भारत वर्ष में युगों से ही ऋषि, महर्षि और योगीजन ने मन पर विजय पाने तथा आत्मा को जीवन में सर्वोपरि स्थान देने के लिए अनेकों प्रयास किये हैं, क्योंकि साधना के आधार पर उन्होंने बहुत पहले ही जान लिया था, कि जीवन की पूर्णता हेतु, जीवन के सौन्दर्य को पूरी तरह पुष्पित करने हेतु मन का नहीं, अपितु आत्मा का विकास आवश्यक है। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु अध्यात्म का विकास हुआ और इन विज्ञान के केन्द्र में था मन के मोहन की प्रक्रिया। मन का मोहन यानि स्वमोहन या सम्मोहन, क्योंकि जब तक स्वयं के विचार व स्वयं की शक्ति पूर्ण रूपेण केन्द्रित नहीं होगी, तब तक आत्मा की सुगन्ध का जीवन में प्रवाहित होना संभव ही नहीं।
कामना का धार्मिक आधार व्यक्ति को उसकी इन्द्रियों की तुष्टि एवं अदम्य इच्छाओं से विरत करता है, व्यक्ति आत्मिक उत्थान की ओर अग्रसर होकर धार्मिक बनता है, मनुष्य का प्रेम, स्नेह, अनुराग एवं आकर्षण उच्चतर अवस्था में ईश्वर के प्रति आकृष्ट होता है, तो मोक्ष का मार्ग है। वह निरन्तर ईश्वर के प्रति अनुरक्त होता जाता है और उसे भोगों के प्रति विरक्ति हो जाती है।
इस जीवन की गति अत्यन्त ही विचित्र है, व्यक्ति चाहे पुरूष हो अथवा स्त्री, सुखों की तलाश में निरन्तर भटकता ही रहता है। वह अपने छोटे से जीवन में सभी सुखों को प्राप्त करने में प्रयत्नशील रहता है। पहले भौतिक दृष्टि से पूर्ण सुख प्राप्त करना चाहता है और उसके बाद ही वह अध्यात्म आदि को अपने जीवन में स्थान दे पाता है। जीवन की इस यात्रा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव विवाह होता है, इस विवाह प्रक्रिया के कारण-व्यक्ति के जीवन में एक विशेष परिवर्तन आता है, जो कि उसके जीवन की दिशा ही मोड़ देता है, इस जीवन यात्रा में यदि समझदार, योग्य, भावनानुकूल जीवन साथी मिल जाता है, जीवन में कष्ट, जिम्मेदारियां एवं बाधाएं तो आती ही हैं, लेकिन योग्य जीवन साथी मिलने से कष्टों की पीड़ा निश्चय ही कम हो जाती है।
भारतीय संस्कृति में भी विवाह को प्रमुख स्थान दिया गया है। जहां प्राचीन समय में स्वयंवर होता था, कन्याओं को अपना जीवन साथी तथा पुरूषों को अपनी जीवन संगिनी चुनने का अधिकार था, जिसके कारण वे अपना जीवन सुचारू रूप से आनन्द पूर्वक व्यतीत कर सकते थे, जीवन एक बोझ नहीं था, अपितु लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु एक काल अवधि थी। कालान्तर में इस स्थिति में परिवर्तन होने लगा, और इस विवाह संस्कार में ही कुछ ऐसी विकृतियां आ गई जिनका परिणाम आज सारे समाज को भोगना पड़ रहा है। समाज निरन्तर पुरूष प्रधान बनता गया, और स्त्रियों को गौण स्थान दिया जाने लगा, वास्तव में स्त्री, सामाजिक जीवन में उतनी ही आवश्यक है उसकी उतनी ही महत्ता है जितनी पुरूष की, सामाजिक जीवन के दोनों एक समान, एक दूसरे के पूरक अंग है, बिना एक दूसरे का जीवन, इस सृष्टि क्रम में चल ही नहीं सकता।
कन्या के विवाह हेतु, उचित वर हेतु, जो पीड़ा, उसके अभिभावकों को अथवा उसके परिवार के सदस्यों को झेलनी पड़ती है, दहेज इत्यादि की विकृति आ जाने से तो यह स्थिति और भी अधिक खराब हो गई है, जिस प्रकार झूठे जीवन मूल्य, जीवन स्तर बढ़ते जा रहे हैं। कन्या का एक बार विवाह हो जाने के पश्चात् भी समस्याओं का अन्त नहीं है, यह स्थिति विचित्र होते हुए भी आज हर घर में फैली हुई है।
आज जहां उचित समय पर योग्य वर प्राप्त न होने के कारण कन्याएं, उनके माता-पिता मानसिक रूप से व्यथित है, कन्याएं सब कुछ देखते, समझते हुए भी सामाजिक मर्यादाओं के कारण न तो कुछ कह सकती है, और न ही कुछ कर सकती है। प्रेम विवाह वर्तमान संदर्भ में सहज संभव नहीं है, यही स्थिति पुरूषों की भी है, आज सौ में निन्यानबे व्यक्ति अपने वैवाहिक जीवन से संतुष्ट नहीं है, व्यक्ति को जिस प्रकार की पत्नी अथवा कन्या को जिस प्रकार के पति की इच्छा, अभिलाषा थी, वैसा नहीं हो पाया, जीवन तो चल ही रहा है, इस स्थिति में जीवन जीने का आनन्द नहीं है, यह तो जीवन को किसी तरह से काटना होता है।
प्राचीन समय में कन्या वर के लिये तथा पुरूष योग्य पत्नी के लिये निश्चय ही साधनाएं, तपस्या सम्पन्न करते थे, जिसके कारण उनका जीवन पूर्णतः सुखी, संतुष्ट रहता था। विवाह, दो विभिन्न विचार धाराओं वाले, विभिन्न पृष्ठ भूमि से, विभिन्न वातावरण में पले बढ़े, पुरूष-स्त्री की जीवन यात्रा का प्रारम्भ होता है। इस यात्रा में, जिसे गृहस्थ जीवन कहा जाता है, आपस में किसी न किसी रूप में मतभेद अवश्य बन जाता है, छोटे-मोटे मतभेद जीवन में मायने नहीं रखते है, लेकिन कई बार स्थिति विपरीत हो जाती है।
इन मतभेदों के कारण आप जो कार्य करना चाहते हैं, वह पूरे तौर पर नहीं कर पाते। शास्त्रों में लिखा है कि- भाग्यवान व्यक्ति को ही जीवन में पूर्ण अनुकूल पत्नी मिल पाती है, अन्यथा विपरीत विचार-धाराओं के कारण मानसिक तनाव इतना अधिक बढ़ जाता है, कि जीवन, विशेषकर गृहस्थ जीवन भार सा लगने लगता है, व्यक्ति की उन्नति रूक सी जाती है और वह कुंठित हो जाता है, यह स्थिति दोनों के लिए अनुकूल नहीं कही जा सकती।
जीवन में गृहस्थ की दृष्टि से पूर्ण अनुकूलता एवं सिद्धि देने वाली देवी, वाणेशी शक्ति साधना है। वैवाहिक जीवन को धर्म, अर्थ, काम शक्ति से युक्त करने में यह साधना पूर्ण फलदायी है।
यह नव दिवसीय साधना 27 मार्च दुर्गाष्टमी से 4 अप्रैल चैत्र पूर्णिमा चन्द्र ग्रहण के दिवस तक सम्पन्न करें। या फिर किसी भी शुक्रवार से प्रारम्भ की जा सकती है। यह नौ दिवसीय साधना है। इस साधना में मंत्र सिद्ध सामग्री मांतगी यंत्र और वाणेशी शक्ति माला की आवश्यकता होती है। साधक प्रातः 6 से 8 बजे के मध्य स्नान आदि से निवृत्त होकर पीले वस्त्र धारण कर, अपने साधना कक्ष में उत्तर दिशा की ओर मुह कर बैठ जाये।
दायें हाथ में जल लेकर निम्न विनियोग सम्पन्न करें।
विनिग
ऊँ इस श्रीवाणी मंत्र का सम्मोहक मंत्र
गायत्री मंत्र है, वनेशि देवता है, मेरी इच्छा है
पूर्णता के उद्देश्य से जप का अनुप्रयोग
(जल भूमि पर छोड दे।)
कर न्यासी
उसने सम्मोहक को अपने अंगूठे झुकाये
तर्जनी से नीला आकर्षण
मध्य में ॐ वशीकरण्यै नमः
द्रीं क्षौभिन्यै नमः
निचली भुजाओं पर द्रां द्रविण्यै नमः
ड्राम ड्रिम क्लिम ब्लम साह वनेशी हथेलियाँ और पीठ
अंग भरोसा
वह सम्मोहित करने वाले का हृदय है
नीले आकर्षक मस्तक स्वाहा
क्लीं वशीकरण्यै शिखै वषत्
ड्रिम सरगर्मी ढाल हम्म
त्रिनेत्र ते द्रं द्रविण्यै वौषात्
द्रम द्रिम क्लिम ब्लम सह वेनेशी अस्त्रया फाट
अब अपने बायें हाथ में यंत्र को लेकर दायें हाथ से यंत्र पर निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये सिन्दूर से 9 बिन्दियां लगायें। फिर यंत्र को बाजोट पर स्थापित कर अक्षत, पुष्प अर्पित करें।
ऊँ मातंग्ये नमः ऊँ मोहिनी नमः। ऊँ सरगर्मी
नमः. ऊँ त्रसीनै नमः। ऊँ स्तम्बिनी नमः। ऊँ
ॐ आकर्षण. ऊँ द्रविण्यै नमः। ओम अह्लादिन्यै
नमः. ॐ क्लींनै ॐ. बीच में: ॐ क्लेदिन्यै नमः।
अब निम्न मंत्र बोलते हुए यंत्र की आठो दिशाओं में आठ ईलायची रखें।।
ॐ अनंगरूपायै नमः, ॐ अनंगमदनै नमः, ॐ
ॐ अनंगमन्मथयै नमः, ॐ अनंगकुसुमै नमः, ॐ
ॐ अनंगमदनातुरायै नमः, ॐ अनंग शिशिरायै नमः, ॐ
ॐ अनंगमैखलायै नमः, ॐ अनंगदीपिकायै नमः।
फिर वाणेशी शक्ति माला से मांतगी मंत्र की 9
माला नित्य जप करें।
मंत्र जाप के पश्चात् अन्तिम दिवस खग्रास चन्द्र ग्रहण 04 अप्रैल की रात्रि 7 से 9 के मध्य हवन सामग्री में चावल मिश्रित कर वाणेशी मंत्र की 108 आहुतियां देने से वशीकरण सिद्धि और सुलक्षणा पत्नी या कामदेव शक्ति युक्त पति की प्राप्ति होती ही है। साधना के पश्चात् माला को धारण कर लें और यंत्र को जल में प्रवाहित कर दें।
वाणेशी देवी कामना परक देवी मानी गई है जिसके ध्यान से ही यह स्पष्ट होता है कि वे विभिन्न अलंकारों से विभूषित कामबाण से युक्त है। काम जीवन का एक अभिन्न अंग है और चतुर्वर्ग में इसे प्रमुख स्थान दिया गया है। जो कामना पूर्ण करना चाहते है वह सहज और पूरी होनी चाहिये क्योंकि जीवन में उन्नति की सीढि़यों पर निरन्तरता बनातें हुए ही लक्ष्य पर पहुंचा जा सकता है। उसी प्रकार प्रत्येक कामना पूर्ण करके ही जीवन की पूर्णता की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है। ये कामनायें जीवन के किसी भी भाव से सम्बन्धित हो सकती है लेकिन इसमें आप अपनी शक्ति का उपयोग कर अपनी मनोकामना पर पूर्णरूप से विजय प्राप्त करें।
विक्रम संवत् के नूतन प्रारम्भिक मास की पूर्णता चन्द्रग्रहण के चैतन्य दिवस से हो रही है अतः इस चैत्रिय पूर्णिमा के शुभ अवसर पर ऐसे दिव्यतम साधना को शक्तिपात चेतना के माध्यम से सम्पन्न करने से निश्चित रूप से नूतन वर्ष कामना पूरित स्थितियों से युक्त हो सकेगा। इसी हेतु आप किन्हीं तीन मित्रों को पत्रिका सदस्यता बनाने पर आपको वाणेशी शक्ति दीक्षा और साधना सामग्री उपहार स्वरूप प्रदान की जायेगी।
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