साधक का जो शरीर है, उसे ही श्री युक्त बना दिया जाये, उसके शरीर को ही श्री लक्ष्मी स्वरूप बना दिया जाये, स्थापित कर दिया जाये मंगला लक्ष्मी राजराजेश्वरी कवच को। यही तो श्री विद्या है और ‘श्री’ का तात्पर्य है- जीवन की पूर्णता, यश, वैभव, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य, धन-धान्य और यह सर्वरूप में साधक को प्राप्त हो सकें, उसे ‘श्री’ कहते हैं, दरिद्रता युक्त जीवन को ‘श्री’ नहीं कहते हैं। जीवन की सभी गतिविधिायों के हम संचालक हों, हम निर्धारक हों, हमारा उन पर नियंत्रण हो सके, हम परिस्थितियों पर नियंत्रण कर सकें, यही श्री युक्त जीवन है और यह सब मात्र मंगला लक्ष्मी राजराजेश्वरी कवच की क्रिया को अपनी देह में स्थापन मात्र से सम्भव है।
यह तो जीवन का सौभाग्य है जिसमें भगवती श्री-विद्या त्रिपुर सुन्दरी राजराजेश्वरी की पूर्ण कृपा एवं वर प्राप्त होता है तो जीवन दुविधाओं से, समस्याओं से, मुक्त होने की क्रिया प्रारम्भ कर देता है।
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