धि के माध्यम से।
जो बुद्धि के माध्यम से प्राप्त करते हैं जीवन को वे जीवन में सुख प्राप्त नहीं कर सकते, आनंद प्राप्त नहीं कर सकते। वे हर समय तनाव में रहते हैं वे समझते हैं हम बहुत चालाक हैं, बहुत होशियार हैं, हमने जीवन में इसको धोखा दे दिया, इसको मूर्ख बना दिया, इसको कुछ भी कर दिया और हम ज्यादा सफलता प्राप्त कर सकते हैं। वे नहीं कर सकते। हर क्षण उनके जीवन में तनाव होता है और जीवन में आनंद क्या होता है, सुख क्या होता है, वे अनुभव कर ही नहीं सकते। संभव ही नहीं है क्योंकि बुद्धि के माध्यम से केवल भ्रम पैदा होगा, संदेह पैदा होगा। बुद्धि तो कहेगी कि यह शिवलिंग है ही नहीं, एक पत्थर है और पत्थर के माध्यम से तुम्हें सफलता नहीं मिल सकती। बुद्धि तो कहती है कि पत्नी है तो क्या हुआ मैं शादी कर के लाया हूं इसकी ड्यूटी है कि सेवा करें। मैं इसको रोटियां दे रहा हूं। वह पति अपनी पत्नी को सुख नहीं दे सकता। तुम्हारी जिंदगी में आनंद तभी हो सकता है जब बुद्धि को एक तरफ करके श्रद्धा के द्वारा जुड़ोगे। देवताओं के प्रति, मंत्र के प्रति, तीर्थ के प्रति और गुरू के प्रति श्रद्धा से जुड़ोगे तब फल मिलेगा। यह आपके हाथ में है कि आप बुद्धि से जुड़ते हैं कि श्रद्धा से जुड़ते हैं। अगर मेरे प्रति श्रद्धा नहीं है तो कोई लाभ नहीं दे पाऊंगा आपको।
यदि आपका मुझ पर प्रेम है, श्रद्धा है तो आप कुछ प्राप्त कर पाएंगे। विश्वास तो करना पड़ेगा। ऐसी कौन सी चीज है जीवन में कि आपने कहा और हुआ। ये तो आपके जीवन के भोग हैं। और आपके जीवन में केवल तनाव है, आपके जीवन में झूठ है, आपके जीवन में छल है, कपट है, आपने जीवन के इतने साल छल और कपट में व्यतीत किए और आप चाहते हैं कि गुरू जी सब ठीक कर दें तो ऐसा गुरू जी नहीं कर सकते। दो मिनट में भी ठीक हो सकता है यदि आप पूर्ण समर्पित हों। आप मेरे घर में आएं तो मैं चाहूं आप पर विश्वास करूं या न करूं आप मेरे ड्राइंग रूम में बैठेंगे तो मैं नौकर को कहूंगा भई ध्यान रखना कोई चीज उठाकर न ले जाए। अनजान हैं तो मैं आपको अंदर आने ही नहीं दूंगा। आपके प्रति मेरा विश्वास ही नहीं क्योंकि आप अनजान हैं।
मगर एक पूर्ण अनजान लड़की, 19 साल की लड़की जिसने अभी जीवन देखा ही नहीं उससे हम शादी करते हैं मैं अगर करोड़पति हूं और उस लड़की को देखा नहीं जिंदगी में तो शादी की, चार फेरे किए और ज्योंहि घर में लाता हूं सारे घर की चाबियां उसे दे देता हूं। पति अपनी तिजोरी की चाबी दे देता है कि यह तिजोरी की चाबी है यह ले इसमें हीरे हैं, जवाहरात हैं, इस लड़की पर एकदम से कितना विश्वास हो जाता है। यह विश्वास हो जाता है कि यह लड़की है यह मुझे धोखा नहीं देगी। यह मुझसे जुड़ी रहेगी। यह एक अनजान व्यक्ति से किस प्रकार से एकदम पांच मिनट में विश्वास कायम हो जाता है। और विश्वास होगा तो ही फल मिल सकता है यदि आपका विश्वास गणपति पर या लक्ष्मी पर नहीं है तो आप 5 हजार साल भी लक्ष्मी की साधना करते रहें आपको कुछ नहीं मिल सकता। इसलिए विश्वास अपने आप में आवश्यक है। तो विश्वास कैसे बने। विश्वास तो करना ही पड़ेगा।
देवताओं ने आपको जन्म दिया है शरीर दिया है, भारत वर्ष दिया है, शरीर में एक जवानी है जो कुछ दिया है कम से कम उसके प्रति तो कृतज्ञ बनें। हम हर समय कोसते रहते हैं देवताओं को और अपने आपको तो उससे जीवन में पूर्णता नहीं मिल सकती। अगर मैं अपने जीवन में श्रद्धा के माध्यम से सब कुछ प्राप्त कर सकता हूं तो आपको भी उपदेश दे सकता हूं। अगर मैं 19 साल हिमालय में रह सकता हूं तो मैं आपको भी बता सकता हूं कि यह मंत्र सही है। मैं कोई बिना पढ़ा लिखा मनुष्य नहीं हूं। मैं ने भी पढ़ाई, लिखाई की है। एम-ए- किया है, पीएचडी की है यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहा हूं, फिर भी पूरा जीवन हिमालय में व्यतीत किया है और तुमसे ज्यादा दुगनी उम्र लिया हूं, अधिक अनुभव लिया हूं और इसीलिए तुमसे कह रहा हूं कि मंत्रों में ताकत है क्षमता है और उनके माध्यम से? मै एक अकिंचन ब्राह्मण अगर समस्त सिद्धियों को प्राप्त कर सकता हूं तो आप भी प्राप्त कर सकते हैं, मैंने अपना ही उदाहरण लिया।
यह एक बीज था छोटा सा बीज। एक बीज की कोई हिम्मत नहीं होती। इतना सा अगर बीज। एक बीज है हम मुठ्ठी में बंद हो जाएगा। मगर वह बीज जब जमीन में गाड़ते हैं, और उसे खाद पानी देते हैं तो चार पांच साल में विशाल पेड़ बन जाता है। और उसके नीचे 5 सौ व्यक्ति बैठ सकते हैं। उस बीज में इतनी ताकत थी कि एक पेड़ बन जाता है। मैं भी एक बीज था, जमीन में गड़ा, खाद पानी मिला, तकलीफ आई मगर मैं अपनी क्षमता के साथ उस पथ जुड़ रहा। आज मैं वह वृक्ष बना और मेरे सैकड़ों हजारों साधु संन्यासी शिष्य हैं पूरे भारत वर्ष में शिष्य हैं। मैं एक बीज से पेड़ बना तो आप भी बन सकते हैं।
मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि अगर एक व्यक्ति इस रास्ते पर चलकर सफलता प्राप्त कर सकता है तो तुम भी कर सकते हो। मगर मुझे विश्वास था उस खाद पर, पानी पर, जमीन पर कि ये खाद पानी हवा मुझे पेड़ बनाएंगे। अगर मैंने संन्यासी जीवन लिया है तो उसमें पूर्ण सफलता प्राप्त की है। मैं हिला ही नहीं विचलित नहीं हुआ, डग मगाया नहीं। मैं भी नौकरी में था, प्रोफेसर था, अच्छी तनख्वाह ले रहा था उस समय भी 10000 मिल जाते थे। आज से पच्चीस तीस साल पहले, दस हजार की बहुत कीमत थी। मगर मैंने ठोकर मारी उसको कि यह जिंदगी नहीं हो सकती, ऐसे प्रोफेसर तो पूरे भारत में एक लाख होंगे। इससे जिंदगी पार नहीं हो सकती। मुझे कुछ हट कर करना ही पड़ेगा या तो मिट जाउंगा या कर जाउंगा।
यदि मैं ऐसा कर सकता हूं तो तुम्हें सलाह देने का हक रखता हूं। यदि मैं नही बनता तो मैं यों ही बैठा रहता तो तुम्हें कहने का हक नहीं रख सकता था। इस रास्ते पर चलकर यह हक प्राप्त कर सकता हूं। यदि मैं सिद्धियों के माध्यम से असंभव को संभव कर सकता हूं तो तुम्हें सलाह दे सकता हूं कि तुम भी कर सकते हो। मेरा विश्वास है आपका विश्वास नहीं है, मेरी गुरू के प्रति असीम श्रद्धा है यदि गुरू मुझे कह दे कि सब छोड़ कर चले जाओ तो मैं पत्नी को मिलूंगा ही नहीं। सीधे यहीं से रवाना हो जाउंगा क्योंकि मेरी आस्था है। मैंने जिस समय संन्यास लिया, उस समय शादी हुए बस 5 महीने हुए थे। पांच महीने में मैं छोड़ कर चला गया पत्नी की क्या हालत हुई होगी आप कल्पना कर सकते हो। मगर मैंने कहा ऐसे तो जिंदगी नहीं चलेगी। ठोकर तो लगानी पड़ेगी। या तो उस पार जाऊंगा या डूब जाऊंगा या मामूली ब्राह्मण बन कर रह जाऊंगा। हिमालय में जाऊंगा तो या तो समाप्त हो जाऊंगा या कुछ प्राप्त कर लूंगा।
आप, पंडित पुरोहित और ब्राह्मण पोथी में पढ़कर उपदेश देते हैं। मैंने जो कुछ जीवन में सीखा है वह उपदेश दे रहा हूं। मैं आंखों की देखी बात कर रहा हूं पोथियों की देखी बात नहीं कर रहा हूं। पोथियों में सही लिखा है या गलत भी लिखा है वह एक अलग बात है, हो सकता है उनमें गलत भी लिखा हो सकता है सही भी लिखा हो। मगर मैं देख लेना चाहता था छानकर कि यह सब क्या है। मैं केवल सत्य तुम्हारे सामने रखना चाहता हूं क्योंकि तुम मेरे शिष्य हो और मैं तुम्हें शिष्य बना रहा हूं और दीक्षा दे रहा हूं। और दीक्षा देने के बाद भी मेरा अधिकार समाप्त नहीं हो जाता कि दीक्षा दी और आप अपने घर मैं अपने घर। तुम्हारी ड्यूटी है कि तुम मुझसे जुड़ोगे।
तुम्हारी शिकायत आती है कि गुरू जी मैं जोधपुर आया, पांच दिन आया, आप मुझसे मिले ही नहीं। कोई जरूरी नहीं पांच दिन में मिल जाऊं आपको ऐसा कोई ठेका नहीं ले रखा है। मैं आपको अभी भी कह रहा हूं। ऐसा नहीं कि आप आए और मैं दरवाजा खोल कर सब छोड़ कर तुमसे गले मिल लूं। यह जरूरी नहीं है, यह जरूरी है कि आपसे पहले जो आए उससे मिलूं, मुझे भी अपने घर का काम काज देखना पड़ेगा। घर में मेहमान आएंगे उनको भी देखना पड़ेगा। आपके प्रति अश्रद्धा ऐसा नहीं है, आपके प्रति प्रेम में कमी नहीं है मगर आप यह चाहें कि गुरूजी सब छोड़-छाड़ कर पांच घंटे आपकी आरती उतारते रहें यह संभव नहीं हो सकता। आप शिष्य हैं, आप शिष्य धर्म का पालन करेंगे। मैं गुरू हूं तो आपके लिए मेरे दरवाजे खुले रहे 24 घंटे ऐसा नहीं, मेरे हृदय के दरवाजे हमेशा खुले हैं।
मगर आप आलोचना करने लग जाएं कि गुरूजी पांच घंटे मिले ही नहीं तो कोई जरूरी नहीं है मिलूं। आप कहें कि गुरूजी के पास गया, पांच रूपये भेंट किए मेरी लड़की की शादी हुई ही नहीं। अब पांच रूपये हनुमान जी को चढ़ा दे, हनुमान जी मेरी लाटरी निकाल दें हनुमान जी नहीं निकाल सकते तुम्हारी लाटरी। यों लाटरी लगती तो बिरला और 25 फैक्टरी खोल लेते। हनुमान जी इसलिए नहीं बैठे कि तुमने पांच रूपये का सिंदूर चढाया और तुम्हारी पांच लाख की लाटरी निकल गई, तुम्हारी लड़की की शादी हो गई। यह तुम्हारी गलतफहमी है कि हनुमान जी बैठे-बैठे यह करते रहेंगे। ऐसा संभव नहीं होता। तुम आए तुमने गुरू जी के पांव दबाए और कहा गुरू जी मेरी लड़की की शादी नहीं हो रही है। अब मैं तो यही कहूंगा हो जाएगी चिंता मत कर।
अब चार दिन बाद मिले कि गुरूजी आपने कहा था अभी तक नहीं हुई। तुम आओगे, बताओगे, मैं समस्या का समाधान करूंगा, उसका रास्ता निकालूंगा। फिर कुछ नहीं होगा तो मेरी जिम्मेवारी है। आलोचना करना तो बहुत आसान है। मगर इसके बाद अनुभव करना होगा कि मैंने दिया क्या है। प्रश्न पैसे का नहीं है। तुम्हारी तरफ से मुझे प्रेम मिलना चाहिए, श्रद्धा मिलनी चाहिए अटैचमेंट मिलना चाहिए, समर्पण मिलना चाहिए और सबसे बड़ी बात आपमें धैर्य होना चाहिए। आपमें धैर्य है ही नहीं और फिर तुम आलोचना करो। आलोचना करने से जीवन में पूर्णता नहीं प्राप्त हो सकती। आलोचना कर सकता हूं कि तुम्हारी मूछ अच्छी नहीं है, तुम्हारे बाल अच्छे नहीं हैं। बस आलोचना हो गई। ये ही आपके गुण भी हो सकते हैं। परंतु जिसने आलोचना करनी हैं वह आलोचना ही करेगा। हम क्यों हनुमान जी की प्रशंसा करते हैं रामजी की स्तुति क्यों करते हैं, हमें उनसे कुछ प्राप्त करना है तो उनके प्रति झुकना पड़ेगा। गुरू के प्रति तुम्हें नमन होना पड़ेगा।
इससे कुछ नहीं होगा कि जहां मैं ठहरा हूं, वहां तुम दो मिनट खड़े होकर आ जाओ और कहो मैं आधा घंटा खड़ा रहा गुरूजी मिले ही नहीं। अंदर भी लोग होंगे, उनसे भी मुझे मिलना होगा, और काम भी करना होगा। मगर ऐसा नहीं है तुम्हें मैं भूल गया या तुमसे संपर्क नहीं रख पा रहा हूं। मैं तुम्हारी आलोचना का जबाव दे रहा हूं और इस बात की मुझे परवाह है ही नहीं। जीवन में मैं तलवार की धार पर चला हूं और आगे भी चलूंगा। न मैं कभी झुका हूं और न कभी झुक सकता हूं। क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारे गुरूजी बिल्कुल लुंज पुंज बेकार से ढीले ढाले हो और हरेक के सामने झुके। क्यों झुके? यदि मैंने व्यर्थ में कोई कार्य किया है व्यर्थ में कोई चापलूसी की है व्यर्थ में कोई पैसा लिया है तो मैं झुकूंगा। मैं अगर तेज धार पर रहता हूं तो तुम्हें भी यही सलाह देता हूं कि शिष्य होकर अपनी मर्यादा में तेज धार में रहो। संसार में तुम्हारा कोई कुछ बिगाड़ ही नहीं सकता। तुम्हें डर ही नहीं किसी का। मैं तुम्हें दीक्षा देता हूं तो इसका अर्थ यह नहीं कि तुम्हारा मेरा संबंध समाप्त हो गया। अगर तुम मेरे शिष्य हो तो तुम्हें मजबूती के साथ खड़ा होना पड़ेगा समाज में। कायरता से और आलोचना से जिंदगी नहीं जी जाती। तुम्हारा कोई बिगाड़ सकता ही नहीं है बिगाड़ेगा तो मैं तुम्हारे साथ में खड़ा हूं। कहीं कोई तकलीफ होगी तो मैं जिम्मेदार हूं। आप एक बार मुझे परख करके देखें, टेस्ट तो करके देखें। आप आएं यहां मेरे पास, और टेस्ट तो करें। आप मुझसे मिलिए तो सही। मैं आपसे नहीं मिलूं, आपका काम नहीं करूं तो मेरी जिम्मेवारी है।
मगर तुम्हें विश्वास बनाना पड़ेगा, श्रद्धा रखनी पड़ेगी। शादी होने के बाद इस नए पत्नी से लड़ाई होगी मगर विश्वास बना रहेगा, विश्वास नहीं टूट सकता। विश्वास टूटने से काम नहीं चल सकता। इसलिए देवताओं के प्रति एक बार विश्वास पैदा करें, एक बार मंत्र जप करें और आप मंत्र करेंगे तो सफलता मिलेगी। मैंने अगर आपको मंत्र दिया लक्ष्मी का और आप घर गए और मंत्र जप किया 5 दिन और कहने लगे के सोने की वर्षा तो हुई ही नहीं, यह मंत्र तो झूठा है, गुरू जी ने कहा था पर हुई नहीं वर्षा, गुरूजी बेकार हैं। ऐसा नहीं हो सकता। ऐसा हो सकता है परन्तु श्रद्धा चाहिए विश्वास चाहिए, धैर्य चाहिए। विश्वामित्र इतना तेजस्वी बालक था उसके बावजूद भी उसके घर में लक्ष्मी थी ही नहीं, दरिद्री था, तुम से ज्यादा दरिद्री, अनाथ, उसके बाद भी उसने कहा कि मेरे मंत्रों में अगर ताकत है तो लक्ष्मी को अपने घर में लाकर खड़ा करूंगा ही। हर हालत में खड़ा करूंगा। ऐसा हो ही नहीं सकता कि मैं मंत्र जप करूं और लक्ष्मी नहीं आए। एक अटूट विश्वास था। अपने आप पर विश्वास था। और पहली क्लास का व्यक्ति एम-ए- की, कीट्स की, मिल्टन की या शेक्सपीयर की और तुम्हें कहूं कि पढ़ो तो तुम्हें कुछ समझ में नहीं आएगा। पहले आप पहली क्लास पढ़ेंगे, फिर दूसरी पढेंगे, फिर तीसरी पढेंगे, फिर मैट्रिक करेंगे, बी-ए- करेंगे, फिर एम-ए- करेंगे तो फिर किताब समझ में आएगी अब साधना में तुम पहली क्लास में हो और वह साधना एम-ए- लेवल की है। उसके लिए 16 साल मेहनत करनी पड़ेगी तब समझोगे।
पहली क्लास का बच्चा ए, बी, सी, डी तो पढ़ लेगा किन्तु उससे मिल्टन की किताब तो नहीं पढ़ी जाएगी। अगर 16 साल मेहनत करने से साधना सिद्ध होती है तो एक दिन में कहां से हो जाएगी। तुम कहोगे लक्ष्मी ने आकर घुंघरू बजाए ही नहीं पांच दिन हो गये लक्ष्मी आई ही नहीं, गुरूजी ने कहा कि आएगी, पता नहीं क्या हुआ? और फिर तुम कहोगे गुरूजी झूठे और मंत्र झूठा, लक्ष्मी झूठी, तीनो झूठे हो गये और तुम सत्य हो गये। एक बार आवाज दोगे तो पत्नी भी नहीं आएगी तो लक्ष्मी कहां से आएगी। मेरे कहने का तात्पर्य है कि धैर्य चाहिए एक बार साधना करो, नहीं सफलता मिलेगी तो दूसरी बार करों, पांच बार करो। कभी सफलता मिलेगी ही, क्योंकि मंत्र सही है। इस मंत्र के माध्यम से जब मैंने सफलता पाई है और शिष्यों ने सफलता पाई है तो तुम्हें भी सफलता मिलेगी ही।
पर एक विश्वास कायम रखना पड़ेगा और जीवन में इन मंत्रों से वह सब कुछ प्राप्त होता ही है जो कुछ मैं कहता हूं कि लक्ष्मी साधना के माध्यम से धन मिलेगा, कर्जा कटेगा, ऐसा होता ही है, बस तुम में धैर्य कम है। तुम चाहते हो एकदम से रेडिमेड फूड आया, खाया और रवाना हो गए। ऐसा नहीं है। तुम बाजार में जाकर रेडिमेड फूड खाओ और पत्नी खाना बनाकर खिलाए उसमें डिफरेंस होगा। दीक्षा का तात्पर्य है मैं तुम्हें तैयार कर रहा हूं उस रास्ते के लिए। मैं तेजस्विता दे रहा हूं, अब तुम साधना कर सकते हो। तुम सफलता पाओगे, धैर्य के साथ करने पर विश्वास के साथ करने पर और तुममें धैर्य है, मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि तुममें धैर्य की कमी है, तुम्हारे आस-पास के लोग गड़बड़ हैं, वे तुम्हें गलत गाइड करते हैं। तुम तो सही हो पर वे कहते हैं- अरे तुम गए थे, क्या हुआ?
तुम कहोगे- लक्ष्मी का मंत्र लाया। तुम करोगे लक्ष्मी मंत्र पांच दिन और लक्ष्मी आएगी नहीं तो वो कहेंगे- ले अब क्या हुआ? हम तो पहले ही कह रहे थे सब झूठ है और तुम्हारा माइंड खराब हो जाएगा। तुम्हारा विश्वास खत्म हो जाएगा। किसी के घर का सत्यानाश करना हो तो एक मूल मंत्र बता देता हूं, किसी के घर जाइए और कहिए- भाभी जी कहां जा रही थी, चुप-चाप एक गली में घुसी थीं, फिर आधे घंटे में एक घर से निकली थी। चलो जाने दो, जाने दो कुछ नहीं। अब पति के माइंड में घूमता रहेगा। वह पूछेगा पत्नी से कहां गई थी और वह कहेगी ‘कहीं नहीं गई थी’ बस वो कितना ही समझाए पति के दिमाग से कीड़ा निकलेगा नहीं। वो कहीं भी जाएगी वह पीछे-पीछे जाएगा। बस पूरा जीवन उनका तबाह हो जाएगा। बस किसी ने कह दिया इस मंत्र से क्या होगा और तुम्हारा मांइड खराब हो गया। अब चार दिन तुम्हारा माइंड खराब रहेगा कि मंत्र बेकार है, गुरू जी बेकार हैं तुम खराब नहीं हो, वे आस-पास के लोग खराब हैं क्योंकि वे न तो खुद कुछ करते हैं और न तुमको करने देंगे। उनका काम ही यही है आलोचना करना, चाहे तुम्हारे चाचा हों, या ताऊ हों, या संबंधी हों। जो जिन्दगी भर कुंए में रहें वे तुम्हें मानसरोवर के आनन्द में देखना नहीं चाहते।
तुम्हारे अपने अन्दर ताकत है तो तुम सफलता पाओगे। मेरे साथ भी यही घटना घटी। मैंने सन्यास लिया तो मुझे सब ने कहा क्यों जा रहा है, क्या फायदा है। सब ने सलाह दी- यहीं रूको क्यों दस हजार की नौकरी को ठोकर मार रहे हो, तुम्हारे जैसा मूर्ख दुनिया में नहीं होगा। मैंने कहा कोई बात नहीं, मूर्ख हूं तो मूर्ख सही, हूं तो सही। या तो समुद्र में डूब करके मर जाएंगे, लेकिन कूद कर तो देखेंगे। पर पांव तुम्हारा मजबूत रहेगा तो तुम सफलता पाओगे। तुम्हारे पांव ही कमजोर हैं, तुम औरों की बातों पर विश्वास करके चलोगे तो तुम्हारी साधना बरबाद हो ही जाएगी। आप कमजोर हैं तो आप इस रास्ते पर चलिए ही मत, यह आपका रास्ता है ही नहीं, आप अपनी पैंट पहिनए और नोकरी पर जाइए, चुपचाप आंख नीची करके घर आइए, पत्नी थैला लेकर कहे कि सब्जी लेकर आइए, चुपचाप रहिए और रात को सो जाइए। यह रास्ता तुम्हारा सीधा है, इसमें खतरा कम है। और मैं जो रास्ता बता रहा हूं उसमें खतरे बहुत हैं। यह बहुत तेज तलवार की धार की बात है, हिम्मत की बात है और उच्चता, श्रेष्ठता, सफलता की बात है। तुम्हारे जैसे लोग और नहीं होंगे। तुम अद्वितीय बनोगे। तुम अपना जीवन मुझे सौंपो, मैं तुम्हें अद्वितीय बना दूंगा, ऐसा पृथ्वी पर कोई नहीं होगा। विश्वामित्र ने ऐसा कहा दशरथ को पर साथ ही यह भी कह दिया कि जरूरी है राम लक्ष्मण मुझे ही गुरू मानें, मेरा कहना मानें। दशरथ तुम्हें मिलने भी नहीं आएं, न तुम मिलने आओगे और दशरथ ने कहा- मैं इन्हें मिलने नहीं आऊंगा और न कोई घर का इन्हें मिलने आएगा। ये मेरे घर वापस नहीं आएंगे जब तक आप पूरा संस्कार नहीं कर लोगे। मगर आप इन्हें अद्वितीय बनाएं और मैं इन्हें मिलने नही आऊंगा चाहे बहुत प्रिय राम हैं और बहुत प्रिय लक्ष्मण हैं।
और ऐसा ही दशरथ ने किया। मैं भी वही बात तुम्हें कह रहा हूं कि परिवार की चिंता तुम मत करो। औरों पर विश्वास मत करो, जो मैं कह रहा हूं उस बात पर विश्वास करो जब तक मैं तुम्हें अद्वितीय न बना दूं। और मैं तुम्हें अद्वितीय बना दूंगा यह तुम्हारे मेरे बीच वचनबद्धता है। गारंटी के साथ बनाऊंगा यह मेरा विश्वास है। आप कल्पना करिए राजा दशरथ के बुढ़ापे में संतान हुई और वह केवल दस साल का लड़का राम, उसे जंगल में भेज दिया जहां पर राक्षस बैठे थे, जहां तकलीफें थीं। राजा के महलों में रहने वाला एक राजकुमार, जंगल में खाक छाने और विश्वामित्र जैसे क्रोधी व्यक्ति के साथ में। दशरथ को विश्वास था कि यहां रहने पर तो केवल एक राजकुमार बनकर रह जाएगा, वहां जाएगा तो भगवान बन जाएगा।
भगवान तुम भी बन सकते हो, भगवान कोई पेट में से पैदा नहीं होते, अपने कार्यो से भगवान बन हैं। पैदा तो सब एक से होते हैं चाहे आप हों या राम हों या लक्ष्मण हों या मैं हूं, चाहे कृष्ण हों। उसके बाद उन्होंने कितनी रिस्क ली है कितनी जिन्दगी में तकलीफ उठाई है, कितने खतरे उठाए हैं उससे वे भगवान बने। अद्वितीय आप भी बनते सकते हैं मगर पैसों के माध्यम से नहीं, पैसों के माध्यम से भगवान बनते तो आज बिड़ला और टाटा भगवान ही होते। ऐसे भगवान नहीं बन सकते। भगवान बनने का रास्ता है तुम्हारी नैतिकता, तुम्हारी चैतन्यता, तुम्हारे मंत्र, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारी चेतना और देवताओं को अपने साथ लेने की क्षमता। जीवन के दो हेतु हैं, दो तरीके हैं और दोनों के ही माध्यम से जीवन को पार किया जा सकता है। चाहे आप हों या मैं हूं, चाहे साधु हों या सन्यासी हों।
एक व्यक्ति ऐसे होते हैं तो घिसी-पिटी जिन्दगी जी के पूरा जीवन व्यर्थ कर देते हैं। ऐसे 90 प्रतिशत लोग हैं। उनमें हिम्मत, जैसी चीज है ही नहीं और जो चैलेंज लेने का भाव नहीं होता और जो चैलेंज नहीं ले सकता वह जीवन में सफल नहीं हो सकता, जीवन में सफलता के लिए आवश्यक है किसी बात का चैलेंज लें और चैलेंज लेने में हो सकता है सफलता न मिले या कम मिले, हो सकता है हम समाप्त हो जाएं किन्तु चैलेंज का भाव होता ही नहीं तो ये बहुत बड़े जहाज नहीं बनते, समुद्र को तैर करके पार करने की भावना नहीं होती, चैलेंज नहीं होता तो राम एक वानरों की सेना लेकर रावण पर विजय प्राप्त नहीं कर पाता। चैलेंज का भाव नहीं होता तो हुनुमान जी 400 योजन की छलांग लगाकर लंका में नहीं पहुंच पाते। चैलेंज का भाव नहीं होता तो जीवन में जितनी प्रगति होती है वह होती ही नहीं।
ऐसा ही जीवन जीना है, जैसा आप जी रहे हैं तो ऐसे जीवन में कोई नवीनता ही नहीं है। बस जी रहे हैं, पिछला साल भी आपका ऐसा ही बीता था यह साल भी ऐसा ही बीतेगा। 15-20 साल बाद आप समाप्त हो जाएंगे और आप अपने आने वाली पीढ़ी कोई ऐसा प्रेरणा नहीं दे पाएंगे कि वे गर्व से हि सकें कि मेरे पिता चैलेंज के साथ जीए और पशुओं का भी जीवन ऐसा ही होता है। उनके जीवन में भी कोई चैलेंज होता ही नहीं, कोई नवीन बात होती ही नहीं। रिस्क लेने की क्षमता होती नहीं। जंगल में जाते हैं, घास खाते हैं, उन्हें खूटे से बांध देते हैं और दूध दोह लेते हैं। वे बच्चा पैदा कर लेते हैं और आप भी बच्चा पैदा कर लेते हैं, आप भी सांस लेते हैं और एक दिन वो मर जाते हैं और आप भी मर जाते हैं। इसके अलावा नवीनता कोई नहीं होती। इस श्लोक में यही बताया गया है कि अगर आपके जीवन में चैलेंज नहीं है, ऐसा ही घिसा-पिटा जीवन है तो आप अपने बच्चों को कोई खास बात देकर नहीं जाएंगे।
आप जिस भी क्षेत्र में जाएं उच्च कोटि के बनें। साधक बनें तो ऐसे साधक बनें कि पूरा भारत आपको याद करें, ज्योतिष के क्षेत्र में हों तो आप नम्बर वन ज्योतिषी हों, जो कुछ करें उच्च हो और ऐसा होने में रिस्क बहुत है और जो खतरों से जूझ नहीं सकता वह मनुष्य नहीं हो सकता, वह पशु है। हमारे जीवन का सारा आधार एक भोग है, एक मोक्ष है। एक रास्ता मोक्ष की ओर जाता है, ये साधु-सन्यासी, योगी तपस्या करते हैं साधना करते हैं। अब इनमें से कितने सही साधु होते हैं, मैं नहीं कह सकता। भगवे कपड़े पहनने से कोई साधु नहीं होता, लंबी जटा बढ़ाने से कोई साधु नहीं होता। साधु तो वह होता है जिसमें आत्मबल हो, जूझने की शक्ति हो। जो देवताओं को अपनी मुठ्ठी में रखने की क्षमता रखता हो। साधयति सः साधु- जो अपने शरीर को मन को साध लेता है वह साधु है।
जो खुद ही हाथ जोड़ करके कहे- तुम मुझे दस रूपए दे दो, तुम्हारा कल्याण हो जाएगा, साधु नहीं हो सकता। उन लोगों में है ही नहीं आत्मबल। आत्मबल एक अलग चीज है जो लाखों लोगों की भीड़ मे खड़े होकर चैलेंज ले सकता है। अगर मंत्र क्षेत्र में हो तो कह सकता है कि संसार में कोई मेरे सामने आकर खड़ा हो, मैं चुनौती स्वीकार करता हूं। ऐसी हिम्मत, ऐसी क्षमता, ऐसी आंख में चिंगारी होनी चाहिए उसकी बात में क्षमता होनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति सही अर्थो में साधु भी हो सकता है और मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। मोक्ष प्राप्त करना इतना आसान नहीं है और मोक्ष प्राप्त करने के लिए जंगल में जाने की जरूरत नहीं है, हिमालय में जाने की जरूरत नहीं है। जो सभी बंधनों से मुक्त हो वह मोक्ष है और आपके जीवन में कई बंधन हैं। लड़की शादी करनी है, बीमारी से छुटकारा पाना है। घर में कलह है ये सब बंधन हैं। उन बंधनों से मुक्त होना ही मोक्ष कहलाता है। मोक्ष का मतलब यह नहीं कि मरने के बाद जन्म लें ही नहीं हम तो कहते हैं वापस जन्म लें, वापस लोगों की सेवा करें, चैलेंज स्वीकार करें और अद्वितीय बनें। हम क्यों कहें कि हम वापस जीवन नहीं चाहते, हम हजार बार जीवन लेना चाहते हैं, हजार बार जीवन में चैलेंज लेना चाहते हैं और जीवन में सफल होना चाहते हैं। मोक्ष का अर्थ यह नहीं कि पुनर्जन्म हो ही नहीं। मोक्ष का अर्थ है हम जीवन में सारे बन्धनों से मुक्त हो जाएं और व्यक्ति गृहस्थ में भी रहते हुए साधु हो सकता है, भगवें कपड़े पहने हुए भी गृहस्थ हो सकता हैं। साधु हो और उसकी आंख ठीक नहीं हो, गंदगी हो आंख में, उसमें लालच की वृत्ति हो तो वह गृहस्थ से भी गया बीता व्यक्ति है। कम से कम यह तो है कि हम गृहस्थ हैं, हमारी आंख गंदी हो सकती है, हम कुदृष्टि से देख सकते हैं। मगर वे साधु हैं, अगर वे ऐसे लालची होंगे तो साधुत्व ही समाप्त हो जाएगा। इसीलिए साधुओं के प्रति हमारे जीवन में आस्था कम हो गई है। इसीलिए उनके प्रति सम्मान कम हो गया है।
तो एक रास्ता है मोक्ष का और दूसरा है भोग का। भोग का मतलब है कि हम गृहस्थ बनें, हमारी पत्नी हो, पुत्र हों, बंधु हों, बांधव हों, यश हो, सम्मान हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो और हम अपने आप में अद्वितीय बनें। यदि ऐसी नहीं कर सकते तो फिर घिसा पिटा जीवन जीने से मतलब ही नहीं है। आपके मन में कभी चेतना पैदा नहीं होती कि कुछ अद्वितीय करूं। इसलिए पैदा नहीं होती कि आपके जीवन में उत्साह समाप्त हो गया है, तुम्हारे जीवन में कोई गुरू रहा नहीं जो तुम्हें कह सके कि यह सब गलत है। जीवन जीने के लिए तो एक चुनौती का भाव होना चाहिए। एक आकाश में उड़ने की क्षमता होनी चाहिए। एक तोता है, पिंजरे में बंद है। चांदी की श्लाकाएं बनी हुई हैं और बड़ा सुखी है, उसको तकलीफ है ही नहीं, खतरा है ही नहीं। उसको अनार के दाने खाने को दे रहा है मालिक, बोल मिट्ठू राम-राम, वह कहता है- राम-राम। उसे बाहर निकालते हैं, नहलाते हैं, पंख पोंछते हैं और वापस पिंजरे में बंद कर देते हैं और एक तोता है जो पचास साठ किलोमीटर उड़ता है, उसे अनार के दाने खाने को नहीं मिलते, उसके पैरों में घुंघरू नहीं बंधें, मगर वह जो उसे आजादी है, वह उस तोते को नहीं मिल सकती जो चांदी के पिंजरे में बंद है। वह आनन्द उस पिंजरे में बंद तोते को नहीं मिल सकता और तुम भी वैसे ही पिंजरे में बंद तोते हो। तुम्हारे मां-बाप, भाई-बहने ने पिंजरे का तुम्हें तोता बना दिया है और उसमें आप बहुत खुश हैं। आपको हरी मिर्च और अनार के दाने खाने को मिल रहे हैं। और कभी आप उस तोते को पिंजरे से बाहर निकालिए। वह तुरन्त उस पिंजरे में वापस घुस जाएगा। वह बाहर खतरा महसूस करता है कि मर जाऊंगा। कोई बिल्ली खा जाएगी।
और तुम भी एक दो मिनट निकाल कर गुरूजी के पास आते हो और फिर वापस अपने घर में घुस जाते हो। गुरू जी ने जो कहा उसमें खतरा है। मंत्र जप सब गड़बड़ है। वापस अपने पिंजरे में घुसे-पत्नी भी खुश आप भी खुश। पत्नी का चिंता है कि चला जाएगा गुरूजी के पीछे, साधु बन जाएगा कोई भरोसा नहीं है। पत्नी कहती है, तुम्हें क्या तकलीफ है। चाचा भी कहता है, मामा भी कहता है, माँ भी कहती है और आप वापस उस जीवन में घुस जाते हैं जो पूरी जिन्दगी गुलामी है। तुमने कभी आकाश को नापने की हिम्मत नहीं की, इसलिए तुम वह आनन्द नहीं उठा सकते। उसके लिए तो तुम्हें चैलेंज उठाना पड़ेगा जीवन में। तुमने मानसरोवर में डुबकी लगाई नहीं तो तुम्हें क्या पता लगेगा कि मानसरोवर की गहराई क्या है, उसका आनन्द क्या है? मैं ऐसा नहीं कह रहा कि तुम गृहस्थ से अलग हट जाओ। गृहस्थ में रहो मगर सन्यासी की तरह रहो।
गृहस्थ में रह रहे हो तो इस भाव से कि मैं संसार में आया हूं और सब अपना खेल खेल रहे हैं। मैं देख रहा हूं और मुझे तटस्थ रहना है। हम सिनेमा हाल में जाते हैं और फिल्म में कोई मां होती है, उसका जवान लड़का मर जाता है। वह मां जोर-जोर से रोती है और हॅाल में बैठी औरतें भी रोने लग जाती हैं। पूरा हाल सिसकारियों से भर जाता है। अब उन्हें याद ही नहीं कि पांच रूपये का टिकट लेकर आए हैं और यह नाटक चल रहा है। वह तो केवल 3 घंटे का खेल है और तुम्हारा जीवन भी केवल 60 साल का खेल है। कोई नाच रहा है, कोई खेल रहा है, कोई हंस रहा है, कोई रो रहा है। पत्नी चीख रही है, चिल्ला रही है। वह केवल नाटक है, अगर तुम केवल दर्शक रूप में बैठोगे तो तुम्हें दुख नहीं होगा। तुम खुद फंस जाओगे उसमें तो तुम्हें तृष्णाएं आएंगी। तुम्हें दुख होगा, और चिन्ताएं होगी। मेरे गृहस्थ शिष्य हैं तो मुझे उन्हें बताना ही होगा कि कैसे जीवन व्यतीत करना है। मैं उन्हें सन्यासी नहीं बना सकता सन्यासी बनने के लिए हम गृहस्थ में रहते हुए भी उन साधनाओं को कर सकते हैं और भोग का अर्थ है- धन, ऐश्वर्य, पूर्णता और उसका आधार है लक्ष्मी। बिना तुम ध्यान लगाकर नहीं बैठ सकते। उसके लिए भी जरूरी है तुम पहले ऐश्वर्यवान बनो। इतना धन हो कि तुम्हें याचना करने की जरूरत न पड़े। इतना धन हो कि सारी समस्याओं से मोक्ष प्राप्त कर लें। जब ऐसी स्थिति बनेगी तो तुम ध्यान भी कर सकोगे। मगर लक्ष्मी पहला आधार है और उसके बिना आपके जीवन में पूर्णता आ ही नहीं सकती। और जीवन में अद्वितीय बनने के लिए केवल छः महीने बहुत हैं। पचास साल जरूरी नहीं है। अगर छः महीने पूरी क्षमता के साथ साधना करें तो हम पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं, सफलता प्राप्त कर सकते हैं। अपने जीवन में देवताओं को देख सकते हैं परन्तु उसके लिए एक चैलेंज, एक क्षमता आपमें आनी चाहिए। प्रत्येक गांव में गुरू पहुंचे यह चैलेंज उठाना चाहिए जिससे आप लाभ उठा सके औरों को भी लाभ हो सके।
आपके मन में लोगों ने एक भय पैदा कर दिया है कि साधना करोगे तो बरबाद हो जाओगे, साधु बन जाओगे, साधना में सफलता मिलेगी नहीं और तुम्हारे मन में जो भय है तो पाँच सौ गुरू भी आ जाएं तो वे इस भय को नहीं मिटा सकते। किसी पत्रकार ने मुझसे पूछा कि क्या पूर्व जन्म होता है? मैंने कहा होता है, आपका पिछला जीवन मुझे याद है, बिना पिछले जन्म के संबंध के आप मुझे मिल ही नहीं सकते थे। यह संभव ही नहीं था। पिछले जीवन के संबंध ही इस जीवन में बनते हैं। मैं पिछले जीवन में भी आपका गुरू था और इसीलिए कहता हूं कि साधना का रास्ता ही आपका रास्ता है और चैलेंज के साथ साधना करोगे तो लक्ष्मी एक मामूली बात है सम्पूर्ण देवता आपके सामने खड़े हो सकते हैं। जब राम और कृष्ण और बुद्ध के सामने खड़े हो सकते हैं तो आपके सामने भी खड़े हो सकते हैं।
शंकराचार्य ने कहा- अंह ब्रह्मास्मि। मैं खुद ब्रह्मा हूं। और मैं कहता हूं तुम खुद ब्रह्मा हो। मगर तब जब तुम्हें अपना पूरा ज्ञान हो। अगर हम जीवन में चैलेंज लेकर आगे बढ़ते हैं तो निश्चय हम सफलता प्राप्त करते हैं और ऐसे सैकड़ों उदाहरण मेरे सामने हैं कि उन शिष्यों ने एक चैलेंज लिया और वे सफल हुए। मेरे हृदय में तो हजारों नाम हैं जिन्होंने धारणा को लेकर कार्य किया और सफलता प्राप्त की। आप किस प्रकार का जीवन जीना चाहते हैं वह तो आप पर निर्भर है। मैं तो आपको सिर्फ समझा सकता हूं, मैं आपको एहसास करा सकता हूं कि जीवन का आनन्द क्या है? और साधना द्वारा हम उस स्थान पर पहुंच सकते हैं जहां बिरह होता ही नहीं। हम आंख बंद कर चिंतन करते है तो गुरू आंखों के सामने साक्षात् हो जाते है। साधना के माध्यम से संतोष प्राप्त किया जा सकता है, साधना के माध्यम से हम प्रभु के चरणों में पहुंच सकते हैं। आपके जीवन में ऐसा आनन्द हो, ऐसा संतोष हो, आपके जीवन में पूर्णता हो, आप भी ध्यान लगाने की प्रक्रिया में संलग्न हो सकें, अपने इष्ट के दर्शन कर सकें, और अपने आपको पूर्ण रूपेण गुरू चरणों में समर्पित करते हुए उस ज्ञान को प्राप्त कर सकें जो हमारे पूर्वजों की धरोहर थी, ऐसा ही मैं आप सबको हृदय से आशीर्वाद देता हूं।
सद्गुरुदेव परमहंस निखिलेश्वरानंद जी
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